असफलता अंत नहीं सफलता की शुरुआत है
एक कहावत है, ‘एक रास्ता बंद होता है, तो हजार रास्ते खुलते हैं’. जब इंसान के सपनों की ओर जानेवाला रास्ता बंद हो जाये और लगे कि अब सब कुछ समाप्त हो गया है, उस एक क्षण में इस कहे गये में छिपी ताकत बेहद मददगार साबित हो सकती है. परीक्षाओं के इस मौसम में […]
एक कहावत है, ‘एक रास्ता बंद होता है, तो हजार रास्ते खुलते हैं’. जब इंसान के सपनों की ओर जानेवाला रास्ता बंद हो जाये और लगे कि अब सब कुछ समाप्त हो गया है, उस एक क्षण में इस कहे गये में छिपी ताकत बेहद मददगार साबित हो सकती है. परीक्षाओं के इस मौसम में आप भी अपने बच्चों को इस ताकत का एहसास कराएं..
दसवीं, बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आने लगे हैं. इसके साथ ही अखबारों में ऐसे शीर्षक भी नजर आने लगे हैं,‘खराब रिजल्ट आने पर छात्र ने की आत्महत्या.’ आखिर ऐसा कौन सा दबाव होता है कि बच्चे एक परीक्षा परिणाम से हार जाते हैं.
घर में इतने लोग होते हैं क्यों नहीं कोई ऐसे नाजुक समय में उनकी मनोस्थिति को भाप पाता. क्या परीक्षा के इस परिणाम के आगे जीवन नहीं था? संभावनाएं नहीं थी? महज एक रिजल्ट के सामने बच्चे का पूरा अस्तित्व ही क्यों अनदेखा कर दिया गया? बच्चे पर नाराज होने की बजाय, यह एहसास क्यों नहीं कराया गया कि हर असफलता अपने साथ सफलता की ओर जानेवाली राह के निशान लाती है, हमें बस उसे पहचानना होता है और उस पर आगे बढ़ते जाने के लिए प्रयासरत रहना होता है.
देश-दुनिया में कई बड़ी शख्सीयतों के उदाहरण भी मौजूद हैं, जो इस बात को दर्शाते हैं. महात्मा गांधी व आइंस्टीन दोनों ही शुरुआती पढ़ाई में औसत थे. आइंस्टीन को तो मंदबुद्धि बालक माना जाता था. उनके स्कूल शिक्षक ने यहां तक कह दिया था कि यह लड़का जिंदगी में कुछ नहीं कर पायेगा. बड़े होने पर वह पॉलीटेक्निक इंस्टीट्यूट की प्रवेश परीक्षा में भी फेल हो गये. हालांकि, भौतिकी में उनके अच्छे नंबर आये थे, पर अन्य विषयों में वह बेहद कमजोर साबित हुए. अगर वह निराश हो गये होते, तो क्या उन्हें फादर ऑफ मॉडर्न फिजिक्स कहा जाता!
इसी तरह महात्मा गांधी भी एक औसत छात्र थे. बाद में वह वकालत की पढ़ाई करने लंदन गये. इसके बाद तो उनका जीवन जैसे पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया. इसलिए परीक्षा के परिणाम से जीवन नहीं तय होता, वह आगे बढ़ता है एक हार के बाद दूसरी जीत के लिए उठ खड़े होने से. अगर आपके बच्चे के नंबर कम आये हैं या वह फेल हो गया है, तो उसे सजा देने की बजाय उसे आगे बढ़ने का हौसला दें.
बच्चों की मनोस्थिति समझें
अकसर जाने-अजाने अभिभावक बच्चों की रुचि और इच्छा को जाने बिना अपनी महात्वाकांक्षाओं का भार उन पर डाल देते हैं. उन्हें एहसास कराने लगते हैं कि वे उनकी उम्मीदों को तोड़ें नहीं. ऐसे में बच्चों पर पहले से दबाव बना रहता है और अगर रिजल्ट बिगड़ जाये, तो कई बार बच्चे खुद को माता-पिता का दोषी मानने लगते हैं. अगर आप भी इस स्थिति में उन्हें ही दोषी ठहराने लगेंगे, तो वह गहरे अवसाद में जा सकते हैं.
इसलिए, उनके रिजल्ट स्वीकारें और आगे के लिए बेहतर रास्ता सुझाएं. उन्हें समझाएं कि एक असफलता से सफलता के रास्ते बंद नहीं होते. रिजल्ट के बाद उनके हाव-भाव पर नजर रखें, अगर वे उदास और चुप चुप से हैं तो किसी मनोचिकित्सक की मदद लें,उनकी काउंसलिंग करवायें. बच्चों को हमेशा इस बात का एहसास कराएं कि असफलता ही सफलता के नये द्वार खोलती है.
