रजनीश उपाध्याय
1977 में जनता पार्टी प्रचंड बहुमत से केंद्र और बिहार में सत्ता में तो आ गयी, लेकिन कुछ ही दिनों में सरकार के भीतर मतभेद उभरा. जनता पार्टी में चार दल शामिल थे. ये थे – भारतीय लोकदल, जनसंघ, प्रजातांत्रिक कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी. इन दलों ने तय किया था कि जनता पार्टी के चुनाव चिह्न् और झंडे के तहत वे चुनाव लड़ेंगे और जरूरत पड़ी तो बाद में विलय भी कर लेंगे.
जनसंघ भी जनता पार्टी के साथ था और दोहरी सदस्यता का सवाल सामने आ गया. जनसंघ ने हाथ खिंच लिये. इस प्रभाव यह पड़ा कि 1979 में कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिर गयी. इसके चार माह बाद ही केंद्र में मोरारजी भाई देसाई की सरकार भी गिर गयी.चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बने, लेकिन कांग्रेस ने ऐन वक्त पर समर्थन से इनकार कर दिया. बिहार में सरकार गिरने की एक वजह तब के दो बड़े नेताओं कपरूरी ठाकुर और सत्येंद्र नारायण सिन्हा के बीच का मनमुटाव भी था. मोरारजी भाई की भी कपरूरी ठाकुर से पटरी नहीं बैठती थी.
वैसे 1977 बिहार की राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब गैर कांग्रेसवाद का नारा जमीन पर उतरा था. अब तक के चुनावी इतिहास में इसी साल समाजवादियों को सबसे ज्यादा 42.77 फीसदी वोट मिले. इसके बाद का दौर समाजवादी सोच वाली शक्तियों के बिखरने का दौर रहा.
1980 में फिर मध्यावधि चुनाव हुआ. तब जनता पार्टी से जनसंघ अलग हुआ. समाजवादियों के तीन अलग-अलग दल बने. विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी (चरण) को 42, जनता पार्टी (जेपी) को 13 और जनता पार्टी (राजनारायण) को एक सीट मिली. सबसे ज्यादा 15.60 फीसदी वोट जनता पार्टी (चरण) को मिले. बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी. उधर, चरण सिंह के नेतृत्व में बना दल लोकदल के साथ चला गया. राज नारायण भी अलग हो यये और उन्होंने जनता दल (एस) बनाया. 1982 में कपरूरी ठाकुर ने लोकदल (कपरूरी) बनाया, जिसमें जार्ज फर्नाडीस व बीजू पटनायक भी थे.
1983 में लोकदल (क) का जनता पार्टी में विलय हो गया. 21 अक्तूबर, 1983 को तीन दलों का विलय हुआ और नयी पार्टी दलित मजदूर किसान पार्टी (दमकिपा) बनी. चौधरी चरण सिंह इसके अध्यक्ष बनाये गये. इसमें तारकेश्वरी सिन्हा, कपरूरी ठाकुर, शरद यादव जैसे नेता थे. 1984 के लोकसभा चुनाव में दमकिपा को भारी निराशा हाथ लगी. लिहाजा, इसका नाम बदल कर फिर लोकदल रख दिया गया. 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव में लोकदल को 40 और जनता पार्टी को 12 सीटें मिलीं. चरण सिंह के निधन के बाद लोकदल दो भागों में बंट गया – लोकदल (अ) और लोकदल (ब). बाद में लोकदल (ब) का जनता पार्टी में विलय हो गया.
उधर, 1987 में जन मोर्चा के रूप में कांग्रेस के भीतर के समाजवादी सोच वाले नेताओं की एक धारा खड़ी हो रही थी. एक अगस्त, 1988 को समाजवादी जनता दल नामक नये संगठन की घोषणा हुई, जिसके अध्यक्ष बीपी सिंह बनाये गये. गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों का व्यापक एकता को नया आयाम तब मिला, जब 11 अक्तूबर, 1988 को बंगलोर में जनता दल का गठन हुआ. इसमें जनता पार्टी, लोकदल (ब) और जनमोर्चा शामिल हुआ.
