पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों से भी हो रहा इलाज

आयुष चिकित्सा कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसमें पांच अक्षर हैं ‘एवाइयूएसएच’. यह आयुर्वेदिक, योगा, यूनानी, सिद्धा और होमियोपैथी का संक्षिप्त रूप है. जाहिर है कि इसके तहत इन सभी चिकित्सा पद्धतियों से मरीजों का इलाज किया जाता है. राज्य सरकार ने इसके तहत आयुष चिकित्सकों की नियुक्ति अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 12, 2013 11:06 AM

आयुष चिकित्सा कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसमें पांच अक्षर हैं ‘एवाइयूएसएच’. यह आयुर्वेदिक, योगा, यूनानी, सिद्धा और होमियोपैथी का संक्षिप्त रूप है. जाहिर है कि इसके तहत इन सभी चिकित्सा पद्धतियों से मरीजों का इलाज किया जाता है. राज्य सरकार ने इसके तहत आयुष चिकित्सकों की नियुक्ति अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर पर की है.

अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के अधीन स्वास्थ्य उप केंद्रों पर आयुष चिकित्सा के लिए एएनएम को घरेलू उपचार कीट उपलब्ध कराने का प्रावधान है, ताकि गांव स्तर पर लोगों को इस चिकित्सा व्यवस्था का लाभ मिल सके. इसके जरिये एक बार फिर देश में उन चिकित्सा पद्धतियों को मुख्य चिकित्सा व्यवस्था में सरकारी स्तर पर शामिल किया है, तो अंगरेजी चिकित्सा पद्धति की लोकप्रियता के कारण पीछे छूट गयी थीं. दरअसल, कई गंभीर बीमारियों के इलाज की इनमें गजब की ताकत है. राज्य के सदर अस्पतालों में टेलीमेडिसीन युक्त आयुष चिकित्सा की व्यवस्था की गयी है, जहां आप इन चिकित्सा पद्धतियों से इलाज का लाभ ले सकते हैं.

मधुमेह नियंत्रण कार्यक्रम
राज्य के ग्रामीण इलाकों में मधुमेह यानी डायबिटीज के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. जिस तरह की जीवन शैली विकसित हो रही है, उसमें इस बीमारी के और तेजी से बढ़ने का खतरा है. स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट कहती है कि देश में करीब पांच करोड़ लोग डायबिटीज के मरीज हैं. स्थिति यही रही, तो 2030 में यह संख्या दो गुनी हो जायेगी. इसलिए सरकार इसे रोकने को लेकर विशेष कार्यक्रम चल रही है. दरअसल डायबिटीज एक खतरनाक बीमारी है. यह मरीज के सभी अंगों को प्रभावित करता है. चिकित्सक इससे बचने के उपाय बताते हैं. सरकार उन्हीं उपायों के प्रति लोगों को जागरूक करने का अभियान चला रही है. इसके लिए कैंप लगाये जाने हैं और संदिग्ध मरीजों की पहचान कर उनकी जांच की जानी है.

फाइलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम
फाइलेरिया यानी हाथी पांव एक पुरानी बीमारी है. आज भी इसके मरीज हैं. इस बीमारी को रोकने के लिए राज्य में 1955-56 में विशेष कार्यक्रम चला था. कार्यक्रम को राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान, दिल्ली के सहयोग से चलाया गया था. अब 2004 से फिर से यह कार्यक्रम विशेष रूप से चलाया जा रहा है. यह बीमारी मच्छरों के कारण होती है. इसलिए कार्यक्रम के दो भाग हैं. एक भाग में शहरी इलाकों में मच्छरों के लार्वा को खत्म करने के लिए दवा का छिड़काव आदि किया जाता है. दूसरे भाग में फाइलेरिया के मरीजों की पहचान कर उन्हें दवा दी जाती है. दवा की मात्र निर्धारित है और यह चिकित्सकों की देखरेख में मरीजों को दी जाती है. इसके एवज में कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. इस क्रम में साल में एक बार सभी लोगों को डीआइसी और एलवेन्डा जोल की निर्धारित खुराक दी जाती है.

कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम
कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम महात्मा गांधी ने भी चलाया था और देश भर में इस बीमारी को खत्म करने के लिए एनजीओ ने भी कई स्तर के कार्यक्रम चलाये. इसका नतीजा भी मिला, लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ. 1980 के दशक में भी इस बीमारी के उन्मूलन और कुष्ठ रोगियों के इलाज व पुनर्वास के कार्यक्रम व्यापक स्तर पर चलाये गये. इसमें बहुचिकित्सा पद्धति (एमडीटी ड्रग) से रोगी का इलाज किया जाता है. अविभाजित बिहार में 1996-97 में इस पद्धति को बड़े पैमाने पर लागू किया गया. अभी राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित रूप में चलाया जा रहा है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को इसके लिए केंद्र सरकार धन दे रही है. यह माइक्रो वैक्टीरिम लेप्रोसी नामक जीवाणु से फैलता है. इसलिए बहुचिकित्सा प्रणाली को लागू किया गया. इसके तहत छह माह से एक साल तक रोगी का इलाज कर उसे कुष्ठ मुक्त किया जाता है. कुष्ठ रोग से अंग में गलन शुरू होती है और व्यक्ति नि:शक्त हो जाता है. इसलिए इस बात पर ज्यादा जोर है कि समय रहते मरीज की पहचान कर उसका इलाज शुरू किया जाये, ताकि उसे नि:शक्त होने से बचाया जा सके. जिन कुष्ठ रोगियों के अंग गल गये हैं, उनका ऑपरेशन कर स्वस्थ बनाया जाना है. कुष्ठ रोगियों के पुनर्वास की भी व्यवस्था है. मरीजों के इलाज, ऑपरेशन, पुनर्वास का खर्च सरकार उठाती है.

पोषण पुनर्वास केंद्र
बच्चों को कुपोषण से बचाने के कई कार्यक्रम चल रहे हैं. उन कार्यक्रमों में पोषण पुनर्वास केंद्र सबसे एडवांस है. गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के लिए यह जीवन रक्षक केंद्र है. यहां गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को 21 दिनों तक रखा जाता हैं. उन्हें चिकित्सकों की सलाह पर पोषाहार और दवा दी जाती है. उनकी माता या अभिभावक को भी केंद्र पर रखा जाता है और उनके खाने-रहने का खर्च सरकार उठाती है. उन्हें बच्चे के पोषण और सही-सही लापन-पालन का तरीका सिखाया जाता है.

इसका उद्देश्य यह होता है कि जब बच्च केंद्र से वापस घर जाये, तो उसकी मां उसका पोषण सही-सही तरीके से कर सके. इस केंद्र पर गंभीर रूप से कुपोषित बच्चे की भरती के पहले उसके स्वास्थ्य, मल-मूत्र और खून की जांच डॉक्टर से करायी जाती है. अगर वह दूसरी बीमारी से भी पीड़ित होता है, तो उसे सदर या अनुमंडल अस्पताल भेज कर वहां उसका इलाज कराया जाता है. जब वह वहां स्वस्थ हो जाता है, तब उसे इस केंद्र पर रखा जाता है. 21 दिन बाद उसे वापस घर भेज दिया जाता है, लेकिन दो माह तक हर पंद्रह दिन पर उसे केंद्र पर बुला कर उसके स्वास्थ्य की जांच की जाती है. दरअसल कुपोषण से मुक्ति पाये बगैर स्वस्थ और सक्षम मानव संसाधन विकसित नहीं किया जा सकता है. राज्य में 50 प्रतिशत शिशु मृत्यु कुपोषण के कारण होती है. जो कुपोषित बच्चे बच जाते हैं, वे मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्ण विकास नहीं कर पाते हैं. उनमें रोगों से लड़ने की ताकत नहीं रह जाती है और वे न तो कठिन श्रम कर पाते हैं और न ही औसत उम्र तक जिंदा रह पाते हैं. पोषण पुनर्वास केंद्र आने वाले बच्चों पर होने वाला सभी तरह का खर्च सरकार उठाती है. आप इस योजना का लाभ लेने या किसी को दिलाने के लिए अपने गांव की सहिया दीदी से संपर्क कर सकते हैं.

अंधापन से बचाव के मिल रहे उपाय
राज्य में अंधापन नियंत्रण कार्यक्रम चलाया जा रहा है. यह कार्यक्रम 1976 से चला रहा है. इसके तहत नेत्र विज्ञान के क्षेत्रीय संस्थानों की स्थापना, चिकित्सा महाविद्यालयों और अस्पतालों का उन्नयन, चलंत नेत्र इकाई का विकास, जरूरी संख्या में नेत्र विशेषज्ञों की नियुक्ति की जानी है. यानी अगर राज्य में इनकी कमी है, तो आप राज्य सरकार से इसकी बाबत पूछ सकते हैं. इस कार्यक्रम के दो भाग हैं. एक है मोतियाबिंद का ऑपरेशन और दूसरा है स्कूली बच्चों की आंखों की जांच. मोतियाबिंद ऑपरेशन कार्यक्रम चलाने के लिए सभी जिलों में जिला स्वास्थ्य समितियां को अधिकृत किया गया है, जबकि स्कूली बच्चों की आंखों की जांच का कार्यक्रम जिला अंधापन नियंत्रण समिति की देखरेख में चल रहा है.