हर साल जब बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आते हैं, मुङो अपने परिचित दो बच्चे याद आ जाते हैं. पहला बच्चा है पुनीत, जो अब युवा हो चुका है. पढ़ने में होनहार रहे पुनीत के साथ बचपन से उसके परिवार का एक सपना चल पड़ था-‘पापा चाहते हैं तुम इंजीनियर बनो’. साल दर साल जैसे जैसे वो आगे की कक्षा में प्रवेश करता, घर में हर कोई उसे यह याद दिलाते चलता.
पता नहीं क्या हुआ कि दसवीं कक्षा तक आते-आते इस होनहार बच्चे का पढ़ाई से मन ऊबने लगा. शायद सपना अब दबाव की शक्ल अख्तियार करने लगा था. दसवीं में तो वह सांइस सब्जेक्ट पाने लायक नंबर ले आया, लेकिन बारहवीं में इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए पर्याप्त नंबर नहीं ला सका. सपना टूट गया और इसकी टूटन को उसने अपने भीतर ही नहीं, हर किसी के चेहरे पर देखा.
उसे अपने इंजीनियर न बन पाने का दुख नहीं था, परिवार का सपना टूट जाने का जो दृश्य वो अपने आस-पास देख रहा था, उसने उसके मन पर इतना गहरा असर डाला कि आज तक वह उससे उबर नहीं पाया. परिवार के लोगों को जब तक इसका एहसास हो पाता, बहुत देर हो चुकी थी. पुनीत से घर में किसी ने नहीं पूछा अब तुम आगे क्या करोगे, तुम्हारी रुचि किस विषय में है? किसी ने उसे यह सलाह भी नहीं दी कि आगे तुम्हारे लिए क्या बेहतर विकल्प हो सकते हैं?
सब लोग कुछ न कह कर भी उसे फेलियर घोषित कर चुके थे. परिवार की यह चुप्पी पुनीत को अवसाद में ले गयी. घर में बैठे रहने से, कोई ऐक्टिविटी न होने से, उसका वजन बेतहाशा बढ़ता गया. एक दिन उसे महज 25 की उम्र में ब्रेनहेमरेज हो गया. पुनीत के लिए जिंदगी इससे इतर भी हो सकती थी अगर उसका परिवार भावनात्मक रूप से उसके साथ खड़ा होता.
दूसरा बच्च बीए फाइनल ईयर में पढ़ रहा ऋषि है. ऋषि के पापा-मम्मी दोनों शिक्षक हैं और वो भी साइंस के. ऋषि शुरू से पढ़ने में ठीक-ठाक स्टूडेंट रहा है. दसवीं में अच्छे नंबर आये, उसने 11वीं में साइंस लिया. जाहिर है माता-पिता का विषय भी यही रहा है. सब सोचते थे कि वह आगे जा कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करेगा, लेकिन बारहवीं के परिणाम आने के बाद उसने बीए में दाखिला लिया, इसके बाद हर तरफ कई तरह की फुसफुसाहटें सुनायी दीं.
कोई कहता इंजीनियरिंग में दाखिले की परीक्षा पास नहीं कर पाया होगा, कोई कहता बारहवीं में इतने नंबर ही नहीं मिले होंगे कि उसे प्रवेश मिले. सही जवाब दिया ऋषि के पापा ने. असल में, दसवीं में ऋषि तय ही नहीं कर पाया था कि उसे किस विषय से पढ़ना चाहिए. हमने कहा सांइस ले लो, आगे इंजीनिरिंग कर लेना, इसमें अच्छा भविष्य है, तो उसने सांइस ले लिया. इन दो वर्षो में उसने पढ़ाई तो साइंस में की, पर उसे यह एहसास हो गया कि वह इसे आगे नहीं पढ़ना चाहता.
एक लाइब्रेरी की मेंबरशिप लेने के बाद उसे पता चला कि उसका इंट्रेस्ट तो लिटरेचर में है. इसलिए अब वह बीए करना चाहता है, तो हमने उसका दाखिला बीए में करा दिया. उन्होंने उसका रिजल्ट दिखाते हुए बताया कि हालांकि 12वीं में उसका रिजल्ट अच्छा था, पर हो सकता है कि कॉलेज में ऐसा न होता. इसलिए हम उसे वही पढ़ा रहे हैं, जो वह पढ़ना चाहता है. अब वो इंग्लिश लिटरेचर से बीए कर रहा है.
हम उसके भविष्य को लेकर कतई फिक्रमंद नहीं है, क्योंकि हर बच्च इंजीनियर या डॉक्टर नहीं बन सकता. आपकी जिस विषय में रुचि होती है, आप उसमें जीने के लिए जरूरी रोजगार और पहचान पा ही लेते हैं.