पाक में भी जिंदा हैं बापू की यादें
– हुसैनकच्छी – भारत सरस्वती मंदिर की आधारशिला गांधी जी ने रखी थी कराची के एक सफर में एक दिन बाबा–ए–उर्दू रोड पर कायम अंजुमन तरक्की–ए–उर्दू पाकिस्तान का दफ्तर और उसकी लाइब्रेरी देखने गया. बाउंड्री गेट से गुजरने पर सामने बाबा–ए–उर्दू मौलवी अब्दुल हक की मजार है. वहां फातिहा पढ़ कर मुख्य इमारत की तरफ […]
– हुसैनकच्छी –
भारत सरस्वती मंदिर की आधारशिला गांधी जी ने रखी थी
कराची के एक सफर में एक दिन बाबा–ए–उर्दू रोड पर कायम अंजुमन तरक्की–ए–उर्दू पाकिस्तान का दफ्तर और उसकी लाइब्रेरी देखने गया. बाउंड्री गेट से गुजरने पर सामने बाबा–ए–उर्दू मौलवी अब्दुल हक की मजार है.
वहां फातिहा पढ़ कर मुख्य इमारत की तरफ बढ़ गया. यह एक पुरानी तर्ज की इमारत है. सीढ़ियों तक पहुंचा ही था कि एक दीवार के सहारे रखी हुई संगमरमर की एक तख्ती पर नजर पड़ी, जिस पर खुदाई करके लिखा हुआ था –
‘श्री भारत सरस्वती मंदिर’
की यह आधारशिला पू. महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के पवित्र कर कमलों द्वारा स्थापित मिति : चैत्र शुक्ल 20 स 1986..
गांधीजी ने इमारत की बुनियाद अपने हाथों से रखी थी. इस इमारत को तालीम का मंदिर बनना था. मैंने अपने कैमरे में कुछ तसवीरें उतार लीं, इस दौरान वहां के चौकीदार से मुलाकात हो गयी. उसने अपना नाम शायद खान वली बताया और कहा कि आज छुट्टी है इसलिए दफ्तर और लाइब्रेरी बंद है. मैंने उसको बताया कि मैं इंडिया से आया हूं.
इस पर उसने पूछा फिर तुम हिंदी जानता होगा, क्या इस तख्ती पर गांधी के बारे में कुछ लिखा है क्योंकि इस दफ्तर में एक आदमी इंडिया से आकर काम करता था, वह अब रिटायर हो गया है, उसने कहा था कि इसमें गांधी के बारे में कुछ लिखा है. तब ये तख्ती दीवार पर इधर फिट था. किसी ने दीवार से निकाल कर उधर कोने में डाल दिया था.
मेरे को चूंकि उस आदमी की बात याद थी इसीलिए इसको हिफाजत से उधर रखा है. अभी सुना है हुकूमत इस तख्ती को साफ सूफ करके इसका असल जगह पर फिट कराने वाला है, देखो क्या होता है. मैंने खान वाली से यूं ही पूछा, खान साहब आपको इसमें इतनी दिलचस्पी कैसे हो गयी. मेरी बात के जवाब में उसने जो कुछ कहा वह यादगार है, उसकी बातें मेरे जेहन में नक्श हो गयीं और रह रह कर मुङो गुदगुदाती हैं. अब गांधी जयंती के मौके पर आप से शेयर कर रहा हूं.
मैं हैरत से खान वाली को सुन रहा था, ‘देखो भाई, हम सरहदी पठान हैं. सरहद से बाबा खां (खान अब्दुल गफ्फार खां) हमारा रहनुमा होता था, वह बहुत अच्छा आदमी था, जबरदस्त लीडर था जैसे तुम्हारा गांधी इंडिया में था. बाबा खां सारा उम्र अंगरेज से लड़ा. मोटा खाता था, मोटा पहनता था, एकदम आम पठान का माफिक उसको सरहदी गांधी बोलते थे.
हमको मालूम है हमारा सरहदी गांधी और तुम्हारा महात्मा गांधी बहुत दोस्त था. दोनों एक–दूसरे का इज्जत और एहतराम करता था. क्योंकि बाबा खां तुम्हारा गांधी को प्यार करता था और हम बाबा खां का आशिक है, इसलिए इधर तख्ती को हिफाजत से रखा ताकि कोई इसको इधर–उधर नहीं कर दे. भाई हम हिंदी नहीं जानता था, लेकिन अंदाजे से कहता है कि तख्ती में कोई कीमती दस्तावेज है, यह बाइज्जत तरीके से इसका असल जगह फिट हो जावे, तो हमको खुशी होगा.
खान वली ने अचानक मुझसे पूछा ‘ तुमने गांधी को देखा है? नहीं, मेरे यह कहने पर उसने अक्खड़ पठान के अंदाज में मेरी हथेली पर अपना हाथ मारते हुए कहा, ‘हमने सरहदी गांधी को देखा भी है, सुना भी है और इसके साथ खाना भी खाया है. क्या बतावें तुमको वह इतना बड़ा लीडर था मगर हमसे भी कम खाना खाता था, कैसा आदमी था यार, अल्लाह मगफिरत करे. तुम्हारा गांधी का बहुत फोटो हमने देखा है, बिल्कुल सादा अदमी, मोटा कपड़ा बिल्कुल मामूली जिसको देख कर डर नहीं लगता, सुना है उधर दुनिया में उसका बहुत इज्जत एहतराम होता है.
मैंने उसे बताया कि गांधी हमारे राष्ट्रपिता हैं. और साथ राष्ट्रपिता के मायने बताया तो उसने कहा चलो ये भी ठीक है हमलोग सरहदी गांधी को खान बाबा भी बोलता है, बात बराबर है ना? मैंने जब उससे कहा कि बाबा खां को इंडिया की हुकूमत ने अपने घर बुला कर भारत रत्न खिताब से नवाजा, तब खान वली ने जोरदार हाथ मारते हुए कहा कि हमलोगों ने भी युसूफ खां (दिलीप कुमार) को बुला कर निशान–ए–पाकिस्तान से नवाजा, देखो कितना मजेदार बात है कि ये दोनों सरहदी पठान हैं, यहां की बात बराबर है कि नहीं?
खान वली से एक यादगार गुफ्तगू करके मैं यह सोचते हुए बाहर निकला कि गांधी ने जिस इमारत की बुनियाद रखी थी, वह तालीम के लिए वक्फ की हो गयी थी, यह अच्छा हुआ कि बाबा–ए–उर्दू ने हिंदुस्तान से वहां जाकर इसको उर्दू की तरक्की के काम के लिए एलॉट करवा लिया, जिससे यह महसूस होता है कि गांधी जी की मूल भावना एक हद तक महफूज हो गयी, वरना कौन जाने इस ऐतिहासिक इमारत का क्या अंजाम होता.
कहीं पढ़ा सुना है कि गांधीजी दोनों मुल्कों में भाईचारा कायम करने के लिए पाकिस्तान जाकर इसी इमारत में ठहरने वाले थे, मगर 30 जनवरी को उनकी शहादत ने तारीख का रुख ही पलट दिया.