चुनाव में बढ़ गया धनबल लड़ना सबके वश में नहीं

।।अंबिका प्रसाद।। पूर्व विधायक, पीरपैंती देश के राजनीतिज्ञों के साथ आम जनता के बीच नैतिकता एवं नैतिक मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है. यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये भविष्य में परेशानियों का सबब बन सकता है. इन बातों को कहते हुए पीरपैंती से छहबार विधायक रह चुके भाकपा नेता अंबिका प्रसाद थोड़े […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 4, 2015 3:40 AM
।।अंबिका प्रसाद।।
पूर्व विधायक, पीरपैंती
देश के राजनीतिज्ञों के साथ आम जनता के बीच नैतिकता एवं नैतिक मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है. यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये भविष्य में परेशानियों का सबब बन सकता है.
इन बातों को कहते हुए पीरपैंती से छहबार विधायक रह चुके भाकपा नेता अंबिका प्रसाद थोड़े भावुक हो जाते हैं. फिर कहते हैं-पहले लोगों में नेताओं के प्रति जाति, संप्रदाय, पार्टी आदि विचारधारा से ऊपर उठ कर व्यक्तिगत रूप से सम्मान करने की भावना थी. आज के समय में ऐसा देखने को नहीं मिलता है.
आज टिकट पाने के लिए नेता सिद्धांत को त्याग कर पार्टी बदलने में क्षण भर का भी समय नहीं लगता हैं. आज के नेताओं में न तो नैतिकता है और न पूर्व की तरह त्याग और बलिदान की भावना. उन्हें सिर्फ कुरसी चाहिए. जिस किसी भी पार्टी की बदौलत उन्हें कुरसी मिलने की गारंटी रहती है, उसका झंडा उठाने को तैयार रहते हैं. पिछले कुछ वर्षो में इस तरह के नेताओं की फौज खड़ी हो गयी है.
जनता भी नेताओं के रुख को देख कर जातिवाद, अर्थवाद व बाहुबल के प्रभाव में आ जाती है. आज के नेताओं की कथनी और करनी में अंतर जनता को दिग्भ्रमित करता है. जबकि पूर्व के नेता उन्हीं बातों का जनता को भरोसा देते थे जिन्हें पूरा करने का उनमें सामथ्र्य होता था. नेताओं की कथनी और करनी के अंतर के कारण आमजनों का विश्वास डगमगा रहा है.
यह न केवल देश के लिये बल्कि लोकतंत्र के लिये हानिकारक होगा. नेताओं में पहले की तुलना में समाज सेवा की भावना में कमी आयी है. पहले के समय में विपरीत विचारधाराओं के नेता एक दूसरे का सम्मान करते थे. अब यह दुर्लभ है. यह राजनीति के नैतिक पतन की निशानी है. देश के प्रबुद्ध राजनयिकों का यह नैतिक दायित्व है कि वे अब भी सार्थक प्रयास कर देश की निराशाजनक परिस्थिति से लोगों को उबारें ताकि लोकतंत्र की जड़ें और भी मजबूत हो सके. आज का चुनाव भी बहुत खर्चीला हो गया है.
अब चुनाव लड़ना सबके वश की बात नहीं रही. चुनाव आयोग और पार्टियों को खर्च में कटौती करने के उपायों पर विचार करना चाहिए.

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