सवाल गुलिस्तां बचाने का है..
आरटीआइ को औजार बना कर गवर्नेस में पारदर्शिता लाने की मुहिम चलानेवाले सुभाष अग्रवाल नाउम्मीदी के समंदर के बीच उम्मीद के टापू की तरह हैं. एक ऐसे समय में जब देश का राजनीतिक वर्ग जनता के हाथ में मौजूद सूचना के अधिकार में कटौती करने को तैयार नजर आ रहा है, सुभाष अग्रवाल से बातचीत […]
आरटीआइ को औजार बना कर गवर्नेस में पारदर्शिता लाने की मुहिम चलानेवाले सुभाष अग्रवाल नाउम्मीदी के समंदर के बीच उम्मीद के टापू की तरह हैं. एक ऐसे समय में जब देश का राजनीतिक वर्ग जनता के हाथ में मौजूद सूचना के अधिकार में कटौती करने को तैयार नजर आ रहा है, सुभाष अग्रवाल से बातचीत की संतोष कुमार सिंह ने और उनसे जाना कि राजनीतिक बिरादरी की ये कोशिशें सूचना के अधिकार की जंग के लिए क्या मायने रखती हैं.
आरटीआइ कानून में लगातार संशोधन करने की कोशिश की जाती रही है. राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने के सीआइसी के फैसले के खिलाफ राजनीतिक वर्ग एकजुट हो गया है. क्या यह आरटीआइ की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं है?
निश्चित रूप से यह आरटीआइ के साथ खिलवाड़ ही है. अगर हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलो में नैतिकता होती तो पब्लिक अथॉरिटी के रूप में जो सुविधाएं उन्हें हासिल है, वे खुद आगे बढ़ कर उन सुविधाओं को वापस करते हुए खुद को आरटीआइ के दायरे से बाहर करने की मांग करते. लेकिन इसके लिए उन्होंने अमेंडमेंट का शॉर्टकट रूट अपनाया. आनन-फानन में सर्वदलीय बैठक भी बुलाई गयी और कैबिनेट ने संशोधन का फैसला भी ले लिया.
यह संशोधन सूचना के अधिकार के संघर्ष को किस तरह से प्रभावित करेगा?
देखिए, जहां तक संघर्ष का सवाल है वह इस फैसले के बाद और मजबूत होगा. सिविल सोसाइटी इस फैसले को चुनौती देने का मूड पहले ही बना चुकी है. सबसे बड़ा धक्का इस बात से लगा है कि यही राजनीतिक दल हैं जिन्होंने आरटीआइ को बनाया था, अगर वे खुद सीआइसी के फैसले को आगे बढ़कर स्वीकार कर लेते, तो रास्ता आसान होता, लेकिन इन्होंने साहस नहीं दिखाया. उल्टे कमोबेश सभी मुद्दों पर अलग-अलग राय रखनेवाले सत्ता पक्ष और विपक्ष को जब अपना हित प्रभावित होता दिखा, तो वे एकजुट हो गये. जनता यह सब देख रही है.
आज के दौर में जब गवर्नेस पर साख का गहरा संकट है, क्या यह संशोधन सरकार, शासन और राजनीतिक व्यवस्था पर और बट्टा नहीं लगायेगा? इससे यह संकट और नहीं गहरायेगा?
कहने में दुख हो रहा है लेकिन सच्चई यही है कि उनकी साख रही कहां है! वह तो पहले ही खत्म हो चुकी है. ऐसी ही स्थिति को देखते हुए जयप्रकाश नारायण ने पूछा था कि ‘यहां हर साख पर उल्लू बैठे हैं, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?’ सवाल इनके साख का नहीं, सवाल है गुलिस्तां का कि हमारे देश का क्या होगा! जाहिर है कि इन्होंने म्यूचुअल इंटरेस्ट को पब्लिक इंटरेस्ट पर ज्यादा तरजीह दी, और इसके लिए एकजुटता का प्रदर्शन किया है. ये लोग तर्क दे रहे हैं कि हमने चुनाव आयोग और आय कर विभाग को सारी सूचनाएं दी हैं. अगर सूचना दी है, तो फिर डर किस बात का! एक बार अगर वोटिंग मशीन में ‘नन टू वोट’ का बटन लग जाये, तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा.
सूचना के अधिकार के अब तक के सफर से आप कितने संतुष्ट हैं? कितनी दूरी तय करनी है?
निश्चित रूप से अभी तक का सफर काफी संतोषजनक रहा है, लेकिन संतुष्टता का मतलब यह कदापि नहीं है कि सफर रुक जायेगा. रोज नयी चुनौतियां सामने आयेंगी. आरटीआइ पेटीशन निरंतर बहने वाली धारा है. आज हम हैं, कल कोई और गवर्नेंस की व्यवस्था में सुधार लाने के लिए पहल करता हुआ दिखेगा. हमें उम्मीद है कि नौजवान पीढ़ी आगे आयेगी. लोग आगे आ भी रहे हैं.