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सरहद पार के फनकार

वर्तमान में पाकिस्तान से कई संगीतकार, गायक और अभिनेता हिंदी सिने जगत में सक्रिय हैं. शफाकत अमानत अली खां,आतिफ असलम, अली जाफर जैसे कुछ नाम बॉलीवुड का कुछ इस तरह से हिस्सा हैं कि इनके प्रशंसकों का शायद ही इस बात पर ध्यान जाता है कि ये सीमा पार से आये हैं. जानते हैं क्या […]

वर्तमान में पाकिस्तान से कई संगीतकार, गायक और अभिनेता हिंदी सिने जगत में सक्रिय हैं. शफाकत अमानत अली खां,आतिफ असलम, अली जाफर जैसे कुछ नाम बॉलीवुड का कुछ इस तरह से हिस्सा हैं कि इनके प्रशंसकों का शायद ही इस बात पर ध्यान जाता है कि ये सीमा पार से आये हैं. जानते हैं क्या सोचता है पाकिस्तानी मीडिया इसके बारे में.

फनकारी सरहद से परे होती. हिंदी सिनेमा में पाकिस्तानी कलाकारों की मौजूदगी इसकी एक मिसाल है. मेहदी हसन की गजलें भारत के हर घर में बजती हैं. गुलाम अली आये 1980 में और ‘निकाह’ फिल्म के लिए उनका गाया ‘चुपके चुपके रात दिन’ हर जुबां पर बस गया. ‘और प्यार हो गया’ से नुसरत फतेह अली खां ने बॉलीवुड की ओर रुख किया. जावेद अख्तर के साथ आये उनके एलबम ‘संगम’ को काफी सराहा गया. वर्तमान में पाकिस्तान से कई संगीतकार, गायक और अभिनेता हिंदी सिने जगत में सक्रिय हैं. शफाकत अमानत अली खां, आतिफ असलम, अली जाफर जैसे कुछ नाम बॉलीवुड का कुछ इस तरह से हिस्सा हैं कि इनके प्रशंसकों का शायद ही इस बात पर ध्यान जाता है कि ये सीमा पार से आये हैं.

लेकिन इन कलाकारों की बॉलीवुड में मौजूदगी को लेकर पाकिस्तान की सोच कुछ अलहदा है. वह मानता है कि हिंदी सिनेमा में पाकिस्तानी कलाकारों को मिली अहमियत ने उन्हें गुजारे के लिए किसी दफ्तर की नौकरी की ओर रुख करने से जरूर बचाया है, लेकिन इसका असर कला की गुणवत्ता पर भी पड़ा है. ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ में रफे महमूद लिखते हैं, ‘भारत ने जैसे-जैसे यहां की प्रतिभाओं के लिए अपने दरवाजे खोले हैं और हमारे कलाकारों का वहां बड़ी संख्या में जाना हुआ है, गुणवत्ता में गिरावट भी आयी है.’ कुछ महीने पहले पाकिस्तानी अखबार डॉन के सांस्कृतिक आलोचक पीरजादा सलमान ने एक समाचार बेवसाइट डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा था कि ‘बॉलीवुड में व्यावसायिकता इतनी बढ़ गयी है कि ‘अप्रशिक्षित’ पाकिस्तानी गायक भी वहां पहुंच जा रहे हैं.’

रफे महमूद के मुताबिक पाकिस्तान से बड़ी संख्या में कलाकार भारत गये, लेकिन वहां असर छोड़ पाने में कम लोग ही कामयाब रहे हैं. अभिनेत्री जेबा बख्तियार हों,या फिर चॉकलेटी हीरो अली जाफर, अपनी छाप छोड़ पाने में कामयाब नहीं हुए. यह जरूर है कि जाफर अपनी बहुआयामी प्रतिभा के बल पर अपने लिए मुकाम बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इस फेहरिस्त में नया नाम जुड़ा है, मीशा सफी का, जिन्होंने हाल ही में ‘भाग मिल्खा भाग’ में किरदार निभाया है. पाकिस्तान में सफी अपनी खुरदुरी आवाज के लिए जानी जाती हैं, लेकिन एक अभिनेत्री के तौर पर टीवी पर या ‘रिलकटेंट फंडामेंटलिस्ट’ जैसी फिल्म में उनका काम पाकिस्तान में औसत ही माना गया है. पाकिस्तान सहित भारत में भी सराही गयी पाकिस्तानी फिल्म ‘बोल’ की अभिनेत्री हुमैमा भी बॉलीवुड में नजर आनेवाली हैं. मीरा, वीणा और सारा लॉरेन का जिक्र रफे को जरूरी नहीं लगता.

जाहिर है संगीत के क्षेत्र में जैसी सफलता पाक के कलाकारों को भारत में मिली, वैसी अभिनय में नहीं मिली. लेकिन रफे महूमद मानते हैं, संगीत में प्रभाव पैदा करने की क्षमता रखनेवाले नुसरत फतेह अली खां के बाद कोई और नहीं दिखता. उनके तथाकथित उत्तराधिकारी राहत फतेह अली खां सिर्फ बॉलीवुड के चलताऊ संगीत के भरोसे हैं. एक परफॉर्मर के तौर पर उनका जादू खत्म हो गया दिखता है. शफाकत अली खान जरूर सतर्कता के साथ अपना कदम रख रहे हैं, लेकिन अली जाफर ने भी ऐसा कोई संगीत नहीं दिया है, जिसे याद रखा जा सके. आतिफ असलम को समय से पहले प्रसिद्धि मिल गयी, लेकिन वह भी अपनी प्रतिभा को चमका नहीं सके. हालांकि ‘द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट’ में ‘मोरी अरज सुनो’ एक कलाकार के तौर पर उनके दमखम को बताता है. अगर वे अपने काम में इसी तरह से जुटे रहे तो वे सबको चकित कर सकते हैं.

अपने आलेख में रफे महमूद कुछ सवाल और जवाब की ओर भी ले जाते हैं,‘तो क्या हम उम्मीद करें कि पाकिस्तान से और प्रतिभाएं निकलेंगी? हां. लेकिन क्या यह बेहतर होगा? नहीं. क्योंकि मीशा सफी जैसी प्रतिभाएं हमारी संगीत प्रतिभा का अवशेष ही हैं. पाकिस्तान के उभरते सितारे, बालीवुड में पदार्पण करने के लिए इतने बेकल हैं, कि कुछ अलग और उल्लेखनीय कर पाना इनके बस की बात ही नहीं है. ’

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