जल युद्ध की ओर बढ़ती दुनिया!

विभिन्न अध्ययन एवं आकलन बताते हैं कि वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी वर्तमान सात अरब से बढ़ कर नौ अरब तक पहुंच जायेगी. इस स्थिति में पानी और भोजन की मांग बढ़ेगी, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्या और भी गंभीर हो सकती है. दुनियाभर में पानी से जुड़े मसलों पर काम कर रहे संगठनों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 12, 2013 4:53 AM

विभिन्न अध्ययन एवं आकलन बताते हैं कि वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी वर्तमान सात अरब से बढ़ कर नौ अरब तक पहुंच जायेगी. इस स्थिति में पानी और भोजन की मांग बढ़ेगी, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्या और भी गंभीर हो सकती है. दुनियाभर में पानी से जुड़े मसलों पर काम कर रहे संगठनों ने इसे लेकर चिंता जतायी है. इसी कड़ी में स्टॉकहोम में पिछले 22 वर्षो से ‘विश्व जल सप्ताह’ आयोजित किया जा रहा है, जहां दुनियाभर में जल की वास्तविक स्थिति पर चरचा की जाती है. यह आयोजन पिछले दिनों संपन्न हुआ है. वर्तमान में क्या है देश-दुनिया में पानी की स्थिति और भविष्य के लिहाज से क्या हैं चिंताएं, इन्हीं मुद्दों पर नजर रहा है आज का नॉलेज..

-रहीस सिंह-

(अंतरराष्ट्रीय मामलों के लेखक)

तेजी से बढ़ रही दुनिया की आबादी, अर्थव्यवस्था की बढ़ती विकास दर, नगरीकरण की तेज हो रही गति, लेकिन जीवन से जुड़ी मूलभूत जरूरतों में आ रही आनुपातिक कमी, यह वैश्विक चिंता का विषय है. मनुष्य के जीवित रहने के लिए जो मूलभूत जरूरतें हैं, उनमें जल सबसे महत्वपूर्ण है. बहुत पहले ही यह आशंका जतायी जा चुकी है कि 21वीं सदी का युद्ध जल के लिए होगा. यह आशंका सही हो सकती है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई देशों में पानी की किल्लत काफी बढ़ जायेगी. एशिया और खास तौर पर भारत में 2020 तक ही ऐसा होने की आशंका है. इससे न केवल मानव जीवन पर एक नया संकट पैदा होगा, बल्कि जिस अर्थव्यवस्था के नाम पर भारत कुछ समय तक फूले नहीं समा रहा था, वह ‘बैक गियर’ में चलने को विवश हो सकती है. इतना ही नहीं, चीन जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्था जितनी रफ्तार से आगे बढ़ रही है, उसी रफ्तार से यह इस मानवीय संकट को भी बढ़ा रही है. ऐसे में यह सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि दुनिया जिसे प्रगति कह रही है, क्या वह वास्तव में प्रगति ही है?

स्टॉकहोम वल्र्ड वाटर वीक

स्टॉकहोम में संपन्न ‘वल्र्ड वाटर वीक’ में ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओइसीडी) देशों ने बेहतर जीवन के लिए पानी की सुरक्षा से जुड़ी नयी रिपोर्ट जारी की, जिसमें पानी की सुरक्षा के प्रति जोखिम आधारित नजरिये की ओर ध्यान आकर्षित किया गया और व्यावहारिक कदम उठाने संबंधी प्रस्तावों को जगह दी गयी. एक से छह सितंबर तक चला ‘वल्र्ड वाटर वीक’ इस आह्वान के साथ समाप्त हुआ कि 2015 में संयुक्त राष्ट्र सहस्नब्दी लक्ष्य हासिल कर लेने के बाद 2030 तक विकास की नीतियों में जल संरक्षण पर फोकस किया जाये. यह भी तय हुआ कि 2014 में वल्र्ड वाटर वीक में पानी और ऊर्जा पर फोकस किया जायेगा. कहने का तात्पर्य यह हुआ कि अब आनेवाले समय में पानी और ऊर्जा ही समस्त विकास के केंद्र में रहेंगे, क्योंकि इनकी सुरक्षा के बिना धारणीय विकास संभव नहीं हो पायेगा. देखना यह है कि दुनिया इनकी सुरक्षा के लिए भगीरथ प्रयास करती है या फिर अपने कथित विकास द्वारा विनाश के इतिहास की रचना की ओर बढ़ेगी? यहां उल्लेखनीय है कि ओइसीडी के सदस्य देशों की संख्या 34 है, जिनमें ज्यादातर यूरोपीय देश हैं.

