दक्षिण अफ्रीका : साहसिक प्रयोग
– हरिवंश – भारत में ऐसे सवालों पर राजनीति होती है. जाति, धर्म, भीतरी-बाहरी के सवाल बार-बार उठाये जाते हैं. क्या मुल्क ऐसे रास्ते बनते हैं? महाराष्ट्र में मराठी-बिहारी, दिल्ली में बिहारी, झारखंड में बाहरी-भीतरी… जिस राज्य में देखिए, समाज तोड़क सवाल मुख्य राजनीति का सार्वजनिक एजेंडा है. क्या इस रास्ते समाज-देश बनते हैं या […]
– हरिवंश –
भारत में ऐसे सवालों पर राजनीति होती है. जाति, धर्म, भीतरी-बाहरी के सवाल बार-बार उठाये जाते हैं. क्या मुल्क ऐसे रास्ते बनते हैं? महाराष्ट्र में मराठी-बिहारी, दिल्ली में बिहारी, झारखंड में बाहरी-भीतरी… जिस राज्य में देखिए, समाज तोड़क सवाल मुख्य राजनीति का सार्वजनिक एजेंडा है. क्या इस रास्ते समाज-देश बनते हैं या टूटते हैं? नेल्सन मंडेला और आर्चबिशप डेसमंड टूटू (दोनों दुनिया के जीवित लीजेंड हैं) ने नयी राह दिखायी, दक्षिण अफ्रीका में. टूटे, बंटे मनों को जोड़ कर. अतीत की कटुता भूल कर साथ रहने-जीने की राह दिखा कर.
प्रिटोरिया (दक्षिण अफ्रीका की राजधानी) के होटल (सदर्न सन) में सुबह पांच बजे ही नींद खुली. हालांकि रात को सोते-सोते एक बज गये थे. उससे ठीक पहले भारत से दक्षिण अफ्रीका लगातार 10 घंटे की यात्रा. फिर समारोह. बेतरह थकान. भारत में सुबह के 8.30 बजे होंगे, ध्यान आया.
पर यहां सुबह पांच बजे ही पर्याप्त रोशनी थी. होटल की खिड़की से बाहर का दृश्य साफ-सुंदर था, पर कतार में खड़े पेड़ों पर निगाह अटक गयी. सुंदर फूलों से भरे. फिर तो जहां गये, इन बड़े पेड़ों की कतारें मिलीं. विशाल पेड़. छतनार. फैले हुए. खूब फू ले हुए. पता चला इन्हें जकारांडा फूल कहते हैं. साल के इन्हीं दो महीनों में ये फूलते हैं. खूब गदराये हुए. नीला रंग बोलते हैं. गहरा नीला नहीं, हल्का. परंपरागत रंगों में इसे बता नहीं सकता. पर अत्यंत सुकूनदायक. शांत. मोहक रंग. न गहरा, न चटक, पर तृप्तिदायक. बेचैन मन पर मरहम लगाता रंग. मनभावन.
प्रधानमंत्री के विशेष विमान ‘आगरा’ ने जब प्रिटोरिया से दिल्ली के लिए उड़ान भरी, तो खिड़की से शहर निहारता रहा. पूरा प्रिटोरिया जकारांडा फूलों के पेड़ों से खिलता शहर लगा. उसी रंग में डूबा-आच्छादित. याद आया 1991 में हम (फैसल अनुरागजी, त्रिदीव घोषजी वगैरह) झारखंड के पलामू में घूम रहे थे. पूरा जंगल लाल फूलों से गदराया, दूर से पूरा क्षेत्र ही लाल दिखता. शायद वे पलाश के फूल थे.
इसी जकारांडा फूलों वाले शहर या देश में गांधीजी, महात्मा बने थे. अपने जीवन के 21 वर्ष (1893-1914) गुजारे या कहें अपने प्रयोगों से एक साधारण इंसान से असाधारण बन गये. उनके जीवन का पालना (झूला), दक्षिण अफ्रीका रहा, ऐसा माना जाता है. बाद में नेल्सन मंडेला के असाधारण संघर्ष या व्यक्तित्व ने दक्षिण अफ्रीका को एक नयी पहचान दी. लेकिन उस मुल्क में चल रहे प्रयोगों के बारे में आज देश-दुनिया को कितना पता है?
