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अब करोड़ों के खेल-खिलाड़ी

1947 में देश जब आजाद हुआ, खेलों के नाम पर अंगरेज हॉकी स्टिक और क्रिकेट का बल्ला विरासत में थमा गये थे. भारत हॉकी का बादशाह था, जबकि बल्ला पकड़ना सीख रहा था. वक्त के साथ खेलों की दुनिया में कई तरह के उतार-चढ़ाव आये, कुछ नयी तकनीक के कारण, तो कुछ दूसरे खेलों के […]

1947 में देश जब आजाद हुआ, खेलों के नाम पर अंगरेज हॉकी स्टिक और क्रिकेट का बल्ला विरासत में थमा गये थे. भारत हॉकी का बादशाह था, जबकि बल्ला पकड़ना सीख रहा था. वक्त के साथ खेलों की दुनिया में कई तरह के उतार-चढ़ाव आये, कुछ नयी तकनीक के कारण, तो कुछ दूसरे खेलों के प्रति बढ़ते आकर्षण के कारण. 1947 का ‘बच्चा’ 2013 में 66 साल का हो चुका है. यह अब कई खेलों में तेजी से चलने लगा है, लेकिन इंतजार है ओलिंपिक मे दूसरों से आगे निकलने का.

1947 का भारत शिशु अवस्था में था, लेकिन बेमिसाल अतीत का साथ था. बालकपन नये सपने दिखा रहा था, इतिहास इन सपनों को जल्द अंजाम तक पहुंचाने के लिए दबाव बना रहा था. खेल भी इसी पटकथा का आईना था. ब्रिटिश चले गये, लेकिन विरासत में हॉकी स्टिक और क्रिकेट का बल्ला थमा गये. तब कहा जाता था कि हिंन्दुस्तानी तीन पैरों के साथ जन्म लेते हैं, दो स्वाभाविक पांव और तीसरा हॉकी स्टिक के तौर पर पांव. हॉकी में इस कदर की बादशाहत थी, तब हम बल्ले की ग्रिप टटोलने की कोशिश कर रहे थे.

1925 में इंडियन हॉकी फेडरेशन बना. 1926 तक अंतरराष्ट्रीय हॉकी संघ को भरोसा हो चुका था कि भारत 1928 ओलिंपिक का दावेदार है. एक बाधा थी. ब्रिटेन अड़ा हुआ था कि भारत को मौका नहीं मिले. आखिरकार कॉलोनियन मास्टर तैयार तो हो गये, लेकिन इस शर्त पर कि वह ब्रिटिश इंडियन हॉकी टीम के नाम से शामिल हो. 1928 ओलिंपिक से लेकर 1947 में भारत की आजादी तक, ब्रिटेन और भारत का ओलिंपिक में कभी आमना-सामना नहीं हुआ. आखिरकार दोनों टीमें 1948 ओलिंपिक में वेंब्ले में टकरायी और भारत ने इंग्लैंड को 4-1 से रौंद दिया.

इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड के बाद भारत 1932 में टेस्ट क्रिकेट खेलनेवाला पांचवां देश बना. 15 अगस्त, 1947 को आजादी के बाद टीम सबसे पहले ब्रैडमैन के देश ऑस्ट्रेलिया गयी. ब्रैडमैन की टीम ने लाला अमरनाथ की कप्तानी में भारतीय टीम को 4-0 से हराया. हां, बारिश की वजह से हम एक टेस्ट मैच को ड्रॉ कराने में कामयाब रहे, तो दो फस्र्ट क्लास मैच को अपने नाम किया. ब्रैडमैन की सेना का कोई सानी नहीं था, लेकिन मांकड़-फडके जैसों ने भरोसा दिलाया कि आगे संभावनाएं हैं.

