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समर से गायब अमर!

चुनाव सामने है. मतदाता सर्वेक्षणों की मानें, तो इस बार किसी भी पार्टी या गंठबंधन के लिए स्पष्ट जनादेश पाना मुश्किल होगा. अगर ये भविष्यवाणियां सच साबित हुईं, तो भारतीय राजनीति में एक बार फिर जोड़-तोड़ का खेल पूरे शबाब पर होगा. ऐसे में कौन-सा चेहरा आपके जेहन में सबसे पहले कौंधता है. अमर सिंह […]

चुनाव सामने है. मतदाता सर्वेक्षणों की मानें, तो इस बार किसी भी पार्टी या गंठबंधन के लिए स्पष्ट जनादेश पाना मुश्किल होगा. अगर ये भविष्यवाणियां सच साबित हुईं, तो भारतीय राजनीति में एक बार फिर जोड़-तोड़ का खेल पूरे शबाब पर होगा. ऐसे में कौन-सा चेहरा आपके जेहन में सबसे पहले कौंधता है. अमर सिंह का ना! लेकिन किसी जमाने में किंग मेकर की भूमिका में रहे अमर सिंह का इन दिनों कोई अता-पता ही नहीं मिलता. आखिर कहां हैं अमर सिंह ?

‘गरजपरस्त दुनिया में वफा का नाम न ले, ये वो शै है जो बनी है किसी और जहां के लिए.’ वर्ष, 2012 में एक टीवी चैनल को दिये इंटरव्यू के दौरान उनकी जुबां पर आया यह शेर, असल में उनके दिल की टीस का हालेबयां था. इससे ठीक एक साल पहले 2011 में उनकी वेबसाइट पर ये पंक्तियां पेस्ट की गयी थीं, ‘मुश्किलों में घिर कर भी आसानी से निकल आना फितरत-ए-अमर है.’ लेकिन, आज जब कई राज्यों समेत केंद्र की सत्ता का समर सामने है, वे परिदृश्य से गायब हैं. राजनीतिक परिदृश्य से उनकी यह गुमशुदगी ध्यान खींचती है, क्योंकि इस बात को ज्यादा वक्फा नहीं बीता, जब सरकार बनाने से लेकर गिराने तक में उनकी अहम भूमिका हुआ करती थी. वे किंग भले न बने हों, किंग मेकर जरूर थे. वो कहते हैं न, ‘यू लव हिम ऑर हेट हिम, बट यू कांट इग्नोर हिम’- आप उनसे प्यार करें या नफरत, उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे.

जी हां, बात हो रही है, अमर सिंह की. वही अमर सिंह, जिनका कभी राजनीति ही नहीं, उद्योग जगत से लेकर बॉलीवुड तक में गहरा दखल हुआ करता था. आखिर अमर सिंह हैं कहां? हैं तो वे दिल्ली में ही, लेकिन जिस सत्ता की सुगंध उनमें संजीवनी फूंका करती थी, वे उस सत्ता के गलियारों से दूर हैं. मुलायम सिंह यादव से उनके अलगाव के बाद राजनीतिक साथियों ने उनसे दूरी बना ली और धीरे-धीरे उद्योग और सिनेमा की दुनिया के करीबी भी उनसे किनारा करते गये. शारीरिक बीमारी और राजनीतिक बनवास से गुजर रहे अमर सिंह अब अकेले हैं. वह किडनी और शुगर की बीमारी से ग्रस्त हैं और अकसर सिंगापुर इलाज कराने के लिए जाते रहते हैं. अब उनके आस-पास पहले-सी भीड़ नहीं, सिर्फ उनकी पत्नी पंकजा और दोनों बेटियां हैं. पुराने साथियों में कोई साथ है, तो वह सिर्फ जयाप्रदा हैं.

हाल में अमर सिंह को अभिनेत्री श्रीदेवी के जन्मदिन कार्यक्रम में देखा गया. कहा जाता है कि श्रीदेवी के जन्मदिन की यह दावत अमर सिंह ने ही दी थी. इसे उनकी वापसी से जोड़ कर देखा गया. ऐसा लगता है, राजनीति और ग्लैमर की दुनिया के प्रति अमर सिंह का मोह उस लंबे एकांत में भी नहीं कम हुआ है, जो इस रंग बदलनेवाली दुनिया की फितरत से ही उन्हें मिला है.

इसलिए कभी अपने रहे लोगों की बेवफाई ङोल रहे अमर सिंह को अब भी अपनी वापसी का इंतजार है. 13 अक्तूबर, 2012 को एक टीवी चैनल को दिये साक्षात्कार में उन्होंने कहा था-‘अवसर मिलेगा तो छोड़ूंगा नहीं, लेकिन अवसर के पीछे मरीचिका की तरह भागूंगा भी नहीं.’ हालांकि वक्त की बेरुखी का एहसास भी उनमें दिखता है. इसलिए, मौजूदा राजनीति के खेल से गायब रहने के सवाल पर वह कहते हैं, ‘मौका-ए-रस्म और दस्तूर, प्रारब्ध, नियति दुनिया की नीति है. जब सबका समन्वय होता है, तब खेल होता है.’

