15.9 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

ईमान और सत्य के बदले लूट और लालच सिखा रहे स्कूल

भागलपुर निवासी डॉ. योगेंद्र ने अपने शैक्षणिक कैरियर के दौरान शिक्षक-शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के मसले पर संवेदनशील तरीके से काम किया है. उनकी पुस्तक गुरु कुम्हार शिश कुंभ हाल के वर्षो में शिक्षा व्यवस्था में आये क्षरण को बहुत बेबाकी से स्पष्ट करती है और इसके असली वजह पर उंगली रखते हुए हमें मौजूदा […]

भागलपुर निवासी डॉ. योगेंद्र ने अपने शैक्षणिक कैरियर के दौरान शिक्षक-शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के मसले पर संवेदनशील तरीके से काम किया है. उनकी पुस्तक गुरु कुम्हार शिश कुंभ हाल के वर्षो में शिक्षा व्यवस्था में आये क्षरण को बहुत बेबाकी से स्पष्ट करती है और इसके असली वजह पर उंगली रखते हुए हमें मौजूदा दौर की विसंगतियों से रूबरू कराती हैं. गंगा मुक्ति आंदोलन तथा दूसरे कई जमीनी आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करने वाले डॉ. योगेंद्र फिलहाल टीएनबी कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता हैं. वे अपनी राजनीतिक सक्रियताओं के लिए भी जाने जाते हैं और उनका विश्वास है कि देश में सार्थक बदलाव राजनीति के जरिये सक्रिय हस्तक्षेप से ही मुमकिन हैं. पुष्यमित्र ने उनसे शिक्षा-साक्षरता-सरकारी प्रयास-नीतियां और सामाजिक-व्यक्तिगत बदलावों पर विस्तार से बातचीत की है.

हाल के वर्षो में देश की शिक्षा व्यवस्था एक अलग किस्म के विरोधाभास से रूबरू हो रही है. कहने को शिक्षा का अधिकार कानून लागू कर दिया गया है और सरकार भी शिक्षा के मद में काफी धन व्यय कर रही है. मगर शायद ही कोई ऐसा अभिभावक हो जो सक्षम हो और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने के लिए तैयार हो. इसकी वजह क्या है?
शिक्षा का अधिकार केवल कहने के लिए एक अधिकार है. संसाधन जरूर दिये गये हैं, मगर देश और सरकार की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं है. कई दफा कानून बना दिये जाते हैं और सरकार की ओर से सार्थक पहल के अभाव में कानून असरदार साबित नहीं हो पाते हैं. जैसे दहेज विरोधी कानून को देखिये. कितने साल हुए इस कानून को बने हुए, मगर क्या दहेज बंद हुआ..? नहीं न.. अगर सरकार की मंशा ठीक नहीं हो तो कानून ऐसे ही फेल हो जाते हैं. सरकारी और प्राइवेट शिक्षा का जो यह अंतर नजर आ रहा है वह हमारे देश की नीति, हमारी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का प्रतिफल है. आज शिक्षा को नौकरी का साधन माना जाने लगा है, ऐसे में लोगों को जो शिक्षा नौकरी दिलाने में सक्षम लगती है, लोग उधर दौड़ लगा देते हैं. आज अंग्रेजी शिक्षा पढ़ने पर ही नौकरी मिलने की गारंटी है, हिंदी, बिहारी या झारखंडी भाषाएं नौकरी की गारंटी नहीं देतीं. इसकी वजह क्या है.. इसकी वजह है सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने सत्ता का मिजाज अंगरेजीदां बना कर रखा है. इसलिए गरीब से गरीब इंसान को भी लगता है कि अगर बच्चे को आगे बढ़ाना है तो अंगरेजी पढ़ाना जरूरी है, अंगरेजी स्कूल में पढ़ाना जरूरी है. अगर कल को ऐसा हो गया कि सरकारी स्कूल में पढ़ने से ही नौकरी मिलेगी तो लोग उधर ही दौड़ जायेंगे.

इसकी एक और वजह है. आज शिक्षा का उद्देश्य काफी सीमित हो गया है. पहले शिक्षा हमें पूरे समाज के लिए उत्तरदायी बनाती थी. अब इसका वैयक्तीकरण हो गया है. आज शिक्षा का मतलब है अकेले अपना विकास. अब लोग माता-पिता को भी तिलांजलि देने लगे हैं. और कई मामलों में तो लोग अपनी पत्नी और बच्चों को भी पीछे छोड़ने में संकोच नहीं करते, क्योंकि उन्हें हर हाल में आगे बढ़ना है. आज की पढ़ाई की हालत पढ़े फारसी-बेचे तेल वाली हो गयी है. जैसे-जैसे लोकतंत्र आगे बढ़ रहा है शिक्षा का उद्देश्य लगातार संकीर्ण होता जा रहा है.