हॉकी के पास मेजर ध्यानचंद नाम का कोहिनूर हीरा था, क्रिकेट को ऐसे हीरे की तलाश थी. हॉकी और बल्ले के बीच खेलों का सबसे बड़ा महामेला ओलिंपिक था. पीएरे डी क्यूबरटिन का विजन जो हो, लेकिन ओलिंपिक राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति और ताकत का बैरोमीटर बन चुका था. भारत इस बैरोमीटर की शुरुआती डिग्री पर था. नार्मन पिचर्ड ने 1900 में पेरिस ओलिंपिक में जरूर भारत के नाम पर दो मेडल जीते, लेकिन बॉलीवुड और क्रासवे के स्टार किस तौर पर भारतीय माने जाएंगे, यह गंभीर बहस का मुद्दा है. हर कुछ तय लीक पर चले और अनिश्चितता न हो, तो फिर खेल किस नाम का!

स्पोर्ट्स रोमांचित करता है, क्योंकि यह हमें अचंभित करता है. वक्त-वक्त पर नाजुक मोड़ पर ऐसे किरदार आते हैं, जो न सिर्फ जेनेरेशन के लिए, बल्कि आनेवाली पीढ़ियों के लिए किरदार बन जाते हैं. फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह ऐसे ही किरदार रहे. 1947 के बंटवारे के प्रतीक मिल्खा जीवट थे, दिलेर थे और तंगी को बदहाली नहीं, बल्कि ताकत बनाना जानते थे. 1960 रोम ओलिंपिक में वे मेडल जीतने से बस सेकेंड के सौवें हिस्से से दूर रह गये. 1974 लॉस एंजिलिस ओलिंपिक में पॉयोली एक्सप्रेस पीटी ऊषा एक तरह से एक्शन रीप्ले में मेडल से सेकेंड के सौवें हिस्से से दूर रह गयीं. भारतीय आर्थिक-समाजिक व्यवस्था के नायकों की तरह. शायद मंजिल के करीब पहुंच कर मंजिल से दूर रह जाना भारतीय खेल नायकों की भी नियति थी.

हार-जीत से दूर, हर हिन्दुस्तानी के दिल में एक खेलप्रेमी छुपा रहता है. पहले वह खेलप्रेमी मैदान में जंग में जाता था, फिर रेडियो ने आंखों-देखी हाल को कानों तक पहुंचाया. फिर टेलीविजन का युग आया. टेलीविजन के आने के बाद तो स्पोर्ट्स ऐसे दौर में पहुंच चुका है, जहां स्टेडियम से आने वाला गेट-मनी बेमानी बन चुका है और प्रसारण के राइट्स बीलियन डॉलर में बिकते हैं. आज हम हाई डिफिनिशन डिजिटल पिक्चर के युग में हैं, लेकिन रेडियो कमेंटेटर का मुस्कुराना, चुप हो जाना, चीखना-चिल्लाना और स्ट्रेट ड्राइव से लेकर पेनाल्टी कॉर्नर तक को ऐसे बताना जैसे हम आंखों-देखा हाल खुद भी देख रहे हैं, यह सब अब भी याद है.

हॉकी के विपरीत 1960 तक क्रिकेट एलीट स्पोर्ट्स रहा. ऑल इंडिया रेडियो के कमेंटेटर अंगरेजी में कमेंट्री करते थे और डिकी रत्नागर, पियरसन सूरीता, वीएम चक्रोपनी और देवराज पुरी उस दौर के मैदान के नायकों से कम नहीं थे. 1971 में सेलेक्शन कमेटी के अध्यक्ष विजय मर्चेंट ने नवाब पटौदी को हटा कर एक आम घर से आये अजित वाडेकर को कप्तानी सौंपी. वाडेकर की सेना ने सोबर्स के शेरों को वेस्टइंडीज में हराया, तो इंग्लैंड को उसी की जमीन पर पटखनी दी. हॉकी में हमने जो 1948 में ही कर दिया था, वो क्रिकेट में 1971 में कर पाये. क्रिकेट आमलोगों का खेल होता चला गया और क्रिकेट कमेंट्री अंगरेजी के साथ बारी-बारी से हिंदी में भी आने लगी. फिर क्या था, सुशील जोशी, जसदेव सिंह, रवि चतुवर्दी और प्रोफेसर इंद्र मोहन सहाय के आवाजों की खनक आम आदमी के कानों तक आने लगी.

