प्रभात विमर्श की पृष्ठभूमि : जनोन्मुखी पत्रकारिता के 27 वर्ष

– हरिवंश – आज (14 अगस्त 2011) प्रभात खबर अपनी स्थापना के 27 वर्ष पूरे कर 28वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है.1984 में, 14 अगस्त को रांची (तब अविभाजित बिहार) से यह निकला. 1989 आते-आते लड़खड़ाने लगा. तब महज 400 प्रतियां बिक रही थीं. अक्तूबर 89 में इसका प्रबंधन संभाला ‘न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस’ ने. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 3, 2015 10:43 AM
– हरिवंश –
आज (14 अगस्त 2011) प्रभात खबर अपनी स्थापना के 27 वर्ष पूरे कर 28वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है.1984 में, 14 अगस्त को रांची (तब अविभाजित बिहार) से यह निकला. 1989 आते-आते लड़खड़ाने लगा. तब महज 400 प्रतियां बिक रही थीं. अक्तूबर 89 में इसका प्रबंधन संभाला ‘न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस’ ने. विपरीत परिस्थितियों में युवा लोगों की टीम ने इसका दायित्व संभाला. नया प्रबंधन.
नये लोगों के हाथ में संपादकीय काम. समाचार प्रबंधन के विशेषज्ञों ने सांगोपांग अध्ययन कर रिपोर्ट दी कि इस अखबार की उम्र कुछेक महीनों से अधिक नहीं. रिपोर्ट, तत्कालीन परिस्थितियों-तथ्यों पर आधारित थी. पूंजी थी ही नहीं, था संकल्प, श्रम और नया करने का हौसला. शेष हर चीज विरोध में थी. न मशीन ठीक-ठाक, न कंपोजिंग व्यवस्था, न बैठने की सही जगह. अनेक स्थापित, जमे और सर्वाधिक प्रसारवाले समाचारपत्र थे.
अखबारों की आय का एकमात्र साधन है, विज्ञापन. और विज्ञापन, आर्थिक विकास का बाइ-प्रोडक्ट है. आर्थिक विकास की दृष्टि से तब भी यह क्षेत्र, राज्य, देश के सबसे पिछड़े इलाकों में था. आज भी है. इस तरह मध्य प्रदेश या राजस्थान वगैरह के मुकाबले विज्ञापन का बाजार यहां काफी कम है. तब भी आर्थिक विकास-विज्ञापन बाजार की दृष्टि से हम अंतिम सीढ़ी पर थे. आज भी हैं.
तब भी प्रभात खबर के पास घोर पूंजी संकट था, आज भी है. तब (1990 और 2000) के दशकों में यहां के स्थापित बहुप्रसारित अनेक अखबारों से प्रभात खबर का मुकाबला था. आज देश के सबसे बड़े और पूंजी की दृष्टि से सबसे संपन्न तीन अखबार घरानों (शेयर बाजार की लिस्टेड कंपनियों से प्रकाशित) से मुकाबला है. अन्य स्पर्द्धी अखबार अलग हैं.
पर आज और तब (1989) में फर्क है. उन दिनों (अक्तूबर1989) 400 प्रतियां बिकती थीं, आज झारखंड-बिहार में प्रभात खबर की रोजाना सात लाख से अधिक प्रतियां बिक रही हैं. झारखंड में रोज चार लाख से अधिक. बिहार में रोजाना तीन लाख से अधिक. तब एक संस्करण (रांची) था. आज नौ जगहों से प्रकाशित हो रहा है. झारखंड में, रांची (1984), जमशेदपुर (1995), धनबाद (1999), देवघर (2004), बिहार में पटना (1996), मुजफ्फरपुर (2010), भागलपुर (2011) और बंगाल में कोलकाता (2000) और सिलीगुड़ी (2006) से प्रकाशित हो रहा है.
तब रांची से रोज सिर्फ एक, शहर संस्करण छपता था. आज नौ जगहों से रोज 50 से अधिक संस्करण छपते हैं. हमने 1989 में यात्रा शुरू की. तब देश में सबसे पीछे थे. अब आइआरएस के अनुसार हिंदी अखबारों में 10 में से आठवें नंबर पर हैं. आइआरएस के अनुसार प्रभात खबर को कुल 57, 78000 पाठक पढ़ते हैं.