प्रिटोरिया के राष्ट्रपति भवन में, मिले दक्षिण अफ्रीका के एक मशहूर पत्रकार. पूछा, कहां रहते हैं नेल्सन मंडेला और आर्च बिशप फादर डेसमंड टूटू (नोबल पुरस्कार पाये)? पता चला नेल्सन मंडेला ने अपने गांव के घर को ही आशियाना बना लिया है. वह गांव लौट गये हैं.
अपने परिवार-परिवेश में. दुनिया में इस विराट व्यक्तित्व का कोई दूसरा राजनेता जीवित नहीं है. 1962 में गिरफ्तार हुए. 27 वर्षों तक जेल में रहे. अकेले. दूर निर्जन द्वीप (केपटाउन के पास समुद्र में) में रहे. 1990 में रिहा हुए. फिर देश के राष्ट्रपति बने. मई 1994 में. पांच वर्षों तक ही दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रहे. उसी दौरान संविधान, राजनीतिक परंपराओं और सुधार की नींव पड़ी. अनेक दबावों के बावजूद नेल्सन मंडेला ने दोबारा राष्ट्रपति बनने से मना कर दिया. उनके त्याग, संघर्ष और निर्वासन, जैसा दूसरा उदाहरण दुनिया में नहीं है.
दक्षिण अफ्रीका ही क्यों? उन्हें लोग और दुनिया आजीवन दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में देखना चाहती थी. पर वह पांच वर्षों में गद्दी से अलग हो गये. कारण अपने मुल्क में उन्हें स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा की नींव डालनी थी. एक ही व्यक्ति या परिवार का बंधक न बने सत्ता, देश या लोकतंत्र, यह नींव भी मंडेला ने डाली. तब से आज तक वहां कोई एक ही व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति नहीं बना. 1997 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का नेतृत्व मंडेला ने थाबो मबेकी को सौंप दिया.
फिर वह राष्ट्रपति पद के लिए चुने गये. 2008 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (दल) ने उन्हें वापस कर लिया. सितंबर 2008 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के उप प्रमुख कगलेमा मोटलांथे राष्ट्रपति बने. अप्रैल 2009 में हुए राष्ट्रपति चुनाव (वहां भी संसद राष्ट्रपति का चुनाव करती है) में जैकोब जुमा राष्ट्रपति चुने गये.
इस तरह वहां के लोकतंत्र में शुरू से ही नींव पड़ी या परंपरा विकसित हुई कि एक व्यक्ति दो बार लगातार एक ही महत्वपूर्ण पद पर न रहे. परिवार, वंश या खास लोगों के ही हाथ में राजनीति न रहे, दक्षिण अफ्रीका की यह राजनीतिक विरासत, भारत जैसे देशों के लिए सीखने योग्य है. ’60 या 70 ‘ के दशकों में भारत देश के कुछेक परिवारों के संदर्भ में वंशवाद की चर्चा होती थी. आज तो हर जिले में कुछेक परिवार राजनीति के वंशगत उत्तराधिकारी बन गये हैं. यहां दो टर्म (दो बार) किसी पद पर रहने की बात कौन करे, लोग आजीवन ही सत्ता में कुंडली मार कर बैठे रहना चाहते हैं. भारत की राजनीति को ‘वंशों’ और ‘परिवारों’ से अलग करने से ही लोकतंत्र मजबूत होगा.
अब सिर्फ दिल्ली का परिवारवाद ही, भारतीय राजनीति के लिए समस्या नहीं है. यह रोग (दिल्ली से चल कर, छह दशकों में) अब जिले-जिले पसर गया है. उत्तर से दक्षिण. पूरब से पश्चिम के राज्यों तक. पर वहां मंडेला ने ऊपर से ही नींव डाली कि राजनीति, कुछेक ‘परिवारों’ की दासी न रहे. याद आया, महाभारत का कथन, महाजनो येन गत: सो पंथा. समाज के अगुआ लोग जिस रास्ते चलते हैं, वही पाथेय होता है. समाज उसी डगर पर चलता है.
