नब्बे के दशक में उभरनेवाले कथाकारों में पंकज मित्र एक महत्वपूर्ण नाम हैं. उनकी कहानियों में तेजी से बदल रहे समाज की विडंबना और विद्रूप का वृत्तांत खास तरीके से उभर कर आता है, वह भी स्थानीय बोली-भाषा में. अपने पात्रों के जरिये पंकज समय की नब्ज को पकड़ते हैं और मानवीय संवेदना को अत्यंत प्रभावी ढंग से अभिव्यक्ति देते हैं. अपने लेखन से जुड़े विभिन्न पहलुओं और लेखकीय सफर पर बात कर रहे हैं पंकज मित्र.
लेखन की शुरुआत बचपन में खेल-खेल में हुई. तब हमलोग स्कूल में थे. एक दिन हम बाबा (पिता) के साथ मिलकर अपने क्वार्टर के पास के छोटे बगीचे में बागवानी कर रहे थे . मुझसे एक कोंहड़े की लतर कट गयी, तो डांट पड़ी. उसी पर हास्य-व्यंग्य की चाशनी में लपेट कर एक अपराध कथा की शक्ल में पहली बार कुछ लिखा था. बाबा ने एक स्थानीय अखबार के संपादक मित्र को दिखाया. उन्होंने छापा तो नहीं, हां तारीफ जरूर की थी. इस पर बाबा को गर्व हुआ था. बाद में कॉलेजिया दिनों में नुक्कड़ नाटकों से जुड़ गया, तब कुछ नुक्कड़ नाटक लिखे थे. 95-96 से कहानियां लिखने का सिलसिला शुरू हुआ.
पहली कहानी वैसे तो 95-96 में लिखी थी ‘अपेंडिसाइटिस’. बिना सोचे-समङो इसे सीधे ‘हंस’ को भेज दिया था. हंस में ही यह सितंबर 96 में प्रकाशित हुई थी. वैसे दो-तीन महीने के बाद ही इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी में ‘पड़ताल’ कहानी को युवा लेखन का प्रथम पुरस्कार भी मिला और बहुत सारे पाठक भी मिले. हंस की प्रतियोगिता में भी में कहानी चुनी गयी थी. थोड़ी गलतफहमी की वजह से ऐसा हुआ था. इस कहानी पर इतनी ज्यादा प्रतिक्रियाएं आयीं, जो एक नये लेखक का दिमाग खराब करने के लिए काफी थीं.
पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का अप्रत्यक्ष रूप से तो हर लेखक की रचनाशीलता पर प्रभाव पड़ता ही है. लेकिन प्रत्यक्ष रूप से मेरे परिवार में लेखन या साहित्य से सीधे तौर पर कोई नहीं जुड़ा था. हां, कस्बे की पृष्ठभूमि ने जरूर बहुत सारी आत्मीयता, बहुत सारे चरित्र, उनके जीवन में ताकझांक करने के ढेरों मौके दिये. उनके सुख-दुख, हर्ष-विषाद, सपनों में शामिल होने के अवसर दिये. लेखन पर इन चीजों का प्रभाव तो पड़ता ही है.
मेरे लेखन की मूल चिंता के केंद्र में मनुष्य का जीवन है. ऐसा मनुष्य जो जीवन स्थितियों से लड़ता-भिड़ता है. ज्यादातर हारता है. कभी-कभी जीतता भी है, लेकिन ये क्षण चट्टान की फांक में खिले फूल से हैं- कभी-कभी झांकनेवाले. अधिकतर मौकों पर एक चट्टान को नाखूनों से खरोंचने की कोशिश है एक आम मनुष्य का जीवन. बेबस लाचार-निमुहे मनुष्य की दास्तान ही तो होती है कहानी. जीवन जो दैत्याकार स्थितियों से लगातार संघर्ष करता है. जय-पराजय में कोशिश करता है अपने विवेक को, मूल्यों को जिंदा रखने की. ये सब बातें बहुत सारी श्रद्धा से भर देती हैं मन को, जैसा कि बांग्ला कवि चंडीदास ने कहा था – ‘सबाईर ओपर मानुष सत्य, ताहार ओपर केहू नाय’ (सबके ऊपर मनुष्य ही सत्य है, उसके ऊपर कोई नहीं).
लेखन के लिए कहानी विधा का चयन सायास नहीं था. शायद कथा कहने-सुनने की आदिम प्रवृत्ति का हाथ रहा होगा या बचपन में सुनी-पढ़ी गयी कहानियों का असर. फिर एक बार जब लिखा हुआ पढ़नेवालों को अच्छा लगने लगे, तो लेखक को भी लगता है कि इसी विधा में खुद को शायद ठीक से अभिव्यक्त कर पा रहा है. यह सच भी हो सकता है या लेखक का भ्रम भी.