इस स्थापना दिवस पर आज रांची में प्रभात खबर ने एक आयोजन किया है, क्षेत्रीय पत्रकारिता पर राष्ट्रीय विमर्श. प्रभात विमर्श के तहत आयोजित इस कार्यक्रम में विभिन्न भारतीय भाषाओं के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार भाग लेंगे. बांग्ला, उर्दू, मराठी, गुजराती, हिंदी और अंगरेजी के जाने-माने पत्रकार.
देश के अलग-अलग हिस्सों से. गोष्ठी के विषय पर परामर्श के दौरान आरंभिक आइडिया अंगरेजी में आया ‘ रीइन्वेंटिंग रीजनल जर्नलिज्म’. आज देश में टॉप 10 भाषाई अखबारों में से नौ क्षेत्रीय अखबार हैं.
अंगरेजी का इस समूह में सिर्फ एक अखबार है. टॉप नौ क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों के पाठक हैं करोड़ों में. टॉप 10 में से एक अंगरेजी अखबार के महज कुछ लाख पाठक हैं.
इस तरह अंगरेजी अखबारों के पाठक देश की धड़कन, मिट्टी और जड़ से दूर हैं. पर नीति बनानेवाले या शासक वर्ग (रूलिंग इलीट) इन्हीं अंगरेजी अखबारों से प्रभावित हैं. यह क्षेत्रीय अखबारों के लिए बड़ी चुनौती है. क्षेत्रीय अखबार प्रसार-प्रभाव में कई गुना आगे, पर शासक वर्गों में सिमटे अंगरेजी अखबारों का विज्ञापन बाजार में वर्चस्व! दिल्ली-मुंबई से प्रकाशित अंगरेजी अखबार, राष्ट्रीय अखबार कहलाते हैं, पर उनसे कई गुना अधिक रोज बिक कर भाषाई अखबार क्षेत्रीय कहे जाते हैं. ये सवाल तो हैं, ही. पर सबसे बड़ा सवाल है कि बाजार की पूंजी ने कैसे पत्रकारिता का चरित्र और मर्म बदला है? राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों स्तर पर.
1991 के पहले अखबार व्यवसाय निजी उपक्रम-उद्यमिता थे. निजी पूंजी जुगाड़ कर या बड़े शहरों में अखबारों के नाम (तब जमीन आवंटित होते थे) सरकारी प्लॉट आवंटित करा कर, उस पर बड़ा भवन बना कर किराये के आमद या कागज कंट्रोल के जमाने में कागज खुले बाजार में बेच कर आमद के आरोप के बीच अखबार निकलते थे. तब प्रेस ‘जूट प्रेस’ भी कहे गये. क्योंकि जूट मिलों के मालिक अपनी वहां की आमद लगा कर अखबार निकालते थे.
तब भी ‘अखबार ‘ उद्योग (बड़े अखबारों को छोड़ कर) आमतौर पर मुनाफे के उद्योग नहीं माने जाते थे. पर तब अखबारों-पत्रकारों की एक अलग पहचान-नैतिक आभा थी. तब भी अखबारों का समाज-राजनीति पर असर माना जाता था. इस ‘असर ‘ के कारण घाटा उठा कर या अन्य उद्योगों से पूंजी कमा कर उद्यमी अखबारों में लगाते थे. माना जाता था कि उद्यमी घाटे पर अखबार निकाल कर उसके ‘महत्व ‘ से अप्रत्यक्ष लाभ लेते थे.