इसी से मिलता-जुलता सवाल है. कई दफा देखा गया है कि गांव में सरकारी स्कूल के पास भवन, बेहतर शिक्षक, मिड-डे मील, मुफ्त शिक्षा, साइकिल, ड्रेस आदि कई सुविधाएं हैं. इसके बावजूद गांव के लोग टाट पट्टी वाले प्राइवेट स्कूल में बच्चों को भेजना पसंद करते हैं. जहां न ढंग के शिक्षक होते है और न ही कोई संसाधन.
देश के जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों ने शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए सोचना बंद कर दिया है. स्कूल को क्या चाहिये यह बच्चों या स्थानीय लोगों से नहीं पूछा जाता. संसाधन भेज दिये जाते हैं. यह नहीं पूछा जाता कि इन संसाधनों की आपको जरूरत है भी या नहीं. आज संसाधन जरूरत के हिसाब से नहीं मिल रहे बल्कि संसाधन सरकार तय कर रही है. बगैर कुछ सोचे-समङो. अब मिड-डे मील का मामला ही देखिये. क्या गांव वालों ने मांगा था कि हमें मिड-डे मील चाहिये. क्या स्कूल में खाना पके और बच्चे जहां पढ़ रहे हैं वहां खाना खायें और जूठन गिरायें यह लोगों ने चाहा था. स्कूलों को लेकर लोगों के मन में एक छवि होती है. स्कूल का एक माहौल होता है और उस माहौल से ही पठन-पाठन चलता है. मगर आज बच्चे स्कूल में खाना खा रहे हैं. स्कूल में जब बच्चे पढ़ते हैं तो चारो-ओर खाना बनने की खुशबू फैली रहती है. इस माहौल में पढ़ाई-लिखाई कैसे मुमकिन हो सकती है?

यह तो एक बात है. इसके अलावा साइकिल, ड्रेस और दूसरी चीजें मुफ्त में बंटती हैं. अभिभावक साइकिल के लिए बच्चों का नाम चार-चार स्कूलों में लिखा देते हैं. जिस स्कूल में इमानदारी और सत्य की शिक्षा मिलनी चाहिये थी वहां लूट और लालच की पढ़ाई होने लगी है. यह कबीर की उलटबांसी का भयानक दौर है.

ऐसा लगता है कि हमारे प्राथमिक शिक्षण केंद्र साक्षरता केंद्रित होते जा रहे हैं.
साक्षरता एक धोखा है. सरकार मानती और कहती है कि हमने किसी को साक्षर बना दिया तो उसकी दुनिया बदल दी. क्या निरक्षर किसानों के पास बुद्धि-विवेक नहीं होती. साक्षरता का तब तक कोई मोल नहीं है जब-तक इससे कोई राह न खुले. अगर आप तलवार चलाना नहीं जानते हैं और आपको तलवार दे दी जाये तो आप उसका क्या करेंगे. साक्षरता के पीछे एक दृष्टि होनी चाहिये. फिलहाल तो यह एक लक्ष्यहीन दौड़ है. अगर आप किसी को शब्द को पहचानने की ताकत दे रहे हैं तो उसका इस्तेमाल करना भी सिखायें. नहीं तो एक अनपढ़ इंसान भी संवेदनशील होता है. मेरे पिता साक्षर नहीं थे, मगर वे काफी संवेदनशील थे. इसे उदारीकरण के प्रभाव के तौर पर भी देखा जाना चाहिये. आज परीक्षाएं खत्म कर दी गयी हैं कि इससे छात्रों पर प्रेशर बढ़ता है. मगर क्या परीक्षा न लेने से प्रेशर का मसला सुलझ जायेगा. पढ़ाई तो बच्च नौकरी के लिए कर रहा है. अगर उसे नौकरी नहीं मिलेगी तो वह प्रेशर में ही रहेगा. ऐसे में अगर प्रेशर घटाना है तो सबको नौकरी दीजिये. मगर वह काम तो सरकार करेगी नहीं.

आज के दौर के शिक्षकों में किस तरह के बदलाव आये हैं? क्या इन बदलावों के लिए मौजूदा शिक्षक चयन प्रक्रिया जिम्मेदार है?

