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सपने, संघर्ष और चुनौतियां 2 : चले थे अकेले कारवां बनता गया

-हरिवंश- हम और हमारे साथ अनेक साथी युवा दिनों में प्रभात खबर से बंधे. माओ की सांस्कृतिक क्रांति के नारे ने भी हमारी पीढ़ी पर असर डाला. हालांकि बाद में चीनी समाज के साहित्य को पढ़ते हुए हमने पाया कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान माओ का यह नारा हजारों फूलों को एक साथ खिलने दो, […]

-हरिवंश-

हम और हमारे साथ अनेक साथी युवा दिनों में प्रभात खबर से बंधे. माओ की सांस्कृतिक क्रांति के नारे ने भी हमारी पीढ़ी पर असर डाला. हालांकि बाद में चीनी समाज के साहित्य को पढ़ते हुए हमने पाया कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान माओ का यह नारा हजारों फूलों को एक साथ खिलने दो, अपनी निजी गद्दी मजबूत करने के लिए, अपने कद के बराबर या समकक्ष प्रतिभाशाली नेताओं को अपने रास्ते से हटाने के लिए था.

यह खुले और बंद समाज का भी फर्क है. खुले समाज में निजी जड़ें मजबूत करने के लिए, सार्वजनिक जीवन में लोक-लुभावन नारे देकर बच निकलना कठिन है. पर विचार के आधार पर, प्रेरणा के आधार पर, हजारों फूलों (प्रतिभाओं) को एक साथ खिलने दो, क्रांतिकारी अवधारणा है. हजारों-हजार प्रतिभाएं साथ निखरें, तो कोई भी संस्था-समाज या देश बढ़ेगा. प्रभात खबर में भी यह जरूरी है कि अनेक युवा प्रतिभाएं एक साथ, कई क्षेत्रों में उभरें, ताकि संस्था मजबूत हो.

विचार और आचरण में प्रतिस्पर्धियों से काफी अलग
एक संतोष की बात बताऊं . 2000 में जब बड़े घरानों ने प्रभात खबर को बंद कराने की साजिश रची, तब कुछेक लोग थे, जो किसी कीमत पर प्रभात खबर से नहीं डिगे. आज प्रभात खबर (सभी संस्करणों को मिला कर) में सैकड़ों हैं, जो बड़े घरानों के लगातार लुभावने प्रस्तावों को ठुकरा कर यहां हैं. वह कहावत है न कि चले थे अकेले, कारवां बनता गया. बड़े घरानों के शीर्ष लोग, हमारे ऐसे साथियों के घर जा कर, महीनों-वर्षों उन्हें चेज (पीछा) कर, अपने साथ मिलाने की कोशिश करते रहे हैं. कर रहे हैं. अपरोक्ष यह धमकी भी देते हैं कि आपके सब लोगों को हम उठा ले जायेंगे, तब आप क्या करेंगे?

पूंजी की गरमी? यह उन्हें कौन बताये कि गुजरे दस वर्षों में वे सैंकड़ों से अधिक लोगों को तोड़ ले गये. एक-एक कर, फिर भी प्रभात खबर उनके लिए चुनौती बना ही हुआ है. हम छोटे हैं, सीमित संसाधन के हैं, पर गरिमा, मर्यादा, विचार और आचरण में अपने प्रतिस्पर्धियों से अलग हैं. इन स्पर्धी अखबारों का कोई व्यक्ति शायद ही कहे कि आज तक मैंने किसी अखबार में किसी को अचानक तोड़ने या समूह तोड़ कर साजिश के तहत उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश की या किसी को फोन किया, घर गया, तिकड़म रचा, अंगरेजी में कहें, तो बिलो द बेल्ट (कमर के नीचे चोट पहुंचाना) हिट किया, ताकि प्रतिस्पर्धी अखबारों को नुकसान हो. ऐसा भी नहीं है कि यह कर नहीं सकता था.

ऐसी स्थिति या पद पर हूं कि कर सकता हूं. यह भी नहीं है कि किसी को उपकृत करने के लिए हमने यह आचरण किया. यह जन्मजात संस्कार है. निजी आत्मगरिमा है. स्वनिर्धारित सीमा के विपरीत आचरण कर (किन्हीं भी परिस्थितियों में) हमें लगता है कि हम अपने स्तर से फिसल रहे हैं. गिरे हैं. हर इनसान का एक स्तर होता है. निजी डिगनिटी होती है. स्वत: बनायी या इवाल्व की हुई. इस गलाकाट प्रतियोगिता के पूरे दशक में हमने आज तक अपनी गरिमा या लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं किया. क्या यह कम संतोष की बात है? इस आचरण या फिसलन के लिए बाहर से सर्टिफिकेट नहीं चाहिए. इस रास्ते पर चलने पर दुनिया को बाद में पता चलता है, आपके अंदर से पहली आवाज आती-उठती है. यदि अपनी आवाज सुनना आपने बंद नहीं किया हो. लोभ के इस युग में जहां कुछेक लोग अपने जीवन के उर्वर दिनों में, संघर्ष और तप के दिनों में, पग-पग पर अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के दिनों में साथ हैं, यह क्या कम सुख की बात है?