स्वच्छ जल पर बढ़ता दबाव

तमाम अध्ययन एवं आकलन बताते हैं कि वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी वर्तमान सात अरब से बढ़ कर नौ अरब तक पहुंच जायेगी. इस स्थिति में पानी और भोजन की मांग बढ़ेगी, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्या और गंभीर हो सकती है. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृषि की बढ़ती जरूरतों, खाद्यान्न उत्पादन, ऊर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर दबाव बढ़ रहा है और यह वृद्धि जारी रहेगी. यदि केवल तिब्बत के हिमालयी क्षेत्र को ही लंे तो उसमें होनेवाले परिवर्तनों से दक्षिण एशिया में पड़नेवाले प्रभावों का अंदाजा लगाया जा सकता है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन व ‘ब्लैक कार्बन’ जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्र को काफी कम कर दिया है. अब आशंका जतायी जा रही है कि इनमें से कुछ ग्लेशियर इस सदी के अंत तक खत्म भी हो सकते हैं. इससे लाखों लोगों की जलापूर्ति बाधित हो सकती है या उनका जीवन संकट में पड़ सकता है. उल्लेखनीय है कि तिब्बत के पहाड़ पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर एशिया में डेढ़ अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराता है. इस ग्लेशियर से नौ नदियों को पानी मिलता है, जिनमें गंगा व ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां शामिल हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत अफगानिस्तान में बड़े इलाके में इन नदियों से लोगों को पीने का पानी मुहैया कराया जाता है.

विकासशील देशों पर असर

विकासशील देशों पर जल संकट का असर ज्यादा होता है. आज भी इन देशों में सूखा सबसे बड़ी चुनौतियांे में से है. इसकी वजह से भोजन की उपलब्धता में कमी आती है. उल्लेखनीय है कि पिछली सदी में अन्य प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सूखे के कारण सर्वाधिक मौतें हुई हैं. पिछले 50 वर्षों में पानी के लिए 37 भीषण हत्याकांड हुए हैं. सूखे की मार से प्रभावित होने के मामले में एशिया और अफ्रीका महाद्वीप सबसे आगे हैं. दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और पश्चिम एशिया में इस दृष्टिकोण से भविष्य में और बड़ा संकट आ सकता है, क्योंकि यहां पर संसाधन सीमित होते जा रहे हैं और जनसंख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है. कुछ समय पहले एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) और एशिया-पेसिफिक वाटर फोरम (एपीडब्ल्यूएफ) द्वारा जारी एक अध्ययन रिपोर्ट ‘एशियान वाटर डेवलपमेंट आउटलुकर 2013’ पर गौर करें तो पता चलेगा कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 75 प्रतिशत देशों में जल सुरक्षा का अभाव है. यदि तत्काल कदम नहीं उठाये गये, तो कई देशों में जल्द ही जल संकट की स्थिति पैदा हो सकती है. यानी एशिया-प्रशांत, जहां एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है, वहीं उसने जल संकट को खतरनाक स्थिति में पहुंचा दिया है.

आर्थिक विकास से पैदा हो रहा जलसंकट

चीन अपनी अर्थव्यवस्था की रफ्तार के कारण दुनिया के सामने एक भय (एक आदर्श भी) बना हुआ है, लेकिन यह देखना जरूरी होगा कि वह धारणीय विकास को प्रश्रय दे रहा है या फिर विनाश आधारित विकास को. अगर दूसरा पक्ष सही है तो फिर चीन जाने-अनजाने दुनिया को एक ऐसी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर रहा है, जिससे दुनिया विनाश की ओर बढ़ेगी. करीब 20 वर्ष पहले एक अनुमान के मुताबिक, चीन में 50,000 नदियां थीं. चीन के ‘फस्र्ट नेशनल संेसस ऑफ वाटर’ के अनुसार इनमें 28,000 नदियां गायब हो चुकी हैं. यह प्राकृतिक आपदा है या इनसानी गलतियों का परिणाम? संभव है कि इसमें दोनों की भूमिका रही हो, लेकिन मुख्य रूप से यह मानव-निर्मित गलती ही है. येल यूनिवर्सिटी की ‘एनवायरमेंटल परफार्मेंस इंडेक्स’ में चीन 132 देशों की सूची में 116वें स्थान पर है. चीन के पूरे हेनान प्रांत में या तो नदियां सूख रही हैं या फिर पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. चीन के एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन मंत्रलय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, देश की 30 प्रतिशत नदियों और 50 प्रतिशत ग्राउंड वाटर राष्ट्रीय जल गुणवत्ता मानकों से नीचे है.

बहरहाल, दुनिया विकासशील दुनिया वर्तमान में जल संकट का सामना कर रही है. ऐसे में चिंता भविष्य को लेकर है, क्योंकि तब दुनिया की लगभग तीन-चौथाई आबादी जलसंकट से दो-चार हो रही होगी. वास्तव में, यह स्थिति एक ऐसे वैश्विक युद्ध की विभीषिका जैसी होगी, जहां बिना सैनिक लड़ाई के ही करोड़ों लोग काल का ग्रास बनेंगे या फिर यह भी संभव हो सकता है कि दुनिया के देश जल संसाधनों पर कब्जा करने के लिए वैश्विक युद्ध की स्थिति पैदा कर दें.

भारत में जल संकट

जहां तक भारत का सवाल है, तो यहां विश्व के मात्र चार प्रतिशत नवीनीकरणीय जल स्नेत हैं, जबकि जनसंख्या 17 प्रतिशत है. राष्ट्रीय जलनीति प्रारूप, 2012 के मुताबिक, भारत में 4,000 अरब घनमीटर (बीसीएम) वर्षा होती है. इसमें से उपयोग में लाया जानेवाला जल संसाधन लगभग 1,123 बीसीएम ही है. भारत के दो-तिहाई भूजल भंडार खाली हो चुके हैं और जो बचे हैं वे प्रदूषित होते जा रहे हैं. दूसरा सर्वाधिक आबादी वाला यह देश 2030 तक आबादी के मामले में पहले पायदान पर पहुंच सकता है. उस स्थिति में लगभग 160 करोड़ लोगों के लिए जल संकट विकराल रूप ले सकता है. जलवायु परिवर्तन के कारण यह संकट कई गुना बढ़ सकता है.

ध्यान रहे कि भारत में घरेलू, कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में हर साल कुल 829 अरब घनमीटर पानी का इस्तेमाल किया जाता है. वर्ष 2025 तक इस मात्र में 40 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है. भारत का जल प्रबंधन बेहद कमजोर है. इसका प्रभाव यह हो रहा है कि देश में प्रतिवर्ष औसतन चार हजार अरब घन मीटर वर्षा होती है, लेकिन केवल 48 प्रतिशत जल ही नदियों में पहुंचता है और महज 18 फीसदी जल का ही इस्तेमाल हो पाता है. भारत के हुनरमंद यदि चाहें तो इजराइल का उदाहरण ले सकते हैं, जहां औसतन 10 सेंटीमीटर वर्षा होती है और उसी से वह पर्याप्त अनाज पैदा कर लेता है. जबकि भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद अनाज की कमी बनी रहती है.

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