रेल बजट ने उपयुक्त अवसर गंवा दिया
नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री, बिहार भारत के रेल मंत्री सुरेश प्रभु अच्छे इनसान हैं और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मेरे सहयोगी रहे हैं. मैं उनके पहले रेल बजट पर उन्हें बधाई देता हूं. इस वर्ष का रेल बजट पूर्व की तुलना में अलग था. बजट भाषण में संसद को पिछले वर्ष के वित्तीय प्रदर्शन […]
नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री, बिहार
भारत के रेल मंत्री सुरेश प्रभु अच्छे इनसान हैं और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मेरे सहयोगी रहे हैं. मैं उनके पहले रेल बजट पर उन्हें बधाई देता हूं. इस वर्ष का रेल बजट पूर्व की तुलना में अलग था. बजट भाषण में संसद को पिछले वर्ष के वित्तीय प्रदर्शन के बारे में विस्तार से कुछ नहीं बताया गया. इसके साथ ही, इसमें किसी ठोस कार्ययोजना, समयबद्ध प्राथमिकताओं या लक्ष्य के बारे में भी कोई जिक्र नहीं था. भारतीय रेल के लिए आज सबसे बड़ा लक्ष्य है अपनी पुरानी सफलता के गाथाओं से हट कर भविष्य के एजेंडा की पहचान करना. रेल बजट ने भावी एजेंडा के खाका को ठोस रूप से रखने का उपयुक्त अवसर गंवा दिया. उसके स्थान पर बजट भाषण सिर्फ बड़े दावों का वक्तव्य था.
मैं यह बात अपने स्वयं के अनुभव से कह रहा हूं. वर्ष 2001-02 का रेल बजट पेश करने के दौरान, मैंने कहा था कि रेलवे को बाजारोन्मुखी और उपभोक्ता अनुकूल दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय रेल को अच्छे प्रबंधन, सुरक्षा मानदंडों का पालन और नवोन्वेषण की बदौलत पीपुल फेंड्रली बनाना था. 17 हजार करोड़ रुपये का एक विशेष रेलवे सुरक्षा कोष बनाया गया था. इस कोष ने ऊपरि पुलों जैसी संरचना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, जिससे सुरक्षा का स्तर सुधरा. वर्ष 2002 में साफ पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए भारतीय रेल ने रेल नीर का उत्पादन शुरू किया. माल भाड़ा और यात्री किराया को तर्कसंगत किया गया.
खानपान व्यवस्था को इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म को सौंपा गया और उसे पूरी तरह से बदल दिया गया. पहली बार माल ढुलाई की क्षमता को सुधारने के लिए निजी क्षेत्र से सहयोग लेने की नीति बनायी गयी. वर्ष 2002 को रेल में यात्र करने वालों के नाम पर समíपत किया गया और ‘यात्री सुविधा वर्ष’ के रूप में मनाया गया, वहीं वर्ष 2003 ‘उपभोक्ता संतुष्टि वर्ष’ के रूप में मना. अगले वर्ष के रेल बजट में टिकटिंग प्रणाली में सुधार के लिए इनोवेशन (नवोन्मेषण) और उपभोक्ता के अनुकूल उपायों पर जोर दिया गया. मेरे रेल मंत्री रहने के दौरान सुरक्षा को और पुख्ता करने के लिए एंटी कॉलिजन सिस्टम लाया गया था. वर्ष 2001 से भारतीय रेल ने सिर्फ परिचालन लागत में सुधार ला कर और यात्री किराये में वृद्धि किये बगैर उल्लेखनीय प्रगति की है. इसलिए सकारात्मक उद्देश्य से अधिक एक पूर्णत: स्पष्ट कार्ययोजना की जरूरत है. यहीं पर 2015-16 का रेल बजट पर्याप्त संभावनाओं को नहीं प्रकट कर पाता है. वह बहुत हद तक बहुपक्षीय और द्विपक्षीय एजेंसियों और निजी क्षेत्र की कृपा पर आधारित है.
पहले ऐसी कोशिशें सफलता मापने वाले स्केल पर खरी नहीं उतरी हैं. निवेशक अक्सर गरीब राज्यों की तुलना में विकसित राज्यों को तवज्जो देते हैं. इसलिए ऐसी योजना, जो बाहरी देनदारों और निवेशकों के भरोसे हों, पैमाने को गरीब और पिछड़े राज्यों के विरोध में झुका सकती हैं. इसके आगे, राज्यों के साथ पार्टनरशिप का मॉडल भी साफ नहीं है और अप्रमाणित धारणाओं पर आधारित है. ऐसी ही एक धारणा यह है कि 14 वें वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राज्यों को बहुत लाभ हुआ है. बड़ी निराशा के साथ यह कहना पड़ रहा है कि बिहार को नि:संदेह पहले की तुलना में कम पैसा मिलेगा.