निराशा के वे पुराने क्षण
आज 2010 का अंत है. सोच रहा था कि क्या प्रभात खबर में गुजारे संघर्ष के, तप के, निराशा के वे पुराने क्षण एक पल भी वापस मिल सकते हैं? तब हम साथियों को प्रभात खबर के अलावा कुछ सूझता नहीं था. न घर, न परिवार, न भविष्य की सुरक्षा, एक जुनून था, क्या वह लौट सकता है? मकसद था, संस्था बचाना-बढ़ाना. एक जिद. इस जिद के पीछे कोई आर्थिक आग्रह था? निजी-स्वार्थ लोभ था? यह होता तो हम सब फेंस (सीमा) के उस पार होते. औरों की तरह बड़े महानगरों-बड़े प्रकाशनों में. सुख-सुविधा के संसार में क्या इस रास्ते पर चलने के लिए आज हम उभरती संस्था में कोई युवा टीम न उभरने दें? तब उन युवा साथियों के लिए भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने का काम कौन करेगा? वरिष्ठ होने के कारण हम हीं न ! आज प्रभात खबर में ऐसे सैकड़ों लोग हैं, जो प्रतिस्पर्धी बड़े अखबारों से अधिक पैसा, महत्वपूर्ण पद और भौतिक सुख ठुकरा कर टिके हैं.
आप सही हैं, तो मददगार मिलते हैं
मेरी गुजारिश है, नये वर्ष में कामना है कि किसी भी सूरत में न डिगनेवाले ऐसे लोगों की यह संख्या इस संस्था में अब सैकड़ों से बढ़ कर, कई सौ में तब्दील हो. यह कौन करेगा? आप युवा टीम ही न. अब आप नयी लकीर खींचें, हर आदमी अपने आसपास से चाहे जिस भी क्षेत्र में हो (संपादकीय, विज्ञापन, प्रसार वगैरह) अपने तहत की प्रतिभाओं को अवसर दे. उन्हें योग्य लीडर के रूप में विकसित करे. फिर ऐसा रास्ता हम आपके लिए ऊ पर से ही बना रहे हैं. हम उन साथियों को भी आज विशेष याद करना चाहेंगे, जो सीधे या नियमित प्रभात खबर से जुड़े नहीं रहें, पर हमारे संघर्ष के दिनों में उनकी निर्णायक मदद रही. हमारा अस्तित्व बचाये रखने-बढ़ाने में. हम उनके भी ऋणी हैं, जो लंबे समय तक साथ रहे, पर आज कहीं और हैं. कुछेक को अच्छे अवसर मिले, तो हमने उन्हें जाने के लिए प्रोत्साहित किया. नयी शुरुआत के लिए. बाहर से, अंदर से, साथ रह कर फैसल अनुराग, दयामनी बारला और वासवी वगैरह ने इसे बनाने-बचाने में जो मदद की थी, वह बता नहीं सकता. अगर आप सही रास्ते हैं, तो मददगार मिलते हैं.

नारायण मूर्ति ने हमेशा प्रेरित किया
जो पुराने साथी हैं, उन्हें याद होगा. पहले फर्स्ट फ्लोर खुला था. बाद में एसबेस्टस की छत बनी. उसी छत पर खुले आसमान के नीचे हम बैठते थे. सामूहिक रूप से. प्रभात खबर के सभी लोग. अपनी चुनौतियों और कठिनाइयों पर बोलने-बतियाने-संवाद करने, फिर रणनीति बनाने. घर के सुख-दुख बांटने और भविष्य के लिए रास्ता बनाने जैसे. तब से मैं अपनी बातों में इंफोसिस के नारायण मूर्ति का उल्लेख करता रहा हूं. उस व्यक्ति ने हमें प्रेरित किया है. किस तरह कुछेक लोगों ने पत्नियों के गहने गिरवी रख कर 10-20 हजार से कंपनी शुरू की. हर विपरीत स्थिति देखी-झेली. तब इंफोसिस दुनिया की इतनी प्रतिष्ठित, सम्मानित व बड़ी कंपनी बनी. हम सफलता देखते हैं, उसकी बा‘ह्य काया परखते हैं, पर उसके पीछे का तपना, जलना और आत्माहुति नहीं जानते. जब इंफोसिस कंपनी संपन्न हुई, तब अपने यहां काम करनेवालों को हिस्सा या स्टॉक ऑप्शन देकर अपने यहां कार्यरत पुराने लोगों को करोड़पति-अरबपति बनाया. प्रभात खबर में जब हमने शुरुआत की, तब 240 लोग थे. और कुल वेतन ढाई लाख के लगभग. आज प्रति माह वेतन पर लगभग दो करोड़ प्रभात खबर में औसत खर्च है. अभी कुछेक रोज पहले खूंटी के एजेंट आये थे. 25 वर्षों से प्रभात खबर बेचने का ही काम कर रहे हैं. साधु इनसान हैं. बता रहे थे कि आज वहां एक-एक हॉकर 12 से 16 हजार प्रभात खबर बेच कर कमा रहा है प्रतिमाह. प्रभात खबर की सामाजिक भूमिका (जो मुख्य चीज है) छोड़ दीजिए, तो भौतिक रूप से भी, अपना काम करते हुए प्रभात खबर ने हमारे जीवन में यह असर डाला है.

