।। जयतीर्थ राव ।।
जयतीर्थ राव आइआइएम अहमदाबाद और यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से प्रशिक्षित हैं. उद्यमिता के लिए कई पुरस्कार जीते हैं. नैसकॉम के चेयरमैन रहे हैं. कई अखबारों में लिखनेवाले नियमित स्तंभकार हैं.
अभी वैल्यू एंड बजट हाउसिंग कारपोरेशन के एक्जक्यूटिव चेयरमैन हैं. इन दिनों देश–दुनिया में वेदांता का मामला सुर्खियों में है, जिसपर लोगों का अलग–अलग नजरिया है. एक नजरिया यह भी है.
1924 में, नल्लामुड़ी चतुर्थ कृष्णराजा वोडियार के शासनकाल में इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने कावेरी नदी पर बनने वाले एक डैम का डिजाइन तैयार किया और निर्माण का काम भी उनके नेतृत्व में हुआ. इस प्रक्रिया में कन्नमबाड़ी नामक प्राचीन गांव जलमग्न हो गया. कन्नमबाड़ी में तीन मंदिर थे, जो ग्रामीणों के लिए पवित्र स्थल थे.
इनमें से एक होयसलों द्वारा निर्मित 700 साल प्राचीन वेणुगोपाल मंदिर भी था. दयालु महाराजा ने गांव वालों को एक नये कन्नमबाड़ी गांव में बसाया.
गांव वालों ने खुद ही मूर्तियों और प्रतिमाओं को अपने मंदिरों से निकाला. चोल शासन में (लगभग एक हजार साल पूर्व) द ग्रैंड और द लिटिल एनीकट्स डैम के निर्माण के समय निस्संदेह कई गांव और मंदिर जलमग्न हो गये थे.
1946 में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर लुइस डेन ने भाखड़ा गांव में सतलज नदी (प्राचीन समय में इसका नाम शुतुद्री था) पर एक डैम की आधारशिला रखी. डैम के निर्माण का काम 1948 में शुरू हुआ. एक युवा राष्ट्र के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस डैम में बहुत रुचि दिखायी, जिसे उन्होंने ‘नये भारत का नया मंदिर’ कहा.
जब डैम पूरा हो गया, तो नेहरू ने कहा, आप चाहे इसे मंदिर कहें या गुरुद्वारा या मसजिद, यह हमारी श्रद्धा और सम्मान का ही प्रतीक है. भाखड़ा डैम के कारण प्राचीन शहर बिलासपुर डूब गया, जहां कई मंदिर और पुरातात्विक स्थल थे. पारंपरिक रूप से यह जगह महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास से जुड़ा हुई था. कृष्णराजा वोडियार एक हिंदू राज्य के हिंदू राजा थे.
न तो वह और न ही उनके दरबारी और कन्नमबाड़ी के निवासियों को इस बात पर यकीन था कि वेणुगोपाल (दैवीय बांसुरी लिए कृष्ण) किसी एक गांव से संबंद्ध थे और इसलिए उनका मंदिर नहीं हटाया जा सकता.
नेहरू प्रगतिशील विचारों वाले वैज्ञानिक रुख के प्रति समर्पित थे. न तो वह और न ही बिलासपुर के लोगों का विश्वास था कि गांव के जलमग्न होने से पवित्र स्थलों का अनादर होगा. 2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि 12 गांवों के डोंगरिया कोंध नागरिकों को वोट के जरिये बहुमत से यह निर्णय करना चाहिए कि उनके विश्वासों के अनुसार, नियमगिरी पहाड़ी जो भगवान नियमराजा का निवास स्थल है, वहां बॉक्साइट का खनन किया जाना चाहिए या नहीं.
12 गांव के निवासियों को पहली बार इस तरह का अधिकार दिया गया, जो कि वर्षो पहले कन्नमबाड़ी या बिलासपुर के निवासियों के लिए कभी सोचा भी नहीं गया था.
कृष्णराजा वोडियार, जो कि एक देवी के भक्त थे, इस बात पर सहमत हुए होंगे कि देवी इस धरती के प्रत्येक कण में विद्यमान हैं और हमें उनसे क्षमा याचना करनी चाहिए, नदियों पर बांध बनाने, पत्थरों की खुदाई करने, खेत जोतने या फिर प्रत्येक ऐसे अवसर पर हमें देवी की अनुमति और उनका आशीर्वाद लेना चाहिए.
