बिहार की राजनीति में जारी है मसखरापन

।। अजय सिंह।। गवर्नेस नाउ अजीब दुर्भाग्य है गंभीर से गंभीर विषयों का मसखरीकरण कर दिया जाना पशुपालन घोटाले में बड़े राजनेताओं की सजा एक अवसर है राजनीति पर गंभीरता से छानबीन का, आत्मविश्‍लेषण का, आत्ममूल्यांकन का. पर, हो क्या रहा है? भाजपा के जो वरिष्ठ नेता कल तक नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के रूप […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 6, 2013 3:30 AM

।। अजय सिंह।।

गवर्नेस नाउ

अजीब दुर्भाग्य है गंभीर से गंभीर विषयों का मसखरीकरण कर दिया जाना

पशुपालन घोटाले में बड़े राजनेताओं की सजा एक अवसर है राजनीति पर गंभीरता से छानबीन का, आत्मविश्‍लेषण का, आत्ममूल्यांकन का. पर, हो क्या रहा है? भाजपा के जो वरिष्ठ नेता कल तक नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के रूप में देखते थे, श्रेष्ठ मुख्यमंत्री के रूप में गिनते थे, वे बिना आधार के आरोपप्रत्यारोप में कूद पड़े हैं.

पशुपालन प्रकरण में तथ्य यह है कि नीतीश कुमार शिवानंद तिवारी के खिलाफ जांच के लिए पहले भी याचिका दी जा चुकी थी सीबीआइ की अदालत में. फिर यह मामला हाइकोर्ट में गया. दोनों जगह से यह याचिका खारिज हो चुकी है, क्योंकि जांच के बाद तथ्य नहीं मिले.

पुन: सितंबर, 2013 में वैसी ही याचिका दायर हुई है. इसी को लेकर अभी राजनीति में बड़ा बवंडर खड़ा किया किया जा रहा है, जबकि अब तक कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिले हैं. इसी मुद्दे पर यह विश्‍लेषण.

बिहार के दो पूर्व मुख्यमंत्री चारा घोटाला कांड में जेल में हैं. दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अपने समय के शक्तिशाली राजनेता थे. लालू प्रसाद जगन्नाथ मिश्र का व्यक्तित्व असाधारण था. इन दोनों का जेल में होना बिहार की राजनीतिक संस्कृति और गवर्नेस के संस्कारों पर गंभीर टिप्पणी है.

जाहिर है यह आत्ममंथन का दौर होना चाहिए. विशेषकर राजनेताओं और नौकरशाहों के लिए. जिनके संरक्षण में यह संस्कृति फलीफूली है. जिसका परिणाम इस अभूतपूर्व घटना की परिणति हुई. पर, बिहार का एक अजीब दुर्भाग्य भी है. गंभीर से गंभीर विषयों का मसखरीकरण कर दिया जाना है.

इस गंभीर आत्मावलोकन के क्षणों को मसखरेपन में बदलने की कला में माहिर लोग विषय को गौण और मसखरेपन को महत्वपूर्ण कर देते हैं. आज कल यही हो रहा है चारा घोटाले में. हाल ही में बीजेपी के कुछ नेताओं के बयानों पर गौर करें. उनका कहनी है कि लालू के बाद नीतीश कुमार का चारा घोटाला में फंसना तय है.

यह बयान निस्संदेह गौर करने लायक नहीं है. अगर इस बयान को देनेवाले व्यक्ति की राजनैतिक छवि की नींव मसखरेपन पर आधारित होती. बीजेपी के कुछ नेता इस श्रेणी में आते हैं. पर सुशील कुमार मोदी का शुमार इनमें नहीं है. ही रविशंकर प्रसाद का. मोदी ने सात साल तक नीतीश कुमार के साथ कंधे से कंधा मिला कर सरकार चलाया. एक समय उन्हें प्रधानमंत्री पद का सबसे उपयुक्त उम्मीदवार भी बताया. क्या यह सब करते समय उन्हें नीतीश कुमार की संलिप्तता का अहसास था!

उपमुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कहीं अपने मुख्यमंत्री के घोटाले में शरीक होने का विरोध किया.

मोदी और प्रसाद अपने अन्य सहयोगियों के साथ इस कांड में ने व्हिसलब्लोअर का रोल भी निभाया. आखिर कोर्ट में इतना बड़ा राज क्यों छिपा कर रखा?

यही नहीं वर्ष 2005 में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया. क्या मोदी प्रसाद आज आडवाणी से अपने उस निर्णय के लिए जवाबदेह ठहरायेंगे?

जाहिर है मंशा राजनीति को अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने की नहीं है. एक मंझे हुए गंभीर राजनेता के रूप में मोदी प्रसाद को हकीकत का एहसास है. उन्हें पता है कि इन आरोपों का अभिप्राय महज सनसनी फैलाना और जनता को गुमराह करना है. उन्हें चारा घोटाले के इस इतिहास का इल्म है कि इन सब आरोपों को लगातार कोर्ट में खारिज किया जा चुका है. इन बयानों को जारी करने का मकसद सिर्फ अपने विरोधियों को झूठ या अर्धसत्य के जरिये आहत करना है.

इस प्रयास में गंभीर विषय का अगर मसखरीकरण होता है, तो बड़े से बड़े नेता को कोई गुरेज नहीं. इसी कड़ी में बीजेपी के नेता सरयू राय के लिखे पत्र का संदर्भ लें, तो बीजेपी के नेताओं को खासा मुश्किल हो जायेगी. तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को लिखे एक पत्र में सरयू राय ने किस तरह एनडीए के शासनकाल में चारा घोटाले की जांच में कोताही की गयी, इसका जिक्र है.

चारा घोटाले से अजिर्त पैसे को किस तरह मॉरीशस रूट से भारत लाया जा रहा है, इसका भी उल्लेख है. और वित्त मंत्रलय किस तरह इस प्रकरण पर खामोश है. इसका भी प्रामाणिक संदर्भ है. 19 नवंबर, 2002 को लिखा गया सरयू राय का यह पत्र बिहार और भारत की राजनीति पर गंभीर दुखद टिप्पणी है.

बिहार में दो शक्तिशाली राजनेताओं और पूर्व मुख्यमंत्रियों की चारा घोटाले में सजा एक अवसर था, राजनीति के अंदर झांकने का. यह एक वक्त होता कि किस तरह से बिहार की राजनीतिक और प्रशासनिक विरासत के विद्रूप स्वरूप से छुटकारा पाया जाये, और जनता को एक पारदर्शी उत्तरदायी गवर्नेस राजनीति मिल सके. अफसोस यह है कि बिहार का राजनीतिक वर्ग भूतकाल के मोह से बाहर निकलने को तैयार नहीं. यही वजह है कि इन गंभीर और दुखद राजनीतिक क्षणों का भी मसखरीकरण जारी है.

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