इंफोसिस ने नयी लकीर खींची
आनंद बाजार पत्रिका छोड़ कर कुछेक हजार की नौकरी पर यहां आया. कंपनी द्वारा दी गयी थर्ड हैंड मारुति वैन + किराये का घर, यही तब पाता था. आज प्रभात खबर में वरिष्ठ होने के कारण सबसे अधिक तनख्वाह मैं पा रहा हूं. इससे काफी अधिक के प्रस्ताव भी आये. पर मन के अनुरूप काम और ठीक-ठाक वेतन सुविधाएं, इसका संयोग कहीं और नहीं पाया. इसलिए हमने यहां काम करना चुना. इस गरीब इलाके में पत्रकारिता करने की प्रेरणा हमें यहां खींच लायी. ऐसा ही काम बड़े पैमाने पर इंफोसिस में हुआ. ईमानदार तरीके से. भारतीय परंपरा में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चार लक्ष्य हैं. अर्थ का नकार नहीं है. पर अर्थ ईमानदारी से, श्रम से, किसी से याचना या हाथ पसार कर नहीं. घूस या ब्लैकमेल से नहीं. इस रास्ते चल कर इंफोसिस ने नयी लकीर खींची है. नये युग की कई कंपनियां ऐसा कर रही हैं. आज जो युवा कैंपस से ही लाखों-करोड़ों की तनख्वाह पर जा रहे हैं, वे ईमानदारी से खट कर उपार्जन कर रहे हैं. यह अलग बात है कि इतने उपार्जन के बावजूद वह जीवन नहीं जी पा रहे, क्योंकि कंपनियां उन्हें 20-22 घंटे काम करा कर निचोड़ लेती हैं. बहरहाल, हम बात कर रहे थे कि कैसे 1989 में स्थापित एक कंपनी को एक इनसान नारायण मूर्ति ने उसूलों-सिद्धांतों पर खड़ा किया. टीम के बल ही, अकेले नहीं. उस कंपनी पर एक पुस्तक आयी है, ‘लीडरशीप इंफोसिस’. संपादित मैट बार्ने, पीएच-डी द्वारा. उसकी भूमिका की कुछ चीजें आपको सुनाता हूं.

गलतियों से तुरंत सबक लिया
यह पृष्ठभूमि याद रखिए कि नारायण मूर्ति कंपनी के एमडी पद से हटे. अपने साथियों को मौका दिया. अब एक-एक कर वहां नये-नये लोग नये सक्षम लीडर के रूप में सामने आ रहे हैं. कंपनी को संभाल रहे हैं. आगे ले जा रहे हैं. इस पुस्तक की भूमिका में नारायण मूर्ति कहते हैं कि इंफोसिस की रहनुमाई हमारे जीवन का काम (लाइफ वर्क) है. शुरू में, हमारे अंदर सपने थे. साझा मूल्य थे, हम एक-दूसरे के पूरक थे. हुनर, काम वगैरह में कंपनी के बड़े हितों या उसके लाभ के लिए हमने निजी हितों की कुरबानी दी. हमने मिल कर वे चीजें हासिल कीं, जो हम अलग-अलग रह कर अकेले नहीं कर पाते. इस दशक में अपनी ‘लीडरशीप टीम’के बल हमने लगातार अपनी कंपनी को बदला. सिर्फ 11 वर्ष पहले 1999 में इंफोसिस में कुल 3000 इंप्लाइज थे. अब लगभग 1.22 लाख से अधिक हैं. नारायण मूर्ति कहते हैं कि हम हर समय बिल्कुल सही ही नहीं रहे, पर जब-जब कोई गलती हुई, तुरंत सबक लेकर हम पुन: और ऊर्जा के साथ सही राह पर लौटे. हमें कंपनी को अगर 200 वर्षों तक बनाये रखने का विजन (दृष्टि) विकसित करना है, तो इसके लिए प्रभावी नेतृत्व चाहिए, हर स्तर पर. लीडरशिप का अर्थ है कि कंपनी की जरूरतें-सपने पहले, निजी चीजें बाद में. वह आगे बताते हैं कि हमने हमेशा वह भूमिका निभायी, जिसकी कंपनी को जरूरत थी, तब हमने कंपनी के बड़े और सार्वजनिक हित के हक में निजी पसंद-नापंसद को पीछे रखा.