91 के बाद अर्थव्यवस्था खुल गयी. लाइसेंस, कोटा और परमिट पर सरकारी वर्चस्व खत्म हो गया. इसलिए घाटे पर अखबार निकाल कर अन्य उद्योगों में लाभ लेने का मिथक भी कमजोर या अप्रभावी हो गया. इस तरह अखबार अब शुद्ध व्यवसाय है. इसे चलाने के लिए, खुद अर्जित करना ही पड़ेगा. कुछेक बड़े अखबारों को छोड़ कर (जिनकी मोनोपोली है प्रसार में, विज्ञापन बाजार में), अन्य अखबारों के पक्ष में ‘ अखबारी अर्थव्यवस्था’ का मौजूदा गणित है ही नहीं. इसलिए अखबार चलाने के लिए आपको बाजार से पूंजी लेनी ही होगी. वह पूंजी आती है, विदेशी निवेश (एफडीआइ), इक्विटी या शेयर बाजार से.
पूंजी मुफ्त तो आती नहीं. बड़ी पूंजी आयेगी, बड़ा सूद भी देय होगा. आज अमेरिका की क्या हालत हो गयी है या 1991 में भारत की क्या स्थिति थी? सूद देने के भी पैसे नहीं थे. कंगाली के कगार पर. उधर पाठकों को मुफ्त अखबार चाहिए. याद रखिए एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपये है. हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग. पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए. कहा भी जा रहा है कि अखबार उद्योग पाठकों को पढ़ने का पैसा दे रहे हैं.
इस पर समाज की मांग कि सात्विक अखबार निकले, पवित्र पत्रकारिता हो. अखबार उपभोक्तावादी समाज, गिफ्ट के लोभी और मुफ्त अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना? क्या इन अंतरविरोधी चीजों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए. पाठकों और समाज को इस दोहरे चिंतन पर नहीं सोचना चाहिए. साधन यानी पूंजी पवित्रता से आयेगी, बिना दबाव बनाये या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी पत्रकारिता भी पवित्र होगी. साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता संभव है?
आज अखबार बड़ा व्यवसाय-उद्योग हो गया है. एक ही समूह 70-80 संस्करण निकाल रहे हैं. उनका ही आधिपत्य मीडिया के अन्य अंगों, टीवी, इंटरनेट व एफएम रेडियो पर हो, यह कोशिश है. एक ही समूह हिंदी, अंगरेजी या अन्य भाषाओं में प्रकाशन कर अपना आधिपत्य-मोनोपोली कायम कर ले, यह सपना है. खुले बाजार में यह अस्वाभाविक भी नहीं है.
इंदिरा गांधी ने ‘लाइसेंस, कोटा और परमिट राज में’ इसी प्रवृत्ति को रोकने के लिए एमआरटीपी एक्ट लगाया था. किसी घराने की एक जगह मोनोपोली कायम न हो, इसके लिए. आज मीडिया के हालात देख कर या 91 में कॉरपोरेट जगत में जो हो रहा है (भ्रष्टाचारों को देख कर), उसे देख कर इस ‘मोनोपोली रिसट्रिक्शन’ (एकाधिकार पर नियंत्रण) की बात याद आती है.
अखबार मालिकों की भी मजबूरी है. खुली अर्थव्यवस्था-बाजार में कोई उद्यमी, अपने कमजोर प्रतिस्पर्द्धी को अपनी पूंजी के बल मार कर, मिटा कर या खत्म कर आगे बढ़ता है, यह अस्वाभाविक नहीं है. डार्विन की मान्यता यहां लागू होती है.
बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. पर एक व्यवस्थित समाज में क्या यह खेल रेगुलेट (नियंत्रित) होना चाहिए या नहीं? ऐसे सारे सवाल आज पत्रकारिता और समाज के असल सवाल हैं. यह द्वंद्व प्रभात खबर का तो है ही, साथ में मीडिया उद्योग का भी है. अन्य संस्थाएं ये अप्रिय सवाल नहीं उठातीं, पर प्रभात खबर अपनी निजी, घरेलू और कथित ‘गोपनीय’ चीजें भी अपने सहकर्मियों, एजेंटों, हॉकरों, पाठकों से शेयर करता है. इसी भाव के तहत आज रांची में क्षेत्रीय पत्रकारिता पर ‘प्रभात विमर्श’ आयोजित है.
