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किताब अमेरिका की, शुरुआत चीन से

– हरिवंश – यह किताब अमेरिका पर है. अंगरेजी में शीर्षक है, दैट यूज्ड टू वी अस (वह अमेरिका होता था). अंगरेजी में अस का प्रयोग यहां द्विअर्थी भी हो सकता है. ‘अस’ का अर्थ ‘हम’ से लें, तो अर्थ होगा, वह हम होते थे. यानी अतीत गान. जैसे पुराने जमींदार, रजवाड़े या रईस अपना […]

– हरिवंश –
यह किताब अमेरिका पर है. अंगरेजी में शीर्षक है, दैट यूज्ड टू वी अस (वह अमेरिका होता था). अंगरेजी में अस का प्रयोग यहां द्विअर्थी भी हो सकता है. ‘अस’ का अर्थ ‘हम’ से लें, तो अर्थ होगा, वह हम होते थे. यानी अतीत गान. जैसे पुराने जमींदार, रजवाड़े या रईस अपना अतीत राग बजाते हैं.
पुस्तक के शीर्षक के नीचे लिखा है, व्हाइट वेंट रांग विद अमेरिका-एंड हाउ इट कैन कम बैक (अमेरिका के साथ क्या गलत हुआ- और किस तरह इसकी पुनर्वापसी संभव है). पुस्तक के दो लेखक हैं. थाम्स एल फ्रीडमैन और माइकल मेंडलबाम. फ्रीडमैन दुनिया में प्रख्यात हैं. मेरे प्रिय स्तंभकार भी. बिलकुल साफ और दो-टूक बात कहते हैं.
जिनसे कहते हैं, उनके दिल में बात पहुंचती है. कई किताबों के लेखक हैं. पर हाल में इनकी दो किताबें पूरी दुनिया में चर्चित रही हैं. पहली पुस्तक है द वर्ल्ड इज फ्लैट (संसार समतल है), भारत से भी जुड़ी. दूसरी है हॉट, फ्लैट एंड क्राउडेड (गर्म, समतल और भीड़ भरी). यह पुस्तक भी दुनिया के लिए बहुत जरूरी किताब है. पर्यावरण और बढ़ती आबादी जैसे सवालों से जुड़ी. मनुष्य के भविष्य पर बात करती किताब. माइकल अमेरिका के एक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय जान हाकिं स यूनिवर्सिटी ऑफ एडवांस इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर और डायरेक्टर हैं. अकेले और साथ मिल कर उन्होंने 12 से अधिक किताबें लिखी हैं. विदेशी मामलों में अमेरिका के बड़े चिंतकों में गिने जाते हैं. यह सब इस पुस्तक व इसके लेखक से जुड़ी जरूरी बातें थीं.
मूल बात है कि यह किताब (दैट यूज्ड टू वी अस) है अमेरिका के बारे में, पर बात शुरू होती है चीन से. पहले अध्याय की पहली पंक्ति है – दीस इज ए बुक एबाउट अमेरिका, दैट बिगिंस इन चाइना (यह किताब अमेरिका के बारे में है, पर बात चीन से शुरू होती है). इस चर्चा से पहले पुस्तक में राष्ट्रपति बराक ओबामा का तीन नवंबर 2010 का दिया गया बयान है.
इट मेक्स नो सेंस फार चाईना टू हैव बेटर रेल सिस्टम दैन अस, एंड सिंगापुर हैविंग बेटर एअरपोर्ट दैन अस. एंड वी जस्ट लर्नड दैट चाईना नाउ हैज फास्टर सुपर कंप्यूटरस आन अर्थ-दैट यूज्ड टू वी अस. (अमेरिकी राष्ट्रपति के कथन का आशय है कि आज चीन के पास हमसे बेहतर रेल सेवा है, सिंगापुर के पास हमसे बेहतर हवाई अड्डा है. और हमें अभी-अभी जानकारी मिली है कि चीन के पास इस धरती का सबसे तेज सुपर कंप्यूटर है, यह सब तो हमारे यहां होता था). यह भी गौर करने लायक बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति खुलेआम अपनी बेचैनी सार्वजनिक करते हैं. स्वीकारते हैं. और अमेरिकीयों से साझा करते हैं. पर भारत में ऐसे सवाल हों, तो कोई बोलता ही नहीं.
अमेरिकी राष्ट्रपति के कोट से लगभग 386 पेज की इस किताब का आशय साफ हो जाता है कि चीन कैसे अमेरिका को पछाड़ कर आगे निकल गया है? पुस्तक के पहले अध्याय में चीन से बात शुरू होती है. सितंबर 2010 में थाम्स चीन में आयोजित वर्ल्ड इकानामी फोरम कांफ्रेंस में गये.