मोतियाबिंद ऑपरेशन
जिला स्वास्थ्य समिति के माध्यम से उन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में शिविर लगा कर मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया जाना है, जहां ऑपरेशन के लिए बुनियादी सुविधा उपलब्ध है. शिविर में मरीजों को दवा और चश्मा मुफ्त में दी जाती है. यह पुराना और आम जनता का जाना-पहचाना कार्यक्रम है. मोतियाबिंद ऑपरेशन शिविर कई गैर सरकारी संस्थाएं भी आयोजित करती हैं और वह सभी सुविधाएं मरीजों को देती हैं, जो सरकारी शिविरों में मिलती है. इनमें लायंस क्लब, मारवाड़ी युवा मंच सहित कुछ अस्पताल जैसे संगठन प्रमुख हैं. गैर सरकारी संस्थाओं को जिला स्वास्थ्य समिति की तरफ से इसके लिए मदद भी दी जाती है. इसके लिए दर तय है. बिना लेंस वाले ऑपरेशन में पांच सौ और लेंस वाले ऑपरेशन में 750 रुपये प्रति मरीज की दर से दी जाती है.

स्कूली बच्चों का नेत्र परीक्षण
सरकार स्कूली बच्चों को नेत्रहीनता से बचाने के प्रति गंभीर है. इसलिए स्कूली बच्चों के बीच दो तरह के कार्यक्रम चला रही है. जिला अंधापन नियंत्रण समिति के माध्यम से स्कूली बच्चों के बीच नेत्रहीनता से बचाव के उपायों के बारे में जानकारी का प्रसार किया जाता है. दूसरा कि पांचवीं से सातवीं कक्षा के वैसे बच्चों की जांच की जाती है, जिनकी उम्र 10 से 14 साल के बीच है. जिनमें दृष्टि दोष पाया जाता है, उन्हें चश्मा लगाने की सलाह डॉक्टर देते हैं. बच्च अगर गरीबी रेखा से नीचे का है, तो उसे मुफ्त में चश्मा और दवा की सुविधा दी जाती है.

आयुष चिकित्सा कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसमें पांच अक्षर हैं ‘एवाइयूएसएच’. यह आयुर्वेदिक, योगा, यूनानी, सिद्धा और होमियोपैथी का संक्षिप्त रूप है. जाहिर है कि इसके तहत इन सभी चिकित्सा पद्धतियों से मरीजों का इलाज किया जाता है. राज्य सरकार ने इसके तहत आयुष चिकित्सकों की नियुक्ति अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर पर की है. अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के अधीन स्वास्थ्य उप केंद्रों पर आयुष चिकित्सा के लिए एएनएम को घरेलू उपचार कीट उपलब्ध कराने का प्रावधान है, ताकि गांव स्तर पर लोगों को इस चिकित्सा व्यवस्था का लाभ मिल सके. इसके जरिये एक बार फिर देश में उन चिकित्सा पद्धतियों को मुख्य चिकित्सा व्यवस्था में सरकारी स्तर पर शामिल किया है, तो अंगरेजी चिकित्सा पद्धति की लोकप्रियता के कारण पीछे छूट गयी थीं. दरअसल, कई गंभीर बीमारियों के इलाज की इनमें गजब की ताकत है. राज्य के सदर अस्पतालों में टेलीमेडिसीन युक्त आयुष चिकित्सा की व्यवस्था की गयी है, जहां आप इन चिकित्सा पद्धतियों से इलाज का लाभ ले सकते हैं.

मधुमेह नियंत्रण कार्यक्रम
राज्य के ग्रामीण इलाकों में मधुमेह यानी डायबिटीज के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. जिस तरह की जीवन शैली विकसित हो रही है, उसमें इस बीमारी के और तेजी से बढ़ने का खतरा है. स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट कहती है कि देश में करीब पांच करोड़ लोग डायबिटीज के मरीज हैं. स्थिति यही रही, तो 2030 में यह संख्या दो गुनी हो जायेगी. इसलिए सरकार इसे रोकने को लेकर विशेष कार्यक्रम चल रही है. दरअसल डायबिटीज एक खतरनाक बीमारी है. यह मरीज के सभी अंगों को प्रभावित करता है. चिकित्सक इससे बचने के उपाय बताते हैं. सरकार उन्हीं उपायों के प्रति लोगों को जागरूक करने का अभियान चला रही है. इसके लिए कैंप लगाये जाने हैं और संदिग्ध मरीजों की पहचान कर उनकी जांच की जानी है.

फाइलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम
फाइलेरिया यानी हाथी पांव एक पुरानी बीमारी है. आज भी इसके मरीज हैं. इस बीमारी को रोकने के लिए राज्य में 1955-56 में विशेष कार्यक्रम चला था. कार्यक्रम को राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान, दिल्ली के सहयोग से चलाया गया था. अब 2004 से फिर से यह कार्यक्रम विशेष रूप से चलाया जा रहा है. यह बीमारी मच्छरों के कारण होती है. इसलिए कार्यक्रम के दो भाग हैं. एक भाग में शहरी इलाकों में मच्छरों के लार्वा को खत्म करने के लिए दवा का छिड़काव आदि किया जाता है. दूसरे भाग में फाइलेरिया के मरीजों की पहचान कर उन्हें दवा दी जाती है. दवा की मात्र निर्धारित है और यह चिकित्सकों की देखरेख में मरीजों को दी जाती है. इसके एवज में कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. इस क्रम में साल में एक बार सभी लोगों को डीआइसी और एलवेन्डा जोल की निर्धारित खुराक दी जाती है.

कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम
कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम महात्मा गांधी ने भी चलाया था और देश भर में इस बीमारी को खत्म करने के लिए एनजीओ ने भी कई स्तर के कार्यक्रम चलाये. इसका नतीजा भी मिला, लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ. 1980 के दशक में भी इस बीमारी के उन्मूलन और कुष्ठ रोगियों के इलाज व पुनर्वास के कार्यक्रम व्यापक स्तर पर चलाये गये. इसमें बहुचिकित्सा पद्धति (एमडीटी ड्रग) से रोगी का इलाज किया जाता है. अविभाजित बिहार में 1996-97 में इस पद्धति को बड़े पैमाने पर लागू किया गया. अभी राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित रूप में चलाया जा रहा है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को इसके लिए केंद्र सरकार धन दे रही है. यह माइक्रो वैक्टीरिम लेप्रोसी नामक जीवाणु से फैलता है. इसलिए बहुचिकित्सा प्रणाली को लागू किया गया. इसके तहत छह माह से एक साल तक रोगी का इलाज कर उसे कुष्ठ मुक्त किया जाता है. कुष्ठ रोग से अंग में गलन शुरू होती है और व्यक्ति नि:शक्त हो जाता है. इसलिए इस बात पर ज्यादा जोर है कि समय रहते मरीज की पहचान कर उसका इलाज शुरू किया जाये, ताकि उसे नि:शक्त होने से बचाया जा सके. जिन कुष्ठ रोगियों के अंग गल गये हैं, उनका ऑपरेशन कर स्वस्थ बनाया जाना है. कुष्ठ रोगियों के पुनर्वास की भी व्यवस्था है. मरीजों के इलाज, ऑपरेशन, पुनर्वास का खर्च सरकार उठाती है.