हर खूबसूरत चीज का एक दिन अंत होता है. क्रिकेट की रेडियो कमेंट्री की लोकप्रियता बढ़ने के साथ हॉकी का ग्रॉफ नीचे जाता गया. टेलीविजन आने पर क्रिकेट का पारा और तेजी से ऊपर चढ़ता गया. 1982 दिल्ली एशियन गेम्स ने कलर टीवी को भारतीय घरों में लाया, तो 1983 वल्र्ड कप जीत ने भरोसा दिलाया कि हम विश्व चैंपियन बनने का माद्दा रखते हैं. लार्डस की बालकोनी से हजारों मील दूर कपिल के दिलेरों को देख रहे एक नौजवान ने ठाना- वह भी सीरियस क्रिकेट खेलेगा!

1987 में क्रिकेट वल्र्ड कप पहली बार इंग्लैंड से बाहर गया, भारतीय उपमहाद्वीप आयोजक बने और क्रिकेट का पावर सेंटर लार्डस से हट कर कोलकाता-दिल्ली के करीब पहुंचता चला गया. 1983 की जीत के बाद सीरियस क्रिकेट खेलने की हसरत रखनेवाला नौजवान 1987 वल्र्ड कप में बॉल-बॉय बन चुका था. और फिर 1989 में मात्र 16 साल के सचिन तेंडुलकर ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कदम रखा.

1991 में नरसिंह राव-मनमोहन सिंह की जोड़ी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने का फैसला किया. इसके बाद भारतीय विशाल मध्यम वर्ग मजबूत होता चला गया और तेंडुलकर उसके रोल मॉडल बने. वे मैदान में अपने दौर के ही नहीं, बल्कि सर्वकालीन विश्वविजेता के तौर पर सामने आये. मैदान के बाहर वे 22 साल की उम्र में ही दुनिया के सबसे अमीर क्रिकेटर बन चुके थे. बावजूद इसके, वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श पति और आदर्श पिता के तौर पर सामने आये. भारतीय क्रिकेट को अपना ‘ध्यानचंद’ टीवी युग में मिला, जब बाजार खुल चुका था और क्रिकेट में पैसा बरसने लगा था.

1971 में वाडेकर के तौर पर आम घर से आये एक कप्तान ने मोरचा संभाला, तो 2007 में रांची से एक ऐसा नौजवान निकला, जो तय मान्यताओं और मापदंडों को खुल कर चुनौती दे रहा था. 2011 में वह नौजवान कपिलदेव के बाद दूसरी भारतीय विश्व चैंपियन टीम का कप्तान बना और 2013 तक क्रिकेट में हर संभव ट्रॉफी उनके पास है. क्रिकेट अब पूरी तरह से आम आदमी का खेल बन चुका है.

क्रिकेट मैदान से दूर, वक्त-वक्त पर दूसरे खेलों से आये महानायक भी हमें हुनर और माद्दा से अचंभित करते हैं. टेनिस में लिएंडर पेस जैसे जीवट आते हैं, तो बैडमिंटन में सायना नेहवाल चीन की बादशाहत को चुनौती देती हैं. बॉक्सिंग में विजेंदर से लेकर मैरीकॉम तक का घूसा जीत दिलाता है, तो कुश्ती में सुशील कुमार विरोधियों को चारों खाने चित्त करते हैं. हमें नाज है अभिनव बिंद्रा, गगन नारंग और विजय कुमार के निशाने पर.

लेकिन भारत की असीम क्षमताओं को देख कर यह थोड़ा सा लगता है, अभी बहुत-बहुत की जरूरत है. 1947 का ‘बच्चा’ 2013 में 66 साल का हो चुका है. यह अब कई खेलों में तेजी से चलने लगा है, लेकिन इंतजार है उस लम्हे का जब यह ऐसा दौड़े, कि दूसरे पास भी न आ पाएं!

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