चेतना से जगी हिस्सेदारी की भूख
अजय कुमार समाज विकास के क्रम में कई चीजे सतह के नीचे चली जाती हैं और सतह की कई चीजे ऊपर आ जाती हैं. विभिन्न जातियों की पहचान, गैर बराबरी के खिलाफ आवाज और संसाधनों में हिस्सेदारी की चाहत उसी विकास प्रक्रिया का अहम हिस्सा है. बिहार में पिछड़ी जातियों की संगठित आवाज की अभिव्यक्ति […]
अजय कुमार
समाज विकास के क्रम में कई चीजे सतह के नीचे चली जाती हैं और सतह की कई चीजे ऊपर आ जाती हैं. विभिन्न जातियों की पहचान, गैर बराबरी के खिलाफ आवाज और संसाधनों में हिस्सेदारी की चाहत उसी विकास प्रक्रिया का अहम हिस्सा है. बिहार में पिछड़ी जातियों की संगठित आवाज की अभिव्यक्ति पहली बार चालीस के दशक में उभरकर सामने आयी. 30 मई 1933 को यादव, कुर्मी और कुशवाहा जाति के सक्रिय नेताओं की पहल से त्रिवेणी संघ अस्तित्व में आया. शाहाबाद के करहगर में इस मंच की पहली बैठक हुई. इसके तकरीबन दो साल बाद 1935 में प्रदेश स्तर पर त्रिवेणी संघ का गठन किया गया.
सामाजिक भेदभाव जबरदस्त था और इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा सकता था. इसे सव्रे सेटलमेंट की रिपोर्ट के आधार पर समझा जा सकता है. दूसरे कई तरह के लगान की व्यवस्था थी. लेकिन जो बात दस्तावेजों में नहीं मिलती, वह थी जाति आधारित लगान की व्यवस्था. बुकानन और हंटर जैसे अंग्रेजों ने सव्रे सेटलमेंट के पहले अपनी रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह जाति आधारित लगान की परिपाटी कायम थी. हंटर ने अपनी रिपोर्ट में विवरण दिया है कि चंपारण जिले में रैयत की जाति के आधार पर लगान तय किया जाता था. उच्च जाति के रैयत को कम लगान देना पड़ता था और निम्न जातियों के रैयत को उसकी तुलना में ज्यादा लगान की अदायगी करनी पड़ती थी. पूर्णिया जिले की अपनी रिपोर्ट के संदर्भ में बुकानन का कहना है कि मजदूर जाति के रैयतों को अन्य जातियों की तुलना में अधिक लगान देना पड़ता था.
समानता की चाहत और जनेऊ आंदोलन
1899 में पटना जिले के मनेर में आर्यसमाज की स्थापना हुई. आर्यसमाज के धार्मिक सुधार आंदोलन से प्रभावित होकर कई ग्वालों ने जनेऊ धारण कर लिया. जाहिर है कि निम्न जातियों का जनेऊ धारण करना उच्च जाति के कट्टरपंथी हिंदुओं को बुरा लगा. पिछड़ों में स्वाभिमान की जगी आकांक्षा दबने का नाम नहीं ले रही थी. बड़ी संख्या में पिछड़ों ने जनेऊ धारण कर खुद को गैर बराबरी के बंधन को तोड़ने की कोशिश की. जनेऊ धारण करने वालों पर हिंसक हमले के बावजूद पिछड़ों-दलितों में इस आंदोलन का असर बढ़ता जा रहा था. अगले एक दशक के दौरान इसने एक जनांदोलन का स्वरूप ग्रहण कर लिया. राज्य के हर इलाके में जनेऊ आंदोलन ने पिछड़ों-दलितों को आकर्षित किया. जगह-जगह उनके साथ मारपीट की घटनाएं भी हुईं.
चुनाव और जातिवाद
1927 में जिला बोर्ड के चुनाव परिणाम आये. तिरहुत डिविजन के आयुक्त एपी मिडल्टन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा: दरभंगा और मुजफ्फरपुर में मुकाबला बाभन और राजपूतों के बीच था. जबकि सारण में बाभन और कायस्थों के बीच. अधिकांश बाभन उम्मीदवारों को कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था. गया में भी जाति के आधार पर विभाजन की रेखाएं खिंच गयी थीं. लेकिन वहां बाबू सुरेंद्र नारायण ने खुद बाभन नहीं होने का फायदा उठाया और ग्वालों की सहानुभूति अजिर्त कर ली. वह चुनाव जीत गये. मिडल्टन ने कहा है कि गांधी जी के नाम का हर उम्मीदवार इस्तेमाल कर रहा था और इसके आधार पर वोट हासिल करना चाहता था. बिहार के जिला बोर्ड के हुए चुनाव में कुल 354 सदस्य निर्वाचित हुए. इनमें 236 ऊंची जाति के थे. 1930 के जिला बोर्ड के चुनाव में जातीय संगठनों और मंच की सक्रियता बढ़ गयी थी. 1933 में हुए चुनाव के संदर्भ में पूर्णिया के तत्कालीन डीएम की रिपोर्ट का उल्लेख करना जरूरी है. उन्होंने लिखा: जिला बोर्ड के चुनावों में आम रैयत भी राजनीतिक प्रक्रिया में खिंच आये. उन दिनों इस राजनीति प्रक्रिया पर ब्राह्मण, राजपूत, बाभन और कायस्थों का वर्चस्व था. लेकिन इन जातियों के बीच भारी प्रतिद्वंद्विता थी. इसके कारण पिछड़ी-दलित जातियों के साथ इन जातियों के समीकरण बन रहे थे. मधेपुरा में यादव और पटना में कुर्मी अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहे थे.