1990 के विधानसभा चुनाव में बिहार की राजनीति में फिर एक नया मोड़ आया. जनता दल को 121 सीटें मिलीं. लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने. उनके मुख्यमंत्री बनने के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. तब मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार थे – लालू प्रसाद और रामसुंदर दास. आठ मार्च, 1990 को पटना के ब्रज किशोर मेमोरियल हॉल में जनता दल के नवनिर्वाचित विधायकों की बैठक हुई. जार्ज फर्नांडीस, अजीत सिंह और नीतीश कुमार के अलावा मुलायम सिंह यादव व शिवपूजन पटेल की मौजूदगी में विधायकों की राय ली गयी. इसका परिणाम तो घोषित नहीं हुआ, लेकिन लालू प्रसाद को विधायक दल का नेता चुना गया. 1990 से 1995 के बीच लालू प्रसाद ने मुसलमानों को अपने साथ जोड़ लिया और पिछड़ों को राजनीतिक आवाज दी.
1994 आते-आते नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बीच मतभेद उभरा और नीतीश कुमार ने समता पार्टी का गठन किया. लेकिन, 1995 के विधानसभा चुनाव में समता पार्टी को सिर्फ सात सीटें मिलीं, जबकि पार्टी ने 310 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किये थे और भाकपा माले जैसे धुर वामपंथी पार्टी के साथ तालमेल किया था. मंडलवाद की लहर पर सवार जनता दल 167 सीटें लाकर फिर सत्ता में आया. 1990 से 1997 तक लालू प्रसाद मुख्यमंत्री रहे. चारा घोटाला में आरोपित किये जाने के बाद राबड़ी देवी मुख्यमंत्री चुनी गयीं. इसी बीच पशुपालन घोटाले में लालू प्रसाद को अभियुक्त बनाये जाने और पद छोड़ने के सवाल पर जनता दल में विवाद उभरा. लालू प्रसाद ने अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल का गठन कर लिया. जनता दल में शरद यादव और उनके समर्थक रह गये. 2000 से 2005 के बीच कांग्रेस ने राबड़ी की सरकार को सहारा दिया. 1996 में समता पार्टी ने भाजपा के साथ चुनावी तालमेल किया और इसके बाद उसका ग्राफ ऊंचा होता गया. लेकिन, 2000 में राजद फिर सरकार बनाने में कामयाब रहा. नीतीश कुमार ने सरकार बनाने की कवायद शुरू की थी, लेकिन बहुमत साबित करने में असफल रहे.
30 अक्तूबर, 2003 को समता पार्टी और जनता दल का विलय हो गया. नया दल बना जद यू. इसके पहले रामविलास पासवान ने नवंबर, 2000 में लोजपा का गठन किया. फरवरी, 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में जद यू को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. लोजपा के कई विधायक टूट कर जद यू के साथ आ गये. नवंबर, 2005 में भाजपा व जद यू के गंठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. 2010 के विधानसभा चुनाव में लोजपा 75 सीटों पर चुनाव लडी, जबकि लालू की पार्टी राजद ने 158 पर अपने उम्मीदवार उतारे. लोजपा को तीन सीटें मिलीं और राजद 22 सीटों पर सिमट गया. 2013 में जदयू और भाजपा का 17 साल पुराना गंठबंधन टूटा.
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के उभार के बाद एक बार फिर समाजवादी धारा और जनता परिवार के बीच एका की पहल शुरू हुई. जद यू, राजद, सपा, जद (एस), आइएनएलडी और सजपा ने विलय का फैसला भी किया. लेकिन, यह आकार नहीं ले पाया. जद यू और राजद ने कांग्रेस से तालमेल कर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. दो दशक बाद लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की दोस्ती से बिहार की राजनीति पर क्या असर होगा, इसकी परीक्षा इसी साल विधानसभा चुनाव में होगी.