रचना कैसे कागज पर उतरती है, यानी रचना प्रक्रिया पर बात करना बहुत मुश्किल है. कौन सा ऑब्जर्वेशन, दृश्य, चरित्र, मुखमुद्रा, ध्वनि या शब्द कब किसी के अनुभव संसार में खलबली मचा देगा, कोई नहीं जानता. लेकिन इस खलबली से जैसे सबकुछ उलट-पुलट हो जाता है. कुछ कीमियागरी होती है अंदर और धीरे-धीरे चीजें सतह पर आने लगती हैं. सुनने में बड़ा अजीब लग रहा होगा किसी केमिकल रिएक्शन जैसा, लेकिन मुङो यह बताना ज्यादा अजीब लगता है कि मैं ऐसे रचता हूं.
मेरी कहानियों के ज्यादातर पात्र वास्तविक जीवन से लिये गये होते हैं. लेकिन, कथा लेखन में कल्पना का मिश्रण जरूरी होता है. मिलावट तो करनी ही पड़ती है. इसके बिना तो सुनार भी गहने नहीं बना सकता. कुछ पात्रों में तो इतने शेड्स होते हैं कि लालच होता है कि वैसे ही रख दें. मगर कई पात्र काल्पनिक भी होते हैं और उसमें वास्तविकता की खाद मिलायी जाती है. सारा मामला परम्यूटेशन-कॉम्बीनेशन का है.
सिर्फ यथार्थ से तो हार्ड न्यूज बनती है कहानी नहीं. कथा लेखन में कल्पना की एक बड़ी भूमिका है. कहानी खुद तय करती है कि इसमें कितना यथार्थ होगा और कितनी कल्पना. असल रचनाशीलता तो इसी को साधने में है. जब भी कोई लेखक कलम उठाता है या चित्रकार ब्रश या फिल्मकार कैमरे को प्लेस करता है तभी विचारधारा का काम शुरू हो जाता है. आपकी विचारधारा जो भी हो, लेकिन यह कहानी या कविता में किस तरह आती है यह ज्यादा महत्वपूर्ण है. कलात्मक तरीके से या सीधे-सीधे भौंडे तरीके से, पानी पर तैरते तेल की तरह या दूध में घुली शक्कर की तरह. जहां तक मार्क्सवाद की तरफ आपके इशारे की बात है, तो अभी तक तो इससे कोई और बेहतर मनुष्यधर्मी विकल्प आया नहीं है, जो जीवन स्थितियों पर वैज्ञानिक तरीके से, संवेदनशील तरीके से विचार कर सके.
कहानी रचने के लिए मुङो किसी खास वक्त, माहौल या जगह की जरूरत नहीं पड़ती है. वो तो लिखती रहती है खुद को. हां, इसे कागज पर उतारने के लिए थोड़ी शांति हो तो ठीक रहता है. कई कहानियों पर आयी प्रतिक्रियाओं से लगता है कि वे पाठकों को पसंद आयी होंगी जैसे-‘पड़ताल’,‘हर फिक्र को..’,‘क्विज मास्टर’,‘हुड़कलुल्लु’, ‘बेला का भूल’, ‘जिद्दी रेडियो’ वगैरह. मगर संतोष अभी आना बाकी है. कोशिश करता रहता हूं कि शायद इस बार संतोष हो लेकिन कोई न कोई कोना छूट ही जाता है.
पुरस्कारों की कोई अहमियत नहीं, ऐसा कहना तो हिप्पोक्रेसी होगी. लेकिन पुरस्कारों की अहमियत इससे तय होती है उनमें कितनी विश्वसनीयता है, कौन दे रहा है, क्यों दे रहा है, चयन का आधार और प्रक्रिया क्या है? मुश्किल तब होती है, जब लेखक पुरस्कारों की वजह से ही आत्मतुष्ट या आत्ममुग्ध हो जाता है. उसमें सेलेब्रेटी वाला भाव आ जाता है या वह अच्छे लेखन का मानदंड पुरस्कारों को समझने लगता है. अच्छा लेखन और पुरस्कार दो बिल्कुल अलग चीजें हैं.
मैं सब कुछ पढ़ता हूं- फिक्शन, नॉन फिक्शन, हिंदी, बांग्ला, अंगरेजी, इतिहास, जासूसी नॉवेल से लेकर क्लासिक्स और कॉमिक्स भी. इधर ल्योसा की ‘द स्टोरी टेलर’, सुरेंद्र वर्मा का ‘काटना शमी का वृक्ष ..’ और अमित भादुड़ी की ‘गरीबी के अर्थशास्त्र’ पर किताब पढ़ी थी. फिलहाल ‘कथा सरित सागर’ पढ़ रहा हूं.
इधर कुछ छिटपुट कहानियां, कुछ अखबारी टिप्पणियां लिखी हैं. एक उपन्यास कई वर्षो से लिख रहा हूं, उसका भी काम चलता रहता है बीच-बीच में. एक नाटकों की किताब और एक नॉन फिक्शन भी लिखने का इरादा है.लेखन से इतर हर तरह का संगीत सुनना, नाटक- फिल्में देखना, विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं की गतिविधियों में शामिल होना, दोस्तों के साथ गप्पबाजी, परिवार के साथ समय बिताना अच्छा लगता है.
बातचीत : प्रीति सिंह परिहार