कभी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहे अमर सिंह अब इस ‘सत्ता समन्वय’ के खेल में नहीं हैं. वह यूपी में बेगाने हो गये हैं. सपा ने उन्हें पूरी तरह भुला दिया है. अरविंद सिंह गोप जैसे जिन लोगों को अमर सिंह ने आगे बढ़ाया, वह सभी अब उनसे मिलने से कतराते हैं. अहम पदों पर विराजमान आइएएस और आइपीएस, जिन्हें अमर सिंह ने सपा के शासनकाल में कमाईवाले महकमों में तैनात किया था, वह अब उनके फोन तक नहीं उठाते. यह अधिकारी कभी अमर सिंह के पीए शुक्ला तक के संदेश पर त्वरित कार्रवाई करते थे. अनिल अंबानी समेत वे तमाम उद्योगपति भी अब अमर सिंह की सुध नहीं लेते, जिनकी उत्तर प्रदेश में इकाई स्थापित कराने का उन्होंने सपा में रहते प्रयास किया था.

कहानी अमर सिंह की
नयी दिल्ली: उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में 27 जनवरी 1956 को हरिश्चंद्र सिंह के घर जन्मे अमर सिंह जब महज तीन साल के थे, उनके पिता कारोबार के लिए सपरिवार कोलकाता आ गये. अमर सिंह की शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में ही हुई. कॉलेज के दिनों में ही वह कांग्रेसी नेता सुब्रत मुखर्जी के संपर्क में आये. यहीं से उनका राजनीतिक जीवन शुरू हुआ.

इमरजेंसी के बाद अमर सिंह जनता पार्टी के सदस्य बन गये, पर जनता पार्टी का बिखराव उन्हें वापस कांग्रेस में ले आया. कोलकाता में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान अमर सिंह की मुलाकात यूपी के कद्दावर नेता वीरबहादुर सिंह से हुई. यूपी में कारोबार स्थापित करने में वीर बहादुर सिंह ने उनकी मदद की. बाद में अमर सिंह कांग्रेस के बड़े नेता माधवराव सिंधिया के खासमखास बन गये. वक्त के साथ अमर सिंह अवसरवादी राजनीति का हुनर सीखते गये. यूपी में कांग्रेस के पराभव के बाद वह समाजवादी प्रमुख मुलायम सिंह के करीबी बन गये. कुछ ही साल में वह समाजवादी पार्टी के पर्याय बन गये. वह समाजवादी पार्टी से बतौर महासचिव लंबे समय तक जुड़े रहे, लेकिन उन्हें कभी समाजवादी नहीं माना गया. उनकी पहचान भारतीय राजनीति में जोड़-तोड़ करनेवाले नेता की ही रही है.

राजनीतिक गलियारों में अमर सिंह को एक ऐसे शख्स के तौर पर जाना गया, जो धुर विरोधियों को भी एक मंच पर लाने का माद्दा रखता है. यही अमर सिंह का तिलिस्म है, जिसने उन्हें कभी भारतीय राजनीति का सबसे चर्चित चेहरा बना दिया था. सपा ने उन्हें 1996, 2002 और फिर 2008 में राज्यसभा में भेजा.

लेकिन पार्टी में अमर के बढ़ते दखल से तंग आकर मुलायम के पुराने साथियों ने विरोध दर्ज कराना शुरू कर दिया. बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां और राज बब्बर जैसे नेताओं को अमर सिंह का विरोध करने के कारण पार्टी छोड़ना पड़ा. लेकिन, मुलायम का विश्वास अमर सिंह पर बना रहा.

मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद अमर सिंह को उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष पद से नवाजा गया. इस पद पर रहते उनके देश के उद्योगपतियों से मजबूत संबंध बने. अमर सिंह दिल्ली में पार्टी का चेहरा बन गये. यूपीए-1 की डिनर पार्टी में अपमानित होने के बावजूद 2008 में यूपीए सरकार को बचाने में अमर सिंह ने अहम भूमिका निभायी. सरकार बचाने को लेकर उन पर सांसदों की खरीद-फरोख्त का आरोप भी लगा और उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी. इधर समाजवादी पार्टी के भीतर अमर सिंह की कार्यशैली को लेकर विरोध तेज होने लगे.

2009 के आम चुनाव में कल्याण सिंह के साथ समझौते के कारण पार्टी को लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान और फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम की बहू डिंपल की हार ने इस विरोध को और हवा दी. आखिरकार अमर सिंह ने 6 जनवरी 2010 को समाजवादी पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया.

पार्टी से इस्तीफा देने के बाद अमर सिंह ने गैर राजनीतिक राष्ट्रीय लोकमंच का गठन किया और सपा पर करारे हमले करने लगे. लेकिन, 2012 के चुनावों में उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली. इसके बाद सिंह ने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा की थी और कहा था कि वे अब अपने परिवार को समय देना चाहते हैं.

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