मैं एक किसान परिवार से हूं और मेरे माता-पिता दोनों ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन वे साक्षर थे और उनकी सोच प्रगतिशील थी, यही कारण है कि उन्होंने मुङो पढ़ाया-लिखाया और इस काबिल बनाया कि मैं दूसरों को अधिकार दिलाने के लिए उनकी जंग लड़ सकूं और उन्हें सहारा दे सकूं. यह कहना है महिला सामाख्या की जिला कार्यक्रम समन्वयक अनिता केरकेट्टा का.
रजनीश आनंद
अनिता पूरी निष्ठा के साथ महिला सामाख्या के कार्यक्रमों को संचालित करने में जुटी हैं और उनका यह प्रयास है कि वे महिला सशक्तीकरण के सपने को साकार करें. वे यह प्रयास करती हैं कि महिला सामाख्या के कार्यक्रमों को जिले में बखूबी संचालित करें. वे कहती हैं कि हमारा यह प्रयास है कि हम ग्रामीण इलाके की वैसी महिलाओं को आत्मनिर्भर बनायें, जो अपनी बातों को कह नहीं पाती हैं और अपने साथ होने वाली हिंसा को अपनी नियति मान लेती हैं. हम उन्हें यह बताने का प्रयास करते हैं कि वे भी समाज की इकाई हैं और उन्हें भी जिंदगी पूरे हक से जीने का अधिकार है.
अनिता बताती हैं कि महिला सामाख्या के कार्यक्रमों के जरिये ग्रामीण इलाकों में काफी परिवर्तन हुआ है. महिलाएं अपनी बातों को उजागर करने लगी हैं, वे अपना हक मांगने लगी हैं और उनमें निर्णय लेने की क्षमता भी विकसित हुई है. पहले ग्रामीण महिलाएं गांव में बनायी गयी समितियों से जुड़ना नहीं चाहती थीं, वे यह पूछती थीं कि आखिर इससे जुड़कर उन्हें क्या फायदा होगा, लेकिन अब उनमें सेवा भावना जाग गयी है. वे सामूहिकता की शक्ति को समझने भी लगी हैं. अनिता बताती हैं कि ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में स्वयं सहायता समूह की भी बहुत बड़ी भूमिका है. सामाख्या इन समूहों के निर्माण में तो सहयोग करती ही है साथ ही वह इन समूहों को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए उन्हें ग्रामीण स्तर पर संचालित योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए एलयूओ के जरिये ऋण भी दिलाती है.
अनिता केरकेट्टा वर्ष 2008 से महिला सामाख्या से जुड़ी हैं. इससे पहले वह कैथोलिक चैरिटी नामक एनजीओ से जुड़ी थीं. यहां वे प्रोग्राम कॉडिनेटर के पद पर कार्यरत थीं. यह एनजीओ महिला सशक्तीकरण के कार्यों में जुटा है. इस चैरिटी के साथ इन्होंने पूरे आठ वर्ष काम किये और महिलाओं की कई तरह से मदद की. यहां पर अनिता महिलाओं को बचत करना सिखाती थीं, उन्हें कानूनी जानकारी देती थी साथ ही जल, जंगल और जमीन से जुड़े विवादों का निपटारा भी करवाती थीं. यहां पर बालवाड़ी का संचालन भी किया जाता था. इस संगठन के साथ काम करते-करते अनिता को महिला सामाख्या के साथ जुड़ने का मौका मिला और उन्होंने सहर्ष यह जिम्मेदारी ले ली. उन्हें यह पता था कि महिला सामाख्या के साथ काम करके वे महिलाओं के उत्थान के लिए और बेहतर प्रयास कर पायेंगी. आज अनिता पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कह पाती हैं कि मैं महिलाओं के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयासरत हूं और इसमें सफलता भी मिली है.
महिला सामाख्या नारीवादी सोच के साथ काम करती है, यही कारण है कि जहां से भी हमें यह सूचना मिलती है कि एक नारी के साथ अन्याय हो रहा है हम सक्रिय हो जाते हैं और उसे न्याय दिलाने के लिए प्रयास शुरू कर देते हैं. वे कहती हैं कि आधुनिक युग में भी नारी को सम्मान नहीं मिला है और उसके साथ दोयम दज्रे का व्यवहार हो रहा है. इस स्थिति में परिवर्तन के लिए महिलाओं को जागना होगा. इंसानियत के नाते भी यह जरूरी है कि महिलाओं को उनका हक मिले. महिलाओं को भी अपनी परिस्थिति में बदलाव के लिए चहारदीवारी से बाहर आना होगा.
साथ ही उन्हें जागरूक भी रहना होगा. अपने विकास के लिए यह जरूरी है कि महिलाएं न सिर्फ योजनाओं की जानकारी रखें, बल्कि उनका लाभ लेने के लिए संगठित होकर प्रयास भी करें. इसके लिए महिलाओं को शिक्षा के महत्व को भी समझना होगा, यदि महिलाएं शिक्षित और साक्षर दोनों होंगी, तभी वे अपने अधिकारों को समझ पायेंगी. चूंकि महिला सृजनकर्ता है, इसलिए शिक्षा उसके लिए बहुत जरूरी है. जेवियर इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल सर्विस से ग्रामीण विकास के कोर्स में स्नातकोत्तर की डिग्रीधारी अनिता गुमला जिले, चैनपुर प्रखंड के गांव कासिरा से रांची तक की यात्र कर यह साबित कर चुकी हैं कि अगर एक महिला कुछ करने की ठान ले, तो असंभव कुछ भी नहीं.