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सामाजिक- राजनैतिक उथल-पुथल का दौर

जनता परिवार के बिखराव ने बड़े स्तर पर निराशा का भाव पैदा कर दिया था. उस मनोदशा का इस्तेमाल करने में कांग्रेस को कामयाबी मिली. लंबे अंतराल के बाद उसे सत्ता में पुनर्वापसी का मौका मिला. 1980 के विधानसभा चुनाव में वह बहुमत के साथ सत्ता में तो लौट गयी थी, पर पार्टी में व्याप्त […]

जनता परिवार के बिखराव ने बड़े स्तर पर निराशा का भाव पैदा कर दिया था. उस मनोदशा का इस्तेमाल करने में कांग्रेस को कामयाबी मिली. लंबे अंतराल के बाद उसे सत्ता में पुनर्वापसी का मौका मिला. 1980 के विधानसभा चुनाव में वह बहुमत के साथ सत्ता में तो लौट गयी थी, पर पार्टी में व्याप्त खेमेबंदी कम नहीं हो रही थी. केंद्रीय नेतृत्व अलग-अलग क्षत्रपों को कमान देकर असंतोष को दबाने की कोशिश कर रहा था. लेकिन खेमेबंदी थमने का नाम नहीं ले रही थी.

करीब एक दशक में कांग्रेस को राज्य में छह मुख्यमंत्री बदलने पड़े. जननायक कपरूरी ठाकुर का निधन और लालू प्रसाद का विधानसभा में विरोधी दल का नेता बनना इस दशक की महत्वपूर्ण घटनाएं रहीं. इसी दशक में राष्ट्रीय स्तर पर कई बड़ी घटनाएं घट रही थी. 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद राजीव गांधी का सत्ता के शीर्ष पर पदार्पण.

कांग्रेस का अंदरुनी कलह बढ़ता जा रहा था. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भ्रष्टाचार के सवाल पर कांग्रेस छोड़ दी. विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर खुद को एक ताकत बनने की संभावनाएं तलाश रहा था. इसी दशक में भूमिगत राजनीति से खुली राजनीति की ओर कदम बढ़ाया भाकपा माले के छतरी संगठन माने जाने वाले इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने. उसके सात विधायक विधानसभा में पहुंचे.

पुराने ढर्रे पर कांग्रेस की राजनीति

कांग्रेस की राजनीति साठ के पहले वाले दशक की तरह चलती रही. उसकी यह राजनीति अगड़ी जातियों के आसपास सिमटी रही. 1980 में कांग्रेस केंद्र की राजनीति में लौटी तो बिहार की राम सुंदर दास सरकार बरखास्त कर दी गयी. उसी साल हुए चुनाव में कांग्रेस को 169 सीटें मिली. डॉ जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन निरापद होकर वह भी पांच साल सरकार नहीं चला सके. 1983 में उनकी जगह कांग्रेस आलाकमान ने चंद्रशेखर सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया. 1980 से 90 के बीच डॉ जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिन्देश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और फिर डॉ जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बनाये गये. 1985 का चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति के माहौल में हुआ था. उसमें कांग्रेस की सीटें बढ़कर 196 तक पहुंच गयी. यही नहीं, उसके वोट प्रतिशत में भी इजाफा हुआ.

ग्रामीण अंचल हो रहे थे अशांत

दूसरी ओर बिहार के ग्रामीण अंचल अशांत हो रहे थे. खाद्यान्न उत्पादन में इजाफे के बावजूद कृषि उत्पादन संबंधों में खींचाव बढ़ता जा रहा था. हालांकि खेती में उत्पादन बढ़ने का लाभ पिछड़ों में शामिल अगड़ी जातियों को मिलने लगा और उनकी आर्थिक संपन्नता बढ़ने लगी. वे राजनीति में दखल देने को मचल रहे थे. दूसरी ओर, भूमिहीन किसानों को गोलबंद कर नक्सली अपनी लड़ाई तेज करने की ओर बढ़ रहे थे. भूमि सुधार का प्रश्न बरकरार था. वैसे, ग्रामीण अंचलों में कायम अशांति को दूर करने के सरकारों ने कई उपाय किये. विकास की बड़ी योजनाएं चालू की गयीं. हदबंदी और भूदान की जमीन का बंटवारा हुआ.

राजनीति बदली, बदला नेतृत्व

1989 में लोकसभा के आम चुनाव हुए. वह चुनाव भ्रष्टाचार के केंद्रीय एजेंडे पर लड़ा गया था. कांग्रेस के खिलाफ मध्यमार्गी, वाम और दक्षिण- सब एकजुट थे. सरकार बदल गयी. उसके अगले ही साल राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए और जैसा की अपेक्षित था, यहां कांग्रेस सीटों के लिहाज से सबसे कम संख्या पर पहुंच गयी थी. विधानसभा में कांग्रेस के केवल 71 विधायक पहुंच सके थे. कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल थी. उधर, वाम-दक्षिण की मदद से लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बन गये.

सांप्रदायिक हिंसा ने किया शर्मसार,गरीबों पर बढ़ा दमन

इस दशक में दो धाराएं उभरकर सामने आयीं. पहला, भागलपुर में 1989 में सांप्रदायिक हिंसा हुई. उसका असर 1990 के चुनाव में स्पष्ट तौर पर दिखायी दिया कि एक समुदाय का कांग्रेस से दूरी बढ़ गयी. यह समुदाय जनता दल की छतरी के नीचे लामबंद हो गया. दूसरी परिघटना थी राज्य के ग्रामीण इलाकों में सामंतों व बड़े कृषकों का गरीब भूमिहीनों पर हमलों का बढ़ते जाना.1980 से 90 के दौरान दो दर्जन से ज्यादा नरसंहार की घटनाएं हुई जिसमें गरीब-गुर्बो को भेड़-बकरियों की तरह मारा-काटा गया. वस्तुत: इन हमलों की जड़ कृषि संकट और उससे गरीब-भूमिहीनों का बाहर निकलने की छटपटाहट में अंतरनिहित था. प्रभुत्वशाली वर्ग अपने पुराने धाक को जमाये रखना चाहता था. उस धाक के खिलाफ गरीब नक्सलियों के प्रभाव में लाल झंडे के नीचे गोलबंद होने लगे थे.

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