बाबा आमटे की स्मृति-2 : 14 रुपये से की आनंदवन की स्थापना

– हरिवंश – कोढ़ ! कभी इसे दुनिया का सबसे वीभत्स और भयानक रोग माना जाता था. मध्यकाल में पश्चिमी देशों में कुष्ठ रोगी जिंदा दफन कर दिये जाते थे. उनके गलों में घंटियां बांध दी जाती थीं. उनके लिए ही कहा जाता था ‘डेड इन दिस वर्ल्ड एलाइव टू हेवेन’. हजारों-हजार वर्ष से चले […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 19, 2015 11:38 PM
– हरिवंश –
कोढ़ ! कभी इसे दुनिया का सबसे वीभत्स और भयानक रोग माना जाता था. मध्यकाल में पश्चिमी देशों में कुष्ठ रोगी जिंदा दफन कर दिये जाते थे. उनके गलों में घंटियां बांध दी जाती थीं. उनके लिए ही कहा जाता था ‘डेड इन दिस वर्ल्ड एलाइव टू हेवेन’. हजारों-हजार वर्ष से चले आ रहे अंधविश्वासों-गलत परंपरा और कुरीतियों के खिलाफ बाबा ने बगावत कर दी.
कोढ़ियों को आम रास्ते पर चलने का हक नहीं था. लोग उन्हें दूर से देख कर बिदक जाते थे. समाज से वे बहिष्कृत थे. गांव-घर में घुसने की इजाजत नहीं थी. आज से करीब 40 वर्षों पूर्व कमोबेश भारत में भी कोढ़ियों के प्रति ऐसी ही नफरत और तिरस्कार का भाव था.
लेकिन बाबा को तो कुरूपता से चिढ़ है. वह कहते हैं, ‘टूटे और निराश इंसानों को मैंने सुंदर बनाने की कोशिश की है’. बाबा के इस काम में धैर्य की प्रतिमूर्ति साधना ताई उनके साथ रहीं. वह उल्लेख करते हैं ‘साधना की प्रीति ही मेरी चिरस्फूर्ति रही’.
इसके बाद बाबा कोढ़ रोग के बारे में सांगोपांग अध्ययन करने में जुट गये, पर बाबा का जिज्ञासु मन भला इतने से ही शांत रहता! 1944 में वह कुष्ठ चिकित्सा के बारे में विस्तृत अध्ययन के लिए स्कूल ऑफ ट्रापिकल मेडिसिन में भरती होने कलकत्ता पहुंचे.
काफी अड़चनों के बाद दाखिला मिला. वहां उन्होंने डॉक्टरों के सामने प्रयोग के लिए खुद को प्रस्तुत किया. उनके शरीर में कोढ़ के कीटाणु दो बार इंजेक्शन में दिये गये. सफल रहे कि कुष्ठ रोग छुआछूत से नहीं फैलता है. श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में जन्मीं साधना ताई बाबा के हर प्रयोग में साये की तरह उनके साथ रहीं.
कलकत्ता से लौट कर बाबा ने कुष्ठ रोगियों के साथ रहने का निर्णय किया. सरकार से जमीन मांगी. वरोडा से तकरीबन 5 किमी की दूरी पर उन्हें 50 एकड़ जंगल सरकार ने दिया. यह जंगल क्या था, मानो साक्षात मौत का घर. शेर, तेंदुआ, बाघ, भालू, सांप और भयानक बिच्छू … निरी पथरीली जमीन. पीने का पानी भी 10-12 किमी दूर उपलब्ध था.
जून 1951 में बाबा उस जंगल में पहुंचे. उसे नाम दिया ‘आनंदवन’ साथ ही महारोगी सेवा समिति की स्थापना की. उनके साथ उनकी पत्नी, दो छोटे पुत्र विकास और प्रकाश, छह कुष्ठ रोगी और एक लंगड़ी गाय थी.
जमा पूंजी कुल 14 रुपये. साधना ताई बताती है कि यहां झुलसा देनेवाली गरमी पड़ती थी. धूप बहुत तेज और बारिश की बौछारों का तो कहना ही क्या! ऊपर से टाट डाल कर एक छोटी मड़ई बनायी गयी, जो चारों तरफ से खुली थी. रात-बिरात बगल में बाघ टहला करते थे.
सबसे पहले बाबा ने यहीं कुआं खुदाई का काम हाथ में लिया. कुष्ठ रोगियों के कारण बाबा के मित्र उनके पास आने से कतराते थे. उनके बच्चों के साथ खेलने के लिए अभिभावक अपने बच्चों को मना करते थे.
महीनों तक उस पथरीली जमीन में अनथके तन और अनबुझे मन से श्रम करने के बाद पानी मिला. उस पानी को देख कर बाबा का परिवार आ“ह्लादित हो गया.
धीरे-धीरे आश्रम में जीवन से निराश और हारे, अपनों से परित्यक्त कुष्ठ रोगियों की संख्या बढ़ने लगी. चहल-पहल बढ़ी. आश्रम के बगीचे में सब्जी उगाने का काम शुरू हआ. बाबा खुद कंधे पर सब्जी लाकर फुटपाथ पर बेचते थे. वह मोलभाव नहीं करते थे.
सब्जी के उत्पादक बन कर भी वह याचक ही रहे ‘भाई जितनी कीमत जंचे, देकर ले लीजिये’. भला ऐसा विक्रेता सफेदपोश लोगों को कहां मिलता! लोग आते एक आध पैसा थमाते और मनमानी सब्जी उठा ले जाते. बीमारी के कारण यह प्रयोग कुछ दिनों बाद बंद करना पड़ा.
(जारी)
दिनांक : 03-03-08

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