जब मैं रेल मंत्री था, तब हमलोगों ने एक सहभागी मॉडल विकसित किया था और इसे सफलतापूर्वक लागू भी करवाया था. इसके तहत भारतीय रेल ने राज्यों द्वारा प्रस्तावित विशिष्ट परियोजनाओं में उनकी क्षेत्रीय वरीयता के आधार पर आंशिक योगदान दिया. पूरे देश में इस मॉडल के आधार पर कई परियोजनाएं सफलतापूर्वक पूरी की गयीं.
भारत कैसे काम करता है, इसका सजीव अफसाना है भारतीय रेल. इसलिए, इस अफसाने को देश की कहानी बतानी चाहिए. इस कहानी के किरदार साधारण सवालों में छिपे हैं. क्या ट्रेनें समय पर चलती हैं? क्या ट्रेन में यात्र करना सुरक्षित है, खासकर महिलाओं के लिए? क्या स्टेशन और ट्रेनें साफ-सुथरी हैं? क्या वहां पर पीने का साफ पानी है? क्या लोग सार्वजनिक संपत्ति का मान रखते हैं? क्या रेलवे यात्रियों के दबाव को ङोलने में सक्षम है? क्या देश में कुल मिलाकर कनेक्टिविटी बढ़ रही है? ऐसे सवालों के जवाब सिर्फ भारतीय रेल के अफसाने का निर्माण नहीं करती हैं, बल्कि देश के जीवन की कहानी भी सुनाती है.
रेलवे में निवेश और आधारभूत संरचनाओं के निर्माण के रोडमैप में इन आधारभूत सवालों को भी समाहित करने की जरूरत है. इसके अतिरिक्त, इसे भविष्योन्मुखी भी होना चाहिए. भारत युवा देश है, जहां लोग शिक्षा, रोजगार और दूसरे काम से एक जगह से दूसरे जगह आते-जाते रहते हैं और उनकी मांग निर्बाध डिजिटल कनेक्टिविटी की रहती है, इसके साथ ही वे समय की गारंटी, सुरक्षा, स्वच्छता और जवाबदेही की मौलिक गारंटी भी चाहते हैं. ये पहलू देश में प्रोफेशनल और व्यापारिक माहौल को मजबूत करने में भी मदद करते हैं.
इसलिए रेल बजट में ऐसे मोर्चो पर यात्रियों को देने के लिए क्या है? ज्यादा से ज्यादा एक अधूरा खाका, बिना किसी ठोस योजना के. पहले ट्रेनों को समय से परिचालन के मामले को लेते हैं. बजट इस मुद्दे को कैसे डील करता है? यात्रियों को ट्रेन के समय और लेट होने की सूचना एसएमएस से देने की पहल स्वागतयोग्य है, लेकिन ट्रेनों के समय पर चलने की जरूरत का स्थान यह नहीं ले सकता है. जहां तक कनेक्टिविटी का सवाल है, बजट में पिछली परियोजनाओं की ही चर्चा है. हालांकि, लंबे समय से लटकी परियोजनाओं, जिनमें कई महत्वपूर्ण योजनाएं बिहार में भी हैं, को तय समय में पूरा करने के बारे में बजट में कोई वादा नहीं किया गया है. इसके साथ ही न्याय का तकाजा यही था कि ईंधन की कीमतों के कम होने का फायदा उपभोक्ताओं को दिया जाना चाहिए था.
रेलवे को लंबी अवधि की नीति बनाने में राज्यों की परिस्थिति का फायदा उठाना चाहिए. उदाहरण के लिए, बिहार श्रमिकों की संख्या में मामले में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है और आगे भी रहेगा. बिहार दूसरी हरित क्रांति का नेतृत्व करने को तैयार है. फिर भी, रेल बजट में निवेश की जो रणनीति बनायी गयी है उसे इससे फायदा होता नहीं दिख रहा है. उदाहरण के लिए, वैसे राज्य, जहां मानव श्रम की अधिकता है और शिक्षण संस्थानों की कमी, वहां नये शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान खोलने की योजना एक अच्छी सोच हो सकती है.
संक्षेप में कहें, तो रेल बजट अधूरा है. यह सिर्फ इरादा जाहिर करने वाला प्रस्ताव है, जबकि भारत की जनता जमीन पर काम होते देखना चाहती है, सिर्फ प्रस्ताव का वर्णन नहीं. राष्ट्र इस समय इरादों को ठोस कार्रवाई में तब्दील होते देखना चाहता है और एनडीए सरकार ने अब तक ऐसा नहीं किया है. (इंडियन एक्सप्रेस से साभार)