हर जगह लापरवाही बढ़ गयी है. जिनको वेतनमान दिया जा रहा है, वे अपने काम से भाग रहे हैं. शिक्षक आज अपने पेशे के प्रति लापरवाह हैं. उन्होंने अपना भरोसा खो दिया है. पहले शिक्षक बिना पैसे के पढ़ाते थे. बच्चों को पकड़-पकड़ कर लाते थे. कोई बच्चा होनहार होता था तो उसकी मदद करते थे. आज जिनकों कम पैसा मिल रहा है या नियमित नहीं मिल रहा वे कहते हैं हम तो इतना ही पढ़ायेंगे. शिक्षक आज एक अदना इंसान की तरह हो गया है. हमलोग नेताओं और अफसरों को गाली देते हैं, मगर हम यह नहीं देखते कि आज एक शिक्षक भी निरक्षरों की तरह बर्ताव करने लगे हंै.

इसके पीछे मुङो एक बड़ी वजह नजर आती है शिक्षा व्यवस्था में नौकरशाही का हस्तक्षेप. मेरा मानना है कि शिक्षा का तंत्र शिक्षकों के हाथों में होना चाहिये. इसमें नौकरशाही का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये. नौकरशाह जब शिक्षकों का अधिकारी हो जाता है तो उसका काम शिक्षकों को परेशान करना और पैसा वसूलना भर रह जाता है.

जहां तक शिक्षकों की कांट्रेक्ट नियुक्ति का सवाल है यह शिक्षा के क्षेत्र में एक अद्भुत प्रयोग है. इसके जरिये सरकार सरकारी शिक्षा को निजी शिक्षा में बदल रही है. न पद है और न वेतनमान. इसका मतलब है कि सरकार किसी की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती. जैसा हम देख रहे हैं, समाज कल्याण से जुड़े तमाम मसलों में काम के लिए एनजीओ जैसे तंत्र का गठन किया जा रहा है और लोगों की नियुक्ति कांट्रेक्ट पर की जा रही है. इसका यही मतलब निकलता है कि सरकार इन जिम्मेदारियों को ढो रही है. क्या जनता सरकार को इन्हीं बातों के लिए वोट देती है. मगर सरकार की नीतियां ऐसी ही होती हैं. एक तरफ वह शराब और सिगरेट के सार्वजनिक स्थलों पर पीने को प्रतिबंधित करती है. शराबी को पुलिस पकड़ के ले जाती है. वहीं दूसरी ओर वह शराब और सिगरेट की कंपनियों को बंद नहीं करती. क्योंकि इससे सरकार को राजस्व हासिल होता है. सरकार कई दफा ऐसे ढोंग करती रहती है. हमारी शिक्षा व्यवस्था भी इसी तरह के ढोंग की शिकार हो रही है.

उच्च शिक्षा लगातार गांव के लोगों की हैसियत से बाहर की चीज होती जा रही है.
शायद आपका आशय व्यावसायिक शिक्षा से है. हालांकि सरकारी संस्थानों में जो व्यावसायिक शिक्षा है वह भी अभी खचीर्ली नहीं है. वैसे उच्च शिक्षा के साथ जो सबसे बड़ा षडयंत्र किया जा रहा है वो है शिक्षकों का अभाव. आप किसी विभाग में देख लें, किसी विषय के बारे में पता कर लें. सरकारी कॉलेजों में शिक्षक ही नहीं मिलेंगे. अधिकांश विभाग एडहॉक शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं. यह आज की बात नहीं है, बरसों से यही हाल है. मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में भी पढ़ाई एडहॉक शिक्षकों के भरोसे होती है. ऐसा जान बूझ कर किया जा रहा है. एक तो नियुक्तियां ही नहीं हो रही हैं, जहां हो भी रही हैं वहां गड़बड़झाला. भ्रष्टाचार का मसला अलग है. स्थिति यह है कि कुलपति तक पर आरोप लग रहे हैं. रजिस्ट्रार स्तर के अधिकारी आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं. जाहिर है ऐसे में नीचे बैठे लोग इसे ही आदर्श व्यवस्था समझते हैं और उसका खुलेआम अनुकरण करने लगते हैं. जाहिर है जब तक उच्च स्तर पर सुधार नहीं होगा, हालात ऐसे ही बने रहेंगे. पारंपरिक विषयों की पढ़ाई को लेकर ललक में कमी नजर आ रही है. लोगों का रुझान व्यावसायिक विषयों की ओर बढ़ा है. भाषाओं के बारे में कहा जा रहा है कि इसमें कोई भविष्य नहीं है. बात की जा रही है कि सभी भाषाओं को मिलाकर एक विभाग बना दिया जाये. उच्च शिक्षा में अगर सुधार लाना है तो सबसे पहले चीजों को तय करने का अधिकार विश्वविद्यालय स्तर पर ही होना चाहिये. कुलपति का चयन भी सीनेट और सिंडिकेट के जरिये ही होना चाहिये. जब तक चीजें ऊपर से थोपी जायेंगी यही होगा. जिनकी समस्या है समाधान उन्हीं को करने देना चाहिये.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें