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आडवाणी की हठधर्मिता के निहितार्थ

-नयी पीढ़ी के भाजपा नेतृत्व को जनआंदोलनों का न तो अनुभव है और न ही जनसमर्थन-।। अजय सिंह।।(प्रबंध संपादक गवर्नेस नाऊ) बुधवार को एक बार फिर लालकृष्ण आडवाणी ने राजनाथ सिंह के इस प्रस्ताव को नकार दिया, जिसमें नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया जाये. पिछले एक पखवारे में यह तीसरा लक्ष्य […]

-नयी पीढ़ी के भाजपा नेतृत्व को जनआंदोलनों का न तो अनुभव है और न ही जनसमर्थन-
।। अजय सिंह।।
(प्रबंध संपादक गवर्नेस नाऊ)

बुधवार को एक बार फिर लालकृष्ण आडवाणी ने राजनाथ सिंह के इस प्रस्ताव को नकार दिया, जिसमें नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया जाये. पिछले एक पखवारे में यह तीसरा लक्ष्य है, जब आडवाणी ने इस तरह के प्रस्ताव को सिरे से खारिज किया. पहली बार सर संघ चालक मोहन भागवत के साथ भोजन पर आडवाणी ने अपनी मंशा रखी, साथ में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज भी थी. आडवाणी का कहना था कि मोदी के नाम को आगे लाने से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा. दूसरी बार संघ पदाधिकारियों के साथ भाजपा की बैठक से अलग एक छोटी मीटिंग हुई. आडवाणी के साथ सुरेश सोनी, भैयाजी जोशी व भागवत थे. इस बार फिर मोदी के प्रोजेक्शन का मामला आया.

आडवाणी ने फिर अपना वही मत जाहिर किया. बुधवार को राजनाथ सिंह का तीसरा प्रयास फिर विफ ल हो गया. अब सवाल उठता है कि आडवाणी की हठधर्मिता की वजह क्या है? क्या उनके प्रधानमंत्री बनने की इच्छा इतनी बलवती है कि वो पार्टी का जानबूझ कर अहित कर रहे हैं? दरअसल आडवाणी के नजरिये से अगर स्थिति देखें तो यह उनकी हठधर्मिता नहीं, बल्कि राजनीतिक आकलन का विषय है. बकौल आडवाणी, मोदी के नाम के घोषणा के साथ ही कांग्रेस के सारे पाप छिप जाते हैं. भ्रष्टाचार, महंगाई और कमजोर प्रशासन जैसे विषय गौण हो जायेंगे और मुख्य मुद्दा बनेगा मोदी 2002 के दंगे और उनसे निकले विवाद. डीजी बंजारा का इस्तीफा और मोदी सरकार पर की गयी टिप्पणी तो सिर्फ एक बानगी थी. ऐसे कई विवाद कांग्रेस के तरकश में तीर की तरह छुपे हैं.जाहिर है चुनाव का माहौल कुछ इस तरह का होगा, जिसमें राजनीतिक ध्रुवीकरण मोदी के विवादास्पद राजनीतिक व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द होगा. ऐसे में मोदी के कुशल प्रशासक की छवि का भी कोई मतलब नहीं होगा.

जाहिर है आडवाणी का यह आकलन मोदी समर्थकों को नहीं भा रहा है. दरअसल पिछले एक साल में समर्थकों की यह जमात मोदी को एक सेवियर (रखवाला) के रूप में प्रस्तुत कर रही है. लगभग दस साल से केंद्र में सत्ता के बाहर बैठी यह पीढ़ी उतावली है. 2009 में आडवाणी इस पीढ़ी के तारणहार नहीं बन पाये. प्रथम पंक्ति के अन्य नेता खासे बौने दिखायी देते हैं. आज के दिन राजनाथ सिंह और अरुण जेटली का कद जननेता का न होकर मोदी के जन संपर्क अधिकारी का बन गया है. कमोबेश यही हैसियत सर संघ चालक मोहन भागवत की भी है. इसकी मुख्य वजह है इस वर्ग का राजनीतिक आकलन की मोदी का व्यक्तित्व पार्टी संघ परिवार से ज्यादा व्यापक है. ये सारे नेता घूम-घूम कर मोदी की लोकप्रियता का बखान कर रहे हैं.

इसमें वाकई शक नहीं कि मोदी के व्यक्तित्व में राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष किस्म का आकर्षण है. यह कुछ उसी तरह की लोकोक्ति पर आधारित है, जिसका अर्थ है, आप मोदी से प्यार कर सकते हैं, घृणा कर सकते हैं, पर उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते. ऐसे में मोदी के अगर अंधभक्त समर्थक हैं, तो अंधभक्त विरोधी भी. पर भावनाओं का यह खेल तथा चुनावी मैदान पर असर दिखायेगा? भाजपा की मोदी समर्थन नेतृत्व व सर संघ चालक यह मानते हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री की दावेदारी घोषित करने के बाद जनसमर्थन का एक उफान-सा आयेगा. कई भाजपाई चुनावी विश्लेषकों ने इस थीसिस का अनुमोदन करते हुए यहां तक कहा कि पार्टी अपने दम पर 250 सीटों के ऊपर पहुंच जायेगी.

दरअसल यही वो बिंदु है, जहां आडवाणी की राय मोदी समर्थक भाजपा नेतृत्व और संघ से भिन्न है. अपने लगभग 70 दशकों के राजनीतिक अनुभव के आधार पर उनका मानना है कि भारत जैसे व्यापक देश में इस तरह का नेतृत्व जनसमर्थन नहीं जुटा पाता. राम जन्मभूमि आंदोलन के चरम पर भी भाजपा को सीमित सफलता 1991 के लोकसभा चुनाव में मिली थी.