पोषण पुनर्वास केंद्र
बच्चों को कुपोषण से बचाने के कई कार्यक्रम चल रहे हैं. उन कार्यक्रमों में पोषण पुनर्वास केंद्र सबसे एडवांस है. गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के लिए यह जीवन रक्षक केंद्र है. यहां गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को 21 दिनों तक रखा जाता हैं. उन्हें चिकित्सकों की सलाह पर पोषाहार और दवा दी जाती है. उनकी माता या अभिभावक को भी केंद्र पर रखा जाता है और उनके खाने-रहने का खर्च सरकार उठाती है. उन्हें बच्चे के पोषण और सही-सही लापन-पालन का तरीका सिखाया जाता है. इसका उद्देश्य यह होता है कि जब बच्च केंद्र से वापस घर जाये, तो उसकी मां उसका पोषण सही-सही तरीके से कर सके. इस केंद्र पर गंभीर रूप से कुपोषित बच्चे की भरती के पहले उसके स्वास्थ्य, मल-मूत्र और खून की जांच डॉक्टर से करायी जाती है. अगर वह दूसरी बीमारी से भी पीड़ित होता है, तो उसे सदर या अनुमंडल अस्पताल भेज कर वहां उसका इलाज कराया जाता है. जब वह वहां स्वस्थ हो जाता है, तब उसे इस केंद्र पर रखा जाता है. 21 दिन बाद उसे वापस घर भेज दिया जाता है, लेकिन दो माह तक हर पंद्रह दिन पर उसे केंद्र पर बुला कर उसके स्वास्थ्य की जांच की जाती है. दरअसल कुपोषण से मुक्ति पाये बगैर स्वस्थ और सक्षम मानव संसाधन विकसित नहीं किया जा सकता है. राज्य में 50 प्रतिशत शिशु मृत्यु कुपोषण के कारण होती है. जो कुपोषित बच्चे बच जाते हैं, वे मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्ण विकास नहीं कर पाते हैं. उनमें रोगों से लड़ने की ताकत नहीं रह जाती है और वे न तो कठिन श्रम कर पाते हैं और न ही औसत उम्र तक जिंदा रह पाते हैं. पोषण पुनर्वास केंद्र आने वाले बच्चों पर होने वाला सभी तरह का खर्च सरकार उठाती है. आप इस योजना का लाभ लेने या किसी को दिलाने के लिए अपने गांव की सहिया दीदी से संपर्क कर सकते हैं.

संक्षिप्त जानकारी

प्रमंडलीय मुख्यालय में जिला स्तरीय अस्पताल के उन्नयन की योजना. इसके तहत इस वर्ष दवा, उपकरण आदि के मद में दो करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है.

रांची सदर अस्पताल में 500 शय्या वाले अस्पताल निर्माण के लिए 36 करोड़ का प्रावधान .

दुमका और खरसावां में 500 शय्या वाले नये अस्पताल का निर्माण कराया जाना है. इस पर 40 करोड़ रुपये खर्च होने हैं.

आरएमसीएच के विकास और संचालन पर खर्च के लिए 100 प्रतिशत अनुदान के तहत 20 करोड़ रुपये दिये गये हैं.

पीएमसीएच को 20 करोड़ रुपये दिये जाने हैं.

महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज और अस्पताल को स्थापना एवं विकास मद में 20 करोड़ देने का प्रावधान किया गया है.

होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज और अस्पताल गोड्डा, यूनानी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल गिरिडीह, आयुर्वेदिक चिकित्सा महाविद्यालय और अस्पताल चाईबासा तथा आयुर्वेदिक फार्मेसी कॉलेज साहिबगंज और गुमला के लिए पांच करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है.

परिवार कल्याण कार्यक्र म पर केंद्र का खर्च
झारखंड में परिवार कल्याण योजना पर चालू वित्त वर्ष में केंद्र सरकार 111.55 करोड़ रुपये खर्च कर रही है. यह खर्च आधारभूत संसाधन विकसित करने पर किया जा रहा है. किस मद में कितना खर्च होना है, यह हम आपको बता रहे हैं

निदेशक और प्रशासन 1166.54

स्वास्थ्य उप केंद्र 9417.65

शहरी परिवार कल्याण केंद्र 1,95.58

एएनएम, एलएचवी 295.42

स्वास्थ्य व परिवार कल्याण 79.57 प्रशिक्षण केंद्र, हजारीबाग

कुल योग 11154.76

(राशि लाख में)

केंद्र दे रहा पैसा, नहीं हो रहा खर्च

केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न वित्तीय वर्ष में झारखंड को स्वास्थ्य के क्षेत्र में आधारभूत संसाधन विकसित करने के लिए कई मदों में करोड़ों रुपये दिये गये, लेकिन राशि की निकासी नहीं की जा सकी. चालू वित्त वर्ष में फिर 950.57 लाख रुपये आवंटित किये गये हैं. यह सरकार की जिम्मेवारी है कि वह उसका सदुपयोग कराये.

होमियो उपचार किट की आपूर्ति 5.57

औषधि परीक्षण प्रयोगशाला, रांची 108.06

राजकीय आयुर्वेदिक फॉर्मेसी कॉलेज, चाईबासा 150.00

रि-ओरिएंटेशन प्रशिक्षण कार्यक्रम 2.94

12 जिला अस्पतालों में आयुष विंग 420.00

(35 लाख प्रति विंग की दर से)

12 जिलों में पंचकर्म थेरेपी केंद्र 264.00

(22 लाख प्रति केंद्र की दर से)

कुल योग 950.57 (राशि लाख में)

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