1937 का चुनाव और पिछड़ा उभार
1937 के विधानसभा चुनाव में त्रिवेणी संघ ने कांग्रेस उसके कुछ उम्मीदवारों के नाम पर विचार करने का आग्रह किया. इस मुतल्लिक संघ के नेता गौचरण सिंह ने कांग्रेस नेताओं से बात की. पहले कहा गया कि खद्दरधारी को लाओ तो उसके नाम पर विचार होगा. जब खद्दरधारी लाये गये तो कहा गया कि ऐसा खद्दधारी चाहिए जो जेल भी जा चुका हो. जब ऐसे उम्मीदवार सामने लाये गये तो कहा गया कि वहां क्या सांग-भंटा बोना है. किसी को कहा गया कि क्या वहां भैंस दूहना है. किसी को कहा गया कि क्या वहां भेड़ें चरानी है और किसी को कहा गया कि क्या वहां नमक-तेल तौलना है? कांग्रेस ने त्रिवेणी संघ के उम्मीदवारों को एक भी टिकट नहीं दिया तो संघ ने खुद चुनाव में उतरने का फैसला किया. चुनाव में संघ के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा. लेकिन इस पहलकदमी ने पिछड़ों में जबरदस्त उत्साह भर दिया था. उस समय के विधानसभा चुनाव के बारे में डब्ल्यू जी मेसी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है : बदलते समय का संकेत था त्रिवेणी संघ का अभ्युदय. यह ग्वाला, कुर्मी और कोयरी मतदाताओं के समर्थन पर आश्रित था.
सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग
यूं बिहार में पहली सरकार बनने के साथ ही पिछड़ों ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग शुरू कर दी थी. पटना में पुलिस सब इंस्पेक्टरों के 24 पदों पर बहाली हुई. गजाधर महतो ने इस बहाली के बारे में जांच करने की मांग करते हुए आवेदन दिया. जांच में यह तथ्य सामने आया कि 24 पदों में से केवल एक पर यादव और दूसरे पर मोमिन उम्मीदवार की बहाली हो पायी थी.नौकरियों में आरक्षण का मामला छिटपुट तरीके से चलता रहा. पर 1952 में वैद्यनाथ सिंह ने विधानसभा में सरकारी नौकरियों में पिछड़ों-दलितों के आरक्षण के समर्थन में एक गैर सरकारी विधेयक पेश किया. वह विधेयक 52 मतो के मुकाबले 180 मतों से नामंजूर हो गया.
सोशलिस्ट धारा की राजनीति
1931 में सोशलिस्ट पार्टी बनी. इसके बाद जमींदारों की युनाइटेड पार्टी बनी और 1937 में बाबू जगजीवन राम ने प्रांतीय खेत मजदूर सभा का गठन किया. उसके अगले साल ही आदिवासी महासभा बना. सोशलिस्ट पार्टी का आधार पिछड़ों का बड़ा हिस्सा था क्योंकि वह कांग्रेस से इतर वह उदारवादी जनवाद और समानता की बात करता था.
1949 में डॉ लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने पटना में रैली की. उन्होंने जमींदारों को न जमीन न लगान देने का आह्वान किया. इसके नेताओं ने कांग्रेस की हुकूमत का भंडाफोड करते हुए सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानता दूर करने की बात की. सरकारी नौकरियों में आबादी के अनुपात में स्थान सुरक्षित करने जैसे सवाल केंद्र में आ गये. यह सोशलिस्ट राजनीति का ही असर था कि 1967 में कांग्रेस सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा और राज्य में संविद सरकार बनी.
आरक्षण पर बवाल
22 जून 1977 को राज्य में कपरूरी ठाकुर की सरकार बनी. उस सरकार ने 1978 के पहली अप्रैल से सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था लागू कर दी. आरक्षण लागू होते ही समाज दो हिस्सों में विभाजित हो गया. इसके पक्ष और विरोध में कार्यक्रम होने लगे. आरक्षण के तहत अन्य पिछड़ी जातियों को आठ फीसदी, अति पिछड़ी जातियों को 12 फीसदी, महिलाओं और आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण जाति के लोगों को तीन-तीन फीसदी आरक्षण दिया जाना था. इसके पहले दारोगा प्रसाद राय ने मुंगेरी लाल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था. पर आयोग की सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी.
बाद में 1989 के दौरान वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया. इसके तहत सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण दी जानी थी. इसके लागू होते ही देश भर में हंगामा हो गया. इसके विरोध व समर्थन में लोग सड़क पर उतर गये. आरक्षण से पैदा हुए सामाजिक उथल-पुथल ने पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों को गोलबंद कर दिया. 1990 में विधानसभा में जहां पिछड़ी जाति के विधायकों की तादाद 117 थी, वह 1995 के चुनाव में बढ़कर 161 हो गयी. इनमें यादव, कुर्मी, कोयरी और बनिया जाति के विधायकों की तादाद सर्वाधिक थी.