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डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जयंती पर विशेष : जिन्हें जन्म दे बनी सपूती शस्य-श्यामला भारतमाता

विनय कुमार सिंह महापुरुषों की चरित्रगत विशेषताओं पर संस्कृत का एक श्लोक सुभाषित सुंदर प्रकाश डालता है – ‘विपतिधैर्य मथाभ्युदये क्षमा /सदसि वाक्पटुता युधि विक्रम: /यशसि चाभिरुचिव्र्यसनं श्रुतौ/ प्रकृतिसिद्धमिदं महात्मनाम्.’ अर्थात विपति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश प्रदान करनेवाले सत्कर्मो में स्वाभाविक, अभिरुचि एवं वेद-शास्त्रदि के स्वाध्याय में […]

विनय कुमार सिंह
महापुरुषों की चरित्रगत विशेषताओं पर संस्कृत का एक श्लोक सुभाषित सुंदर प्रकाश डालता है – ‘विपतिधैर्य मथाभ्युदये क्षमा /सदसि वाक्पटुता युधि विक्रम: /यशसि चाभिरुचिव्र्यसनं श्रुतौ/ प्रकृतिसिद्धमिदं महात्मनाम्.’ अर्थात विपति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश प्रदान करनेवाले सत्कर्मो में स्वाभाविक, अभिरुचि एवं वेद-शास्त्रदि के स्वाध्याय में व्यसन – ये सब महात्माओं के प्रकृतिसिद्ध गुणधर्म हैं.
अमर शहीद डॉ श्यामा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे ही दिव्य गुणों से परिपूर्ण महामानव रहे. उन्होंने जीवन र्पयत देश सेवा की. स्वतंत्र भारत की संसद के प्रथम नेता-प्रतिपक्ष के रूप में अपने अकाट्य तर्को एवं प्रमाणों से सत्तापक्ष को सदैव रक्षात्मक होने पर विवश किया. न्याय व धर्म-संस्कृति की रक्षा एवं उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील रहे. राष्ट्र की एकता-अखंडता के लिए सिंह के समान संघर्ष करते हुए प्राणोत्सर्ग कर ‘नरकेसरी ’ कहलाने के गौरव से अलंकृत हुए.
6 जुलाई 1901 को कलकत्ते के भवानीपुर में जन्मे श्यामा प्रसाद े ‘बंगाल टाइगर’ नाम से ख्यातिलब्ध पिता सर आशुतोष मुखर्जी एवं धर्म-परायणा माता योगमाया देवी के यशस्वी पुत्र थे. बाल्यकाल से ही अप्रतिम मेधावी छात्र के रूप में वे मैट्रिक, बीए (अंगरेजी-ऑनर्स), एमए एवं बीएल सभी परीक्षाओं में वे सर्वप्रथम रहे. इंगलैंड जाकर उन्होंने बैरिस्टरी की पढ़ाई भी पूरी की.
कलकत्ता एवं काशी हिंदू विश्व विद्यालयों में उन्हें क्रमश: डी लिट् एवं एलएलडी की उपाधि देकर सम्मानित किया. उन्होंने मात्र 33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति का दायित्व ग्रहण किया और चार सालों तक इस पद पर रहे. 1930 के दशक में स्वाधीनता की कसमसाहट भरे राष्ट्रीय वातावरण ने उनको राजनीति के माध्यम से राष्ट्रसेवा को प्रेरित किया.
1929 में वे विश्वविद्यालय क्षेत्र से ही बंगाल विधानसभा के लिए चुने गये थे. 1937 तथा 1946 में भी वे इस पद पर निर्वाचित हुए. उस समय बंगाल में मुसलिम लीग के उग्र सांप्रदायिक एवं विभाजनकारी तेवर तथा कांग्रेस की लीग के समक्ष समर्पण नीति से वे काफी व्यथित रहे. इसी दौरान वे वीर सावरकर के संपर्क में आकर हिंदू महासभा में शामिल हो गये तथा 1944 में इसके अखिल भारतीय सभापति बने. 1941-42 के दौरान वे बंगाल के वित्तमंत्री भी रहे.
1946-47 में भारत-विभाजन योजना के अंतर्गत पूरा बंगाल, पूरा पंजाब एवं असम का बड़ा भाग पाकिस्तान को मिलनेवाला था, लेकिन डॉ मुखर्जी ने सीमांकन में लगे सर रैडक्लिफ के सामने अपार नीति-निपुणता का परिचय देकर आधा बंगाल, आधा पंजाब तथा असम को भारत में बचा लिया.
स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार में वे हिंदू महासभा में रहते हुए भी, उद्योग मंत्री बनाये गये. वे एक योग्य मंत्री साबित हुए. लेकिन प्रधानमंत्री पं नेहरू की मुसलिम तुष्टीकरण एवं नेहरू-लियाकत समझौते से विक्षुब्ध होकर मंत्रिमंडल से 1950 में बाहर चले आये. 21 अक्तूबर 1951 को उन्होंने आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक मा स गोलवलकर जी से परामर्श कर भारतीय जनसंघ की स्थापना की.
1952 के प्रथम आम चुनाव में वे कलकत्ता-दक्षिण से लोकसभा में पहुंचे एवं प्रतिपक्ष की बुलंद आवाज बने. 11 मई 1953 को वे ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान’ के प्रचलन के विरोध में ‘परमिट प्रणाली’ तोड़ते हुए कश्मीर राज्य में प्रविष्ट हुए, जहां वे गिरफ्तार हो श्रीनगर के सेंट्रल जेल में रखे गये.
वहां 23 जून 1953 को ‘रहस्मय परिस्थितियों’ में उनकी मृत्यु हो गयी. डॉ मुखर्जी के बलिदान ने कश्मीर को भारत में बचा लिया. स्वामी विवेकानंद ने कहा है -‘हे भारतीयों! तुम जन्म से ही माता (भारतमाता) के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो.’ डॉ मुखर्जी ने इसे चरितार्थ किया.
(लेखक भाजपा प्रदेश कार्यसमिति, झारखंड के सदस्य हैं.)

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