।।अनुज सिन्हा।।
(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)
यात्रा में था. अचानक खबर आती है कि राहुल गांधी ने दागी सांसदों-विधायकों को बचानेवाले अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देने की नसीहत दे दी है. चौंका. यह कैसे हो गया? नेताजी का हृदय अचानक कैसे बदल गया. यह अंतरात्मा की आवाज का असर है या जनता के डर का, यह तो नेताजी ही बता सकते हैं. अगर इस अध्यादेश से जनता के भड़कने का डर था जिसका नेताजी को आभास हो गया, तो समझ लीजिए कि नेताजी समझदार हैं. नफा-नुकसान समझने लगे हैं. इस अध्यादेश का लाभ चारा घोटाले के अभियुक्त लालू प्रसाद को मिल सकता था. कुछ और नेताओं को भी मिल सकता था. अब नेताजी के एक बयान-कदम ने सारा समीकरण बिगाड़ दिया है. नेता चाहे किसी दल के हों, कोई समझ नहीं पा रहा है कि अचानक नेताजी का दिमाग कैसे घूम गया. इससे पहले तो देश के सीनियर नेताओं ने डेमोक्रेसी की आड़ में अपनी ताकत दिखा ही दी थी. कैबिनेट की बैठक कर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने का निश्चय कर डाला था. प्रयास था, देश के नेताओं (सांसद, विधायक) को सुरक्षित करने का. इसका असर यह पड़ रहा था कि कोर्ट ने उनके खिलाफ दो साल से ज्यादा की सजा सुना भी दी, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वे अपील में जायेंगे और तत्काल प्रभाव से संसद या विधानसभा की उनकी सदस्यता खत्म नहीं होगी. सारा खेल बिगाड़ दिया नेताजी (राहुल गांधी) ने.
यह सही बात है कि अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली है. फाइल उनके पास ही है. नेताजी सामान्य नेता नहीं हैं. पावरफुल नेता हैं. इसलिए अगर उन्होंने अध्यादेश को फाड़ कर फेंकने को कह दिया, तो उस पर अमल होना लगभग तय है. हो सकता है कि नेताजी को लगा हो कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने से जनता के बीच गलत संदेश जा रहा है. अधिकांश मंत्री जी-हुजूरी करते हैं, इसलिए एक-दो को छोड़ कर किसी ने कैबिनेट में विरोध नहीं किया. बेहतर होता नेताजी अपनी राय (फाड़ कर फेंकने की) पहले व्यक्त करते. लेट किया. हो सकता है कि दिमाग में यह बात आ गयी हो कि कैबिनेट के पास करने से क्या होता है, निर्णय तो राष्ट्रपति को लेना है. कुछ और बातें मन में होंगी. खैर, देर आये, दुरुस्त आये नेताजी. हो सकता है कैबिनेट की छीछालेदर हो, पर पार्टी बड़ी आलोचना से बच भी सकती है. चिंतित तो उन सांसदों-विधायकों को होना चाहिए जो हत्या-बलात्कार, घोटाले के आरोपी हैं. अब उनका सुरक्षा कवच हट भी सकता है.
नेता चाहे जिस दल के भी हों, संकट आने पर एक होने का उनमें अद्भुत गुण है. गजब की एकता उनमें है. इस बार भी पहले यह दिखा. लगभग सभी दलों को सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला रास नहीं आया. आता भी कैसे, लगभग सभी दलों में ऐसे सांसद-विधायक हैं, जिनके खिलाफ अदालत में मामले चल रहे हैं. यह 1952 के आम चुनाव का जमाना नहीं है, जब देश की आजादी की लड़ाई लड़ चुके लोग संसद या विधानसभा का चुनाव लड़ते थे. जमाना बदल गया है. दल तो उन्हें ही पहले टिकट देते हैं, जिनमें चुनाव जीतने की क्षमता हो. चुनाव जीतने का फामरूला अब अलग है. ताकत है, पैसा है, तो चुनाव लड़िए. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये, तो जिनके पास पैसा-ताकत नहीं है, उनका संसद, विधानसभा में पहुंचना असंभव है. लेकिन जल्द ही दलों ने जनता का मूड भांप लिया. चेहरा बचाने का उपाय खोजने लगे. धीरे-धीरे रंग बदलने लगे. हां, एक नेता के बयान पर जनता बहुत विश्वास भी नहीं करने लगेगी. जनता जानती है कि नेताओं के चेहरे भले अलग हों, पर उनके चाल-चरित्र में बहुत फर्क नहीं है. कुछ अपवाद हो सकते हैं. इनके बारे में धारणा तो यही है कि जब इन नेताओं के हित की बात होगी, अपना वेतन बढ़ाना होगा, सुविधा बढ़ानी होगी भत्ता बढ़ाना होगा या फिर सांसद/विधायक फंड बढ़ाना होगा, सब एक हो जायेंगे. अगर सच में अध्यादेश वापस हो गया (जिसकी संभावना अधिक है), तो देश में यही संदेश जायेगा कि भारतीय राजनीति बदलाव की ओर बढ़ रही है.