दिल्ली के बड़े मानिंद और नैतिक प्रतिमान के प्रतीक पत्रकारों से भी इसी प्रसंग पर हमने बात करायी है. यह बातचीत भी रांची संस्करण में अलग परिशिष्ट में छपी है. प्रभात खबर (रांची छोड़ कर) के अन्य संस्करणों के पाठकों के लिए यह बातचीत इंटरनेट साइट पर उपलब्ध है.
इस विमर्श का मकसद पत्रकारिता की अंदरूनी चुनौतियों से पाठकों-समाज को रू-ब-रू कराना है. यह भी कोशिश है कि व्यापक विमर्श से समाज, व्यवस्था इन चुनौतियों के हल ढूंढ़ने की सार्थक पहल करें.
जो अखबार बड़े बन रहे हैं या बड़े बनने की होड़ में हैं, उनकी मजबूरी है. शेयर बाजार से पैसा चाहिए, तो शेयरधारकों को बड़ा रिटर्न चाहिए. विदेशी पूंजी लानी है या इक्विटी है, तो उसका रिटर्न भी चाहिए. ऐसी स्थिति में ‘प्राफिट मैक्सीमाइजेशन’ (अधिकतम मुनाफा) का सिद्धांत, विवशता और मजबूरी है. इस तरह जो पत्रकारिता पूंजी की चेरी होगी, वह पूंजी के कुप्रभावों और बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे लड़ेगी?
इस तरह मीडिया हाउस में होड़ है कि अधिकाधिक विज्ञापन कौन लाये. क्योंकि विज्ञापन से ही भारी सरकुलेशन घाटा पूरा होना है. पाठकों के लिए ‘गिफ्ट’ और मुफ्त अखबार भी.
साथ में सुरसा की तरह बढ़ते कागज खर्च और अनियंत्रित बढ़ते वेतन-सुविधाओं की भरपाई होनी है. वैसे तो राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए कि सरकारी, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में चपरासी से लेकर राष्ट्रपति या सीइओ के बीच निश्चित अनुपात में ही वेतन सुविधाएं हों. ’60-70′ के दशकों में यह मांग होती थी कि एक और 10 या एक और अधिकतम 30 तक के अनुपात में हो, न्यूनतम व अधिकतम वेतन के बीच एक तार्किक रिश्ता हो.
हर वेतन को सीधे उत्पादकता से जोड़ कर देखा जाये. एक किसान को उत्पादकता के एवज में क्या मिलता है? अर्थव्यवस्था से जुड़े ऐसे अनेक मौलिक और बुनियादी सवाल हैं, जो पूंजी पोषित पत्रकारिता नहीं उठा सकती? वैसे भी यह महज पत्रकारिता से जुड़ा प्रश्न है भी नहीं.
पूरी अर्थव्यवस्था से जुड़ा सवाल है. उदारीकरण के दौर में तो अब ऐसे सवाल उठते ही नहीं. इस दौर में बड़े मीडिया घरानों की नजर है, विज्ञापन बाजार पर. 2010 में यह विज्ञापन बाजार 64000 करोड़ का था. प्राइसवाटर कूपर की ताजा रपट के अनुसार 2015 तक भारत का ‘इंटरटेनमेंट और मीडिया सेक्टर’ सालाना 13.2 फीसदी की दर से बढ़ेगा. 2015 तक यह बाजार 1.19 ट्रिलियन (11.9 खरब) रुपये का होगा.
मीडिया घरानों में होड़ है कि इस बाजार पर आधिपत्य किसका होगा? बड़े अखबारों का एकाधिकार नहीं रुका, तो इस पूंजी पर कुछेक घरानों का आधिपत्य होगा? उस लोकतंत्र का फर्ज कीजिए, जिसमें कुछेक मीडिया घराने ही होंगे. वे जो चाहें, पढ़ायेंगे. पहले छोटे-छोटे अखबार पत्र-पत्रिकाएं थीं. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुदलीय आवाज थी. अब वह आवाज कम या बंद हो रही है. क्या लोकतंत्र के लिए यह शुभ है? प्रभात विमर्श के तहत ऐसे सवालों को भी सार्वजनिक बहस में लाना है!
दिनांक 14.08.2011

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