यह गरमी के दिनों में आयोजित थी. तियांनजीन में. वह अपना अनुभव बताते हैं. पांच वर्ष पहले बीजिंग से तियांनजीन पहुंचने में साढ़े तीन घंटे लगते थे. कार से. तब बीजिंग अत्यंत प्रदूषित और भीड़ भरा होता था. अमरिका के डेट्रायट शहर की तरह. पर अब हालात बदल गये हैं. अब तियांनजीन जाने के लिए सिर्फ बीजिंग साउथ रेलवे स्टेशन जाइए. अत्याधुनिक उड़न तस्तरी की तरह बना है, यह स्टेशन. शीशे की छत. ओवल (अंडाकार) आकार का. 3246 सौर प्रकाश यंत्र (सोलर पैनल) लगे हैं. उस भव्य और जगमगाते स्टेशन से टिकट लें. इलेक्ट्रॉनिक किआक्स से. चीनी और अंगरेजी, दोनों में टिकट खरीदने के विकल्प हैं.
फिर विश्व स्तर की सर्वश्रेष्ठ ट्रेन की सवारी करिए. 2008 में जब इस ट्रेन की शुरूआत हुई, तो कहा गया कि यह विश्व की सबसे तेज चलनेवाली चाइनीज बुलेट ट्रेन है. 115 किमी या 72 मील की यात्रा महज 29 मिनट में. कहां पहले बीजिंग से तियांनजीन पहुंचने में साढ़े तीन घंटे लगते थे और अब महज 29 मिनट.
तियांनजीन जहां यह कांफ्रेंस थी, वहां का कांफ्रेंस हॉल विशाल और अद्भुत था. अमेरिका के कुछेक शहरों में ही ऐसे हाल हैं. 25 लाख वर्ग फीट में बना, फ्लोर एरिया 230,000 वर्ग मीटर. इस सभा स्थल को बनाने का काम 15 सितंबर 2009 को शुरू हुआ. मई 2010 में खत्म हो गया.
महज आठ महीनों में. फिर थाम्स वाशिंगटन के मेट्रो रेलवे का दृश्य बताते हैं. दो छोटी स्वचालित सीढ़ियों की मरम्मत में छह महीने से अधिक का समय लगा. इस बीच महज एक ही एलीवेटर (स्वचालित सीढ़ी) काम करता था. रोज यात्रा करनेवाले लोगों के लिए भारी मुसीबत. आधुनिकीकरण के ऐसे मामूली कामों पर आज के अमेरिका में इतना समय क्यों लग रहा है? इस पर संबंधित लोगों से तथ्य एकत्र किये गये, तो अमेरिकी क्षमता और व्यवस्था के फिसलन की जानकारी मिली.
एक तरफ चीन की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने 32 सप्ताह में वर्ल्ड क्लास कांफ्रेंस सेंटर बना दिया. उसके हर कोने में विशाल एक्सलेटर भी लगा दिया. दूसरी तरफ वाशिंगटन मेट्रो की दो छोटी मामूली सीढ़ियों की मरम्मत करने में (सिर्फ 21 कदम की सीढ़ियां) 24 सप्ताह लग गये. लेखकों का निष्कर्ष है कि अब अमेरिकी कार्यसंस्कृति (विलंब, चलता है मानस के अभ्यस्त) में गिरावट है. यही कारण है कि अमेरिका फिसल रहा है. चीन की कार्यसंस्कृति, तत्परता, गवर्नेंस और नो नानसेंस रुख ने हालात बदल दिये हैं. इसलिए चीन उभर रहा है.
दोनों लेखक मानते हैं कि आज अमेरिका के सामने बड़ी चुनौतियां हैं, ग्लोबेलाइजेशन, सूचना तकनीक की क्रांति, लगातार घाटे की अर्थव्यवस्था, ऊर्जा उपभोग की चुनौतियां वगैरह. चीन के बरक्स अमेरिका को केंद्रित कर लिखी गयी इस पुस्तक को लेकर अमेरिकी समाज आत्ममंथन कर रहा है. मैथिलीशरण गुप्त की बात (भारत के संदर्भ में) स्मरण करें, तो हम क्या थे, क्या हुए और क्या होंगे अभी ? इसी तर्ज पर अमेरिकी, अमेरिका के महाबली और महाशक्ति न रहने पर बहस, विचार और चिंतन कर रहे हैं. क्यों और कैसे हम फिसल गये? इतना ही नहीं, इस राष्ट्रीय बहस में, यह सपना भी शामिल है कि देर नहीं हुई है. हमें अपना मुकाम (दुनिया में नंबर एक रहने का) सुरक्षित रखना है या हासिल करना है. खोया गौरव पाना है. एक जिद, बेचैनी है.
