बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाती हैं नोरा

बिरसानगर जोन नंबर 7 में रहने वाली फिलीपींस मूल की (पिता फिलीपींस, मां कोरियन) नोरा शीबा समाज सेवा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं. वे बस्ती के बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगा रही हैं. ।। रीमा डे, जमशेदपुर।। बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद के शीबा बस्ती के गरीब परिवार केकरीब तीन सौ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 5, 2013 2:10 AM

बिरसानगर जोन नंबर 7 में रहने वाली फिलीपींस मूल की (पिता फिलीपींस, मां कोरियन) नोरा शीबा समाज सेवा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं. वे बस्ती के बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगा रही हैं.

।। रीमा डे, जमशेदपुर।।

बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद के शीबा बस्ती के गरीब परिवार केकरीब तीन सौ बच्चों को नि:शुल्क अंगरेजी की शिक्षा दे रही हैं. इस कार्य में वो अकेले नहीं हैं बल्कि दो टीचर्स की भी मदद लेती हैं लेकिन उन्हें अपने तरफ से वेतन देती हैं. नोरा ने न सिर्फ बस्ती के बच्चों को ही शिक्षित करने का बीड़ा उठाया है बल्कि वो आसपास की महिलाओं को सिलाई-बुनाई का प्रशिक्षण देकर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना चाहती हैं. इसके लिए उन्होंने कुछ सिलाई मशीन भी खरीद रखी है. नोरा के पति मनोज टाटा मोटर्स कंपनी में अस्थायी कर्मचारी हैं. 1998 में उन्होंने मनोज से शादी की. मनोज और नोरा एक दूसरे से तब मिले थे जब वर्ष 1995 में कंपनी के काम से मनोज कोरिया गये हुए थे. वहां नोरा शीबा टीचिंग से जुड़ी हुई थी. धीरे-धीरे दोनों के बीच नजदीकी बढ़ी और अंतत: दोनों ने शादी करने का फैसला किया. 1998 में वह अपना देश, परिवार छोड़ कर जमशेदपुर आ गयी और बिरसानगर जोन नंबर 7 स्थित मनोज के घर में रहने लगी. आजाद ख्याल की नोरा के लिए मनोज का घर काफी तंग था, कई तरह की मुश्किलें पेश आयीं, लेकिन नोरा ने हिम्मत नहीं हारी. आर्थिक परेशानी आने पर जंगल से लकड़ी चुन कर बेचा और परिवार को सहारा दिया.

शुरू में मुश्किलें आयी

नोरा को सिर्फ अंगरेजी बोलना आता था और बस्ती के लोग हिंदी जानते थे. ऐसे में बस्तीवासियों से घुलने-मिलने में उसे शुरू में परेशानियों का सामना करना पड़ा. इस संवादहीनता को पाटने के उद्देश्य से नोरा ने आसपास के बच्चों को अंगरेजी पढ़ाना शुरू किया. धीरे-धीरे बस्ती के लोगों से नोरा का जुड़ाव हुआ और आज करीब तीन सौ बच्चे नोरा की देख-रेख में अंग्रेजी सीख रहे हैं. वह दो टीचरों को खुद वेतन देती हैं. टीचरों को वेतन देने के लिए वह सुबह चार बजे घर से निकलती हैं तथा बागान से कच्ची सब्जी खरीद कर अधिकारियों के बंगलों में पहुंचाती हैं.इसके अलावा कागज का ठोंगा बना कर भी वह बेचती हैं. इससे होने वाली आमद से वो बच्चों को पढ़ाने वाली टीचरों को वेतन देती हैं.

कोरिया में भी पढ़ाया

नोरा के दो बच्चे हैं जो उनकी मां के पास फिलीपींस में रह कर पढ़ाई कर रहे हैं. हिंदी समझने में कठिनाई और टूटी-फूटी हिंदी में बात करने वाली नोरा कहती हैं, परेशानी तो होती है लेकिन जीवन में संघर्ष को उन्होंने खुद चुना है. कोरिया में रहते हुए भी वो बच्चों को शिक्षा देती थी. यहां भी इस कार्य में उन्हें काफी संतुष्टि मिलती है. पति से भी नोरा को काफी सहयोग मिलता है. नोरा को इससे थोड़ी निराशा होती है कि नि:स्वार्थ भाव से काम करने के बावजूद इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने में उन्हें शहर के बड़े नेताओं का सहयोग नहीं मिला, जबकि नेताओं से मिल कर उन्होंने सहयोग मांगा था.

नहीं मिलती बाहरी मदद

नोरा बताती है कि उसका घर छोटा है, जिसके कारण शेड में बच्चों को पढ़ाना पड़ता है. बाहरी मदद नहीं मिलने के बावजूद वे बच्चों को शिक्षा देने के संकल्प को आगे बढ़ा रही हैं. उन्हें उम्मीद है कि उनका छोटा प्रयास एक दिन अवश्य रंग लायेगा. यह सकारात्मक सोच ही उनकी ताकत है.

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