मोदी समर्थकों की नजर में आडवाणी के ये विचार उनके राजनीतिक ठहराव के द्योतक हैं. मसलन, आडवाणी भारत की जमीनी हकीकत से दूर हैं. भारत बदल गया है. नयी पीढ़ी उतावली है और तुरंत बदलाव चाहती है. मोदी उस चाहत के प्रतीक हैं. दिलचस्प यह है कि इस वर्क को गढ़ने वाले यह भूल जाते हैं कि नयी पीढ़ी का विभाजन जातिगत और सांप्रदायिक उतना ही है जितना दशकों पहले. हाल ही में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके में हुए दंगे इसका जीवंत प्रमाण हैं. सवाल यह भी उठता है कि आखिर नयी पीढ़ी का दलित मायावती को छोड़ कर मोदी की तरफ क्यों जायेगा. पर सोशल मीडिया, टीवी स्टूडियो और ट्विटर के युग में इन सवालों पर विमर्श बेमानी है.

बीजेपी में चल रही इस खींचतान का सरोकार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से है, पर इसका विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है. आडवाणी के हिंदुत्व और जेटली-मोदी, राजनाथ के हिंदुत्व में रत्ती भर भेद नहीं है. लड़ाई सिर्फ सत्ता के रास्ते और उसको शीर्ष पर पहुंचने वाले व्यक्ति के विषय में है. ऐसे में क्या आडवाणी 87 साल के उम्र में आज भी दावेदार हैं?

इस सवाल का उत्तर एक दिलचस्प घटना में छुपा है. 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद आडवाणी से अमेरिकी विद्वान वाल्डर एंडरसन मिलने गये. भारतीय दक्षिण पंथ पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम है ‘ब्रदरहुड इन सेफ्रन’. एंडरसन ने आडवाणी से दो-टूक पूछा कि- क्या वो 2014 में प्रधानमंत्री का ख्वाब देखते हैं. आडवाणी हंसे और कहा कि ‘मेरे दिन अब चले गये.’ जाहिर है आडवाणी को इस बात का एहसास है कि उम्र के इस पड़ाव पर महत्वाकांक्षा की उड़ान उन्हें हास्यास्पद बना देगी. पर, वहीं दूसरी ओर आडवाणी एक खालिस राजनेता हैं, जो अपना टर्फ भी बचाना जानते हैं. उनसे त्याग और तपस्या की उम्मीद करना शेर को घास खाने की सलाह देने जैसा होगा.

यही वजह है कि आडवाणी किसी भी सूरत में अपने आकलन और राजनीतिक विचारों से समझौता करने की स्थिति में नहीं हैं. ऐसे में संघ व मोदी-समर्थक भाजपा नेतृत्व के पास एक मात्र विकल्प है कि आडवाणी की आपत्तियों को नजरअंदाज कर मोदी के नाम की घोषणा की जाये. पर यह निर्णय इतना आसान भी नहीं है. राजनाथ सिंह में न तो राजनैतिक कद है न ही उन्हें पार्टी के पार्लियामेंट्री बोर्ड का पूरा समर्थन कि इस तरह का निर्णय ले सके. संघ यह निर्णय ले सकता है, पर आधिकारिक रूप से यह उसके दोहरे चरित्र को उजागर करेंगे.

हर मंच पर सर संघ चालक कहते रहे हैं कि भाजपा का निर्णय पार्टी नेतृत्व ही लेता है. ऐसे में मोदी पर संघ का निर्णय संघ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का प्रत्यक्ष प्रमाण होगा. कुल मिला कर यह स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गयी है. दूसरी ओर मोदी का उतावलापन भी चरम पर है. समर्थकों और प्रशंसकों की बढ़ती भीड़ ने उन्हें लगभग आश्वस्त-सा कर दिया है कि इतिहास का यह क्षण उन्हीं का है. नागपुर से लेकर दिल्ली तक उनके सिपहसालार उनके राजतिलक का मार्ग प्रशस्त करने को होड़ में लगे हुए हैं.

जाहिर है इस द्वंद्व में आडवाणी का माजिर्नलाइजेशन तय है. नयी पीढ़ी के भाजपा नेतृत्व को जनआंदोलनों का न तो अनुभव है और न ही जनसमर्थन. ऐसे में मोदी जैसे जन-नेता की बैसाखी ही मात्र सहारा है. बुजुर्ग और अप्रासंगिक आडवाणी को किनारे लगाना भी एक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हो सकती है. साफ तौर पर भाजपा का उतावला नेतृत्व और आडवाणी में लगभग संवाद शून्यता का दौर है.

यह कुछ इसी तरह है जैसे लगभग एक वर्ष पहले आडवाणी अपने पुराने मित्र जार्ज फर्नाडीस से मिलने गये. फर्नाडीस उन्हें पहचान ही पा रहे थे. ऐसे में आडवाणी ने अपनी व्यथा कही कि ‘जार्ज अजीब स्थिति हैं, मेरे दो अभिन्न मित्र आप और वाजपेयी जी (अटल बिहारी वाजपेयी) न ही मुझेपहचानते हैं, न ही कोई संवाद हो सकता है.’ एकाकीपन के ये उद्गार आडवाणी के लिए आज अपने हिंदुत्व परिवार में भी उतने ही सच हैं.

(यह लेख मोदी की ताजपोशी के पहले लिखा गया था)

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