इस पुस्तक को पढ़ते हुए, आजादी के दिनों में भारत में लिखी गयी कुछ पुस्तकों की याद आयी. तब भारत अपढ़ था. पर उन पुस्तकों का गहरा प्रभाव या जादू था. राष्ट्रीय मन-मिजाज को इन पुस्तकों ने बेचैन कर दिया. पूरे देश में बहस छिड़ गयी कि भारत क्यों गुलाम है? अतीत में हम कहां फिसले या भटके? कैसे हम भविष्य संवारे? तभी यह स्वर उठा कि क्या थे, क्या हुए और क्या होंगे अभी? साथ में आवाहन भी कि आओ मिल कर विचारें.
पंडित सुंदरलाल की पुस्तक भारत में अंगरेजी राज्य, इससे भी पहले दादाभाई नौरोजी के विचार द ड्रेन थ्योरी (यानी अंगरेज कैसे भारतीय धन को ब्रिटेन ले जा रहे हैं) ने देश का जगाया. इन पर भी प्रतिबंध लगा. फिर मराठी सखाराम गणेश देउस्कर की किताब देशेर कथा (जो बांग्ला में लिखी गयी) पर अंगरेजों ने प्रतिबंध लगाया. लोकमान्य तिलक की पुस्तक गीता रहस्य प्रतिबंधित रही. अनेक अन्य पुस्तकें और पत्रिकाएं अंगरेजों द्वाराप्रतिबंधित. हालांकि तब भारत में पढ़े-लिखे लोग कम थे. पर इन पुस्तकों ने पूरे देश में आत्म अवलोकन का माहौल बना दिया.
सजग अमेरिकी मानते हैं कि यह पुस्तक (दैट यूज्ड टू वी अस) अमेरिका के संदर्भ में ऐसी ही तीव्र बहस का स्त्रोत है. अमेरिकी चिंतित हैं कि हम कहां फिसल गये हैं? क्यों हम दुनिया में महाबली नहीं रहे?
इन दिनों अमेरिका में एक बहस चल रही है कि क्या तकनीकी प्रगति तेज हो गयी है? या उसकी रफ्तार धीमी हो गयी है? याद रखिए, अधिक आधुनिक खोजों का केंद्र अमेरिका ही रहा है. सिलिकन वैली के खरबपति पीटर थैल हर भाषण, साक्षात्कार में यही सवाल उठा रहे हैं. वह अपनी जींस की पाकेट से अपना आइफोन निकालते हैं और कहते हैं, मैं इसे तकनीकी खोज नहीं मानता. वह कहते हैं, अमेरिका के अपोलो स्पेस कार्यक्रम से इसकी तुलना करें.
जार्ज मैसोन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर टाइलर कावेन (मशहूर अर्थशास्त्री) ने एक किताब लिखी है. द ग्रेट स्टेगनेशन (लंबा ठहराव या पड़ाव). कावेन कहते हैं कि उनकी दादी ने अमेरिका में बड़े बदलाव देखे. उन्होंने अपने जीवन के दौरान बड़े हवाई जहाजों का जन्म देखा, गगनचुंबी इमारतों का उद्भव देखा, नदियों और खाड़ी समुद्र पर नये ढंग के पुलों का निर्माण देखा, रेडियो और टीवी के अवतरण से वे चौके.
एंटीबायोटिक, आणविक ऊर्जा, अंतरराज्यीय बड़ी और चौड़ी सड़कें, तेज वायुयान और चंद्रमा पर उतरते इंसान देखे.
ठीक इसके विपरीत 1970 के एक साल बाद पैदा हुए बच्चों ने या पीढ़ी ने चंद्रमा पर पहले पड़ा इंसान का पांव देखा. तेज बोइंग हवाई जहाज की उड़ान देखी. पर्सनल कंप्यूटर देखा. बायो टेकनोलॉजी देखी. सेलफोन देखा. बेव ब्राउसर, सर्च इंजन और नैनो टेक्नोलॉजी देखी. पर 1970 के बाद के ये शोध या आविष्कार 1970 के पहले हुए बड़े आविष्कारों की तरह चौंकाते नहीं.