यह भी कहावत है कि मनुष्य की परख पद पर ही होती है. मंडेला, चाहते तो आजीवन राष्ट्राध्यक्ष रहते. पर पांच वर्षों में ही उन्होंने पद छोड़ दिया. इससे भी महत्वपूर्ण बात. जिन गोरे लोगों ने उन्हें निर्वासन दिया. दुख, दर्द और पी़ड़ा. जेलों में 27 वर्ष की तनहाई. कालों के साथ उन गोरे शासकों के क्रूर अत्याचार अलग थे.
पर मंडेला जब राष्ट्रपति बने, तो क्या किया? उन यातना देनेवाले गोरों के प्रति कहीं कोई तिक्तता, कटुता या आक्रोश उनके मन में था? काम में झलका? बड़े कर्णधार राष्ट्र निर्माता कैसे होते हैं? उनका व्यक्तित्व कैसे संकीर्णताओं या छोटी-छोटी क्षुद्रताओं, द्वेष, ईर्ष्या, बदला, प्रतिशोध, वगैरह से अलग होता है? यह भी उदाहरण मिला, नेल्सन मंडेला के कामों से. उनके राष्ट्रपति रहते सामाजिक सवालों को लेकर सुधारों के बड़े-बड़े प्रयास-काम शुरू हुए. रंगभेद, बेरोजगारी, घर बनाने, अपराध रोकने के मोरचे पर काम शुरू हुए. पर सबसे उल्लेखनीय बात क्या लगी? तब अफ्रीकन समाज बंटा था.
बंटा ही नहीं, एक दूसरे के खिलाफ प्रतिशोध की आग में झुलस रहा था. उस बंटे-विभाजित समाज में नेल्सन मंडेला की सरकार ने हर नागरिक को समान अवसर (गोरे हों या काले) देने की पहल की. सरकार ने राष्ट्रीय सहमति (नेशनल रिकंशलिएशन) का अभियान चलाया. राजनीतिक हिंसा रोकने के लिए. एक कमिटी बनी. ‘टथ एंड रिकंशलिएशन कमीशन’ (सच और मेलमिलाप आयोग), आर्चबिशप डेसमंड टूटू के नेतृत्व में. इस आयोग को अतीत में हुए हादसों की जांच भी करनी थी. इस आयोग के काम का असर क्या हुआ?1994 से राजनीतिक हिंसा में कमी होने लगी. 1996 आते-आते यह बंद हो गयी. यह चमत्कार था. जहां काले-गोरों के बीच सदियों से द्वेष-हिंसा का माहौल रहा, वहां एक नये युग की शुरुआत हुई. दोनों साथ-साथ, पर राजनीतिक हिंसा लगभग खत्म.
भारत में ऐसे सवालों पर राजनीति होती है. जाति, धर्म, भीतरी-बाहरी के सवाल बार-बार उठाये जाते हैं. क्या मुल्क ऐसे रास्ते बनते हैं?
महाराष्ट्र में मराठी-बिहारी, दिल्ली में बिहारी, झारखंड में बाहरी-भीतरी… जिस राज्य में देखिए, समाज तोड़क सवाल मुख्य राजनीति का सार्वजनिक एजेंडा है. क्या इस रास्ते समाज-देश बनते हैं या टूटते हैं? नेल्सन मंडेला और आर्चबिशप डेसमंड टूटू (दोनों दुनिया के जीवित लीजेंड हैं) ने नयी राह दिखायी, दक्षिण अफ्रीका में. टूटे, बंटे मनों को जोड़ कर. अतीत की कटुता भूल कर साथ रहने-जीने की राह दिखा कर. क्या अफ्रीका के लोकतंत्र के ऐसे प्रयोगों से भारत सीखन को तैयार है?
दिनांक : 23.10.2011