जमाना बहुत तेजी से बदल गया है. पहले एक फोन लगाने में घंटों लग जाते थे. राज्य से बाहर फोन करने के लिए ट्रंक कॉल बुक किया जाता था. अब मोबाइल से तुरंत कही भी बात हो जाती है. चुनाव में भी संचार क्षेत्र की तरह ही बदलाव आया है, लेकिन यह बदलाव सकारात्मक नहीं है. इलेक्शन के बढ़ते खर्च के रूप में इसके साइडइफेक्ट्स दिखने लगे हैं.
पहले के चुनाव में कार्यकर्ता जिम्मेवारी के साथ काम करते थे. ऐसे कार्यकर्ताओं को पार्टी में अहमियत दी जाती थी. परंतु, आज न तो कार्यकर्ताओं की अहमियत है और न वह जिम्मेवारी पूर्वक काम ही करते हैं. अब उनका स्थान पीआर एजेंसियों ने लिया है. एक ही एजेंसी कई दलों का प्रचार करती हैं.
पीआर एजेंसियों को पार्टी की विचारधारा से मतलब नहीं रहता है. वह सिर्फ पार्टी और प्रत्याशी की जरूरतों को पूरा करती हैं.
प्रत्याशी और वोटर का संबंध भी बदला है. पहले नेताओं को जनता पैसा देकर चुनाव लड़वाती थी. अपने खर्च पर भाषण सुनने आती थी. पहले वोटर चुनाव में नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए चावल-गेहूं आदि देकर मदद करते थे.
गांव में पहुंचने पर रात्रि विश्रम की व्यवस्था करते थे और सभी का पूरा ध्यान रखते थे. आज का माहौल इसके ठीक विपरीत हो गया है. आज नेता ही वोटरों को लुभाने के लिए पैसे देते हैं.एक दौर था, जब एक या दो गाड़ियों से चुनाव प्रचार किया जाता था. घर-घर जाकर लोगों से वोट मांगा जाता था. नेता लोगों से हाल-चाल लेते थे, परंतु आज यह सब नहीं है.
आज पैसों की बदौलत गाड़ियों का काफिला जाता है. 1995 में निर्दलीय चुनाव लड़ा था, उस वक्त सभी जातियों के घर-घर जाकर और स्वतंत्र रूप से वोट मांगा था और सभी जाति के लोगों ने सहयोग किया था. परंतु, आज तो पार्टी के नाम पर जाति विशेष के घर जाते हैं. पहले प्रखंड और जिले की सिफारिशों पर टिकट दी जाती थी परंतु आज ये सब बात नहीं है. आज जिनके पास पैसे हैं या नेता के बेटे हैं, उन्हें ही टिकट मिलता है.