उनका मानना है कि साइंस एंड टेक्नोलॉजी में ’60-’70 के दशकों में ही बड़े बदलाव हुए. हालांकि पिछले 42 वर्षों में लगातार आविष्कृत नयी तकनीक ने दुनिया का स्वरूप ही बदल दिया है. अब अमेरिका के विशेषज्ञ इस बात पर बहस कर रहे हैं कि क्या 19वीं और 20वीं सदी में अमेरिका में जिस तरह के शोध, अविष्कार और खोज हुए. वह चमत्कार 21वीं सदी में भी अमेरिकी दिखा पायेंगे? बहस यह हो रही है कि क्या टेक्नोलॉजी में रिवोल्यूशन (क्रांतिकारी बदलाव) होगा? इवोल्यूशन (क्रमिक विकास) नहीं. अमेरिका में इस बात पर भी बहस हो रही है कि क्या अमेरिकी तकनीकी प्रगति की रफतार तेज है? क्योंकि इसी पर अमेरिका के सुपरपावर बने रहने का भविष्य टिका है.
अमेरिका में एक दूसरी भी किताब आयी है. ‘रनिंग द वर्ल्ड’ (दुनिया चलाना). लेखक हैं, डेविड जे राथकाफ. वह मानते हैं कि अब पुराने तरह से अमेरिकी चेक नहीं बांट पायेंगे या खैरात नहीं दे पायेंगे, जैसा पहले किया करते थे. पर अमेरिकी आज भी मानते हैं कि दुनिया में अमेरिका ही वह मुल्क है, जहां संसार के हर देश के मां-बाप अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना चाहते हैं. व्हाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा प्रवक्ता माइकल फ्रोमन कहते हैं, आज भी दुनिया में हम इनोवेशन (आविष्कार) के जनक हैं . दुनिया हमारी तरफ नेतृत्व के लिए देखती है. वैचारिक नेतृत्व और क्रियान्वयन नेतृत्व (लीडरशीप इन एक्शन) के लिए.
नवंबर 2011 में फ्रांस में चीन के राष्ट्रपति हू जीन तावो पहुंचे. ग्रुप 20 देशों के राज्यदेशों के राज्याध्यक्षों की बैठक में भाग लेने के लिए. जी-20 देशों ने उनकी अद्भुत अगुआई की. क्योंकि तबाह यूरोप के पुनर्वास के लिए फ्रांस ने चीन के राष्ट्रपति से खरबों डॉलर की याचना की. वहीं जब राष्ट्रपति ओबामा, जी-20 की इस बैठक में फ्रांस गये, तो जी-20 के राष्ट्राध्यक्षों ने मुस्कान के साथ ही उनका स्वागत किया. हाथ मिलाया. बस इतना ही. चीन को मिलते इस महत्व से अमेरिकी समाज बेचैन और विचाररत है.
इस पुस्तक को पढ़ते हुए मन में सवाल उठा कि क्यों अपनी समस्याओं-चुनौतियों को लेकर भारत के इस इलाके में, आज न ऐसा लेखन है, न ऐसी बेचैनी है, न ऐसी बहस है? भारत की श्रेष्ठ संस्थाएं आज विवादों में है. इसरो के पूर्व प्रमुख जी
माधवन नायर का विवाद देख लीजिए, सेना के प्रमुख का उम्र विवाद देख लीजिए, टूजी प्रकरण पर उच्चतम न्यायालय का फैसला देख लीजिए. धीमी होती अर्थवयवस्था का मामला देख लीजिए, भ्रष्टाचार को रोकने का प्रसंग देख लीजिए, विदेशों में जमा भारतीय धन वापस लाने का प्रसंग देख लीजिए ….
न सरकार के सदर बोलते हैं, न राजनीतिक दल इस पर गंभीर बहस करते हैं. न लेखक पत्रकार या साहित्यकार, भारत
की बेचैनी को स्वर देते हैं.
अनंत जलते सवाल हैं, जिन्होंने भारत के विकास और उभार में जंजीर और बेड़ियां डाल दी हैं. इससे भी अधिक चुभता सवाल. हम चीन के पड़ोसी हैं, जिसका वर्चस्व का दंश हम पग-पग और पल-पल भोग रहे हैं. उसे लेकर अमेरिका बेचैन है, पर हम नहीं. कवि सम्राट गोपाल सिंह नेपाली की अकेली आवाज ने भारत की अंतरात्मा को झकझोर दिया था.
चीन की पराजय के बाद. बोमडिला से गांव-गांव तक घूम कर देश को झंकृत कर दिया था. आज भारत के स्वाभिमान से जुड़े सवाल भी हैं. पर वे अचर्चित हैं?
क्या भारत में सचमुच विचारों के दौर का अंत हो गया है?
(नोट : इस सामग्री के लेखन में उपरोक्त उल्लेखित पुस्तक और फोर्ब्स पत्रिका (17 फरवरी 2012) से मदद मिली है.)
दिनांक : 12.02.2012

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