भविष्य आपके हाथ में है
कुछेक पंक्तियां ही मैंने उक्त पुस्तक की भूमिका से आपको सुनायी. कितनी प्रेरक हैं. सफल होने का राज बताती हैं ये लाइनें. आज आप पूछिए कि हम जिस कंपनी में हैं, उसका भविष्य क्या है? शायद इसका कोई उत्तर न दे पाये. 1991 के बाद बार-बार आपके बीच यह बात दोहराता रहा हूं कि भविष्य आपके-हमारे हाथों में है. तब 91 में भी यह सवाल हम साथी आपस में करते थे.1991 में जब समाचार उद्योग के एक एक्सपर्ट ने प्रभात खबर के भविष्य पर अपनी रपट दी, तब से यह बात मैं सारे कलिग्स (सहयोगियों) को सार्वजनिक बैठक में बताता रहा हूं. कोई दूसरी कंपनी होती, तो यह रिपोर्ट कानफिडेंशियल (गोपनीय) रहती. पर तब से ही साथ में यह भी दोहराता रहा हूं कि कंपनी का भविष्य आपके-हमारे हाथों में है. हम अपनी तय भूमिका अच्छी तरह निभाएंगे, तो आगे जायेंगे. कोई टाटा, बिड़ला, अंबानी हमारे लिए कुबेर का खजाना या दरवाजा खोल दे, पर हमारे अंदर टीम स्पिरिट, दृष्टि, अनुशासन नहीं, तो हम डुबो देंगे. बड़े-बड़े घरानों के दर्जनों उदाहरण दे कर मैं आपको यह बता सकता हूं. पर देखिए कि एक विजन, सपने और स्वअनुशासन से इंफोसिस ने क्या किया? हमें यही माडल दीर्घजीवी बना सकता है. जो जहां है, अपने-अपने स्तर पर अपनी भूमिका का सही निष्पादन करे. अखबार के हित में, कंपनी के हक में. हम सबने मिल कर प्रभात खबर में शुरू से एक भिन्न संस्कृति अपनायी.
एक स्वभाव है बिहारी मानस
शुरू से ही प्रभात खबर में एक अलग कार्यसंस्कृति विकसित करने की कोशिश हुई. हरेक बैठक में विशेष रूप से मैं इसकी चर्चा करता रहा कि टिपिकल बिहारी मानस से उबरना होगा. बिहारी मानस एक विशेषण के तौर पर देखता हूं. यह एक प्रवृत्ति है. स्वभाव है. यह कहीं भी हो सकता है, पर हिंदी इलाकों में यह स्वभाव या रुझान या यह प्रवृति आमतौर से है. उसके अपवाद भी बहुत मिलते हैं. मेरी नजर में बिहारी मानस क्या है? हिंदी राज्यों में परनिंदा, परचर्चा जीवन का अंग है. परमसुख गप्पें मारना, पीठ पीछे दूसरों की शिकायत करना, किसी अच्छे काम को गौर कर प्रशंसा न करना. कोई अच्छा करे, तो उसे तबाह-बदनाम करने में लगना. हर बात और काम में निगेटिव एप्रोच. ये हमारी आदतें हैं. हमने कोशिश की कि मेरे पास कोई दूसरे की शिकायत लेकर न आये. अगर कोई शिकायत है, तो जिसके संबंध में शिकायत है, जब तक वह मौजूद न हो, तब तक उसकी चर्चा नहीं हो. जिसके खिलाफ शिकायत है, उसके सामने बात हो. इसका परिणाम हुआ कि मेरे पास कोई अनर्गल बात या किसी की शिकायत लेकर नहीं आता. हमलोगों ने यह माहौल बनाने की कोशिश की कि दफ्तरों में पीठ पीछे रस लेकर अनर्गल चर्चाएं होती हैं, उन्हें कम-से-कम वरिष्ठ लेवल पर इंटरटेन न किया जाये. यह खत्म होना असंभव है, क्योंकि यह हमारी रगों में है. स्वभाव का हिस्सा है. फिर भी हम यह मान सकते हैं कि प्रभात खबर में हमलोगों ने इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने की कोशिश की. इसी कारण कई बार प्रभात खबर के अंदर की चीजें मुझे बाहर से पता चलती हैं. उसे आप मेरी कमी कह सकते हैं. आधुनिक प्रबंधन शैली भी इसे सही नहीं ठहराता, पर यहां मेरे कारण यह कमी है.
जारी, अगली किस्त कल पढ़ें…

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