लेकिन उनकी मान्यताओं ने उन्हें तार्किक तरीके से सोचने और प्रगति की राह पर बढ़ने से रोका नहीं था. नेहरू इस बात से अचरज में पड़ जाते कि भारत के बारे में उनकी आशाएं कि वैज्ञानिक एप्रोच से देश आगे बढ़ायेगा, कैसे धूमिल हो रही हैं. यदि उनके समक्ष भी नियमगिरी का मामला सामने आता, तो वह समझते कि नियमगिरी खनन भी पर्यावरण के लिए हानिकारक होगा या बॉक्साइट का खनन करना बहुत महंगा होगा.
लेकिन नेहरू इस विचार पर सहमत नहीं होते कि नियमराजा के निवास स्थल को संरक्षित रखा जाये या फिर वेणुगोपाल के आवास को. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी संविधान में एक संशोधन चाहती थीं, जिसमें नागरिकों में वैज्ञानिक भावना विकसित करने को कर्तव्य बनाया जाता. 1924 और 1948 के बीच बहुत कुछ बदला, जब विश्वेश्वरैया और नेहरू विज्ञान, तकनीक, औद्योगिकीकरण और प्रगति के लिए एड़ी–चोटी एक कर रहे थे और अब 2013 में उन लोगों के शोर सुने जा सकते हैं, जो नियमगिरी खनन मामले में डोंगरिया कोंध के धार्मिक परंपराओं और भगवान नियमराजा की संप्रभुता को बनाये रखना चाहते हैं.
2013 में भारतीय गणतंत्र उत्तर आधुनिकवाद, विखंडनवाद और बहुसंस्कृतिवाद के आगोश में आ चुका है.
कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक भूमि पर अपना दावा कर सकता है और वहां मंदिर बना सकता है. इस तरह की भूमि पर बनने वाले मंदिर (यानी अवैध निर्माण) पर अधिकार उसके अंदर बैठने वाले भगवान का होता है.
हालांकि मुख्य लाभुक वह होगा जिसके नियंत्रण में भूमि रहेगी. यदि राज्य इस भूमि पर सड़क बनाना चाहता है, तब मंदिर के भगवान एक पक्षकार बनते हैं और फिर कोर्ट में वर्षो तक कानूनी लड़ाई चलती है, जो देर–सबेर बहुसांस्कृतिकवाद का रूप ले लेता है. वैज्ञानिक भावना रखने की अपील, विकास की जरूरत, सड़कों की जरूरत, डैम या खनन आदि पर बात करने वालों को इलीटिस्ट (उच्च वर्ग), प्रो कॉरपोरेट, नियो लिबरल या फिर कुछ और कह कर खारिज किया जायेगा.
सभी तरह के विकास पर्यावरण के लिए विनाशकारी है. पहले पहल जब किसानों ने जंगलों को साफ करके जमीन को जोता, तो उसने मनुष्य के पर्यावरण पर हमले की शुरुआत की. आज यदि हम वैज्ञानिक एप्रोच अपनाते हैं, तो हम सड़क निर्माण में निर्माण लागत पर चर्चा कर सकते हैं, खनन या केमिकल प्लांट के निर्माण से पर्यावरण पर पड़ने वाले खतरे पर विचार कर सकते हैं.
हम इस पर चर्चा कर सकते हैं कि क्या इस खतरे को कम किया जा सकता है. तब हम तय कर सकते हैं कि हमें आगे बढ़ना चाहिए या प्रोजेक्ट को छोड़ देना चाहिए. आज हमने जिस वैज्ञानिक एप्रोच को तिलांजलि दे दी है, नेहरू और विश्वेश्वरैया अंध औद्योगिकीकरण को कभी सपोर्ट नहीं करते, वे उन निर्णयों पर सहमत होते, जिससे कुल लागत में कमी आने की बात होती.
उनमें से कोई भी तत्कालीन भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष के आधार पर कोई फैसला नहीं लेता. ऐसा लगता है हम पिछड़ने और जड़ बने रहने के लिए प्रतिबद्ध हैं, न कि आगे बढ़ने के लिए.
(लेखक मुंबई के उद्यमी हैं और ये उनके निजी विचार हैं)