आकांक्षाओं का उभार लोकतंत्र के लिए शुभ
महेंद्र सुमन, सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव से सबका रिश्ता है. लिहाजा चुनाव के वक्त जातीय संगठन भी सक्रिय हो जाते हैं. यह स्वाभाविक भी है. इसे इस रूप में देखने की जरूरत नहीं है कि बिहार में जातिवाद है और यहां कुछ नहीं हो सकता है. जाति की गोलबंदी राजनीतिक एजेंडे के तहत होती है. मंडल […]
महेंद्र सुमन, सामाजिक कार्यकर्ता
चुनाव से सबका रिश्ता है. लिहाजा चुनाव के वक्त जातीय संगठन भी सक्रिय हो जाते हैं. यह स्वाभाविक भी है. इसे इस रूप में देखने की जरूरत नहीं है कि बिहार में जातिवाद है और यहां कुछ नहीं हो सकता है. जाति की गोलबंदी राजनीतिक एजेंडे के तहत होती है.
मंडल आंदोलन के समय भी जातियों की गोलबंदी हुई थी. उस समय भी यह एक राजनीतिक एजेंडा था. उसका ओबीसी को फायदा हुआ. समाज, राजनीति और सत्ता में उनका दखल बढ़ा. मुख्यधारा से वह जुड़े.
दलित और अति पिछड़ी जातियों को लगने लगा कि उन्हें समाज में वह हक नहीं मिला है, जिसके वह हकदार हैं. इसलिए उन्होंने भी अपनी ताकत को एकजुट करना शुरू किया. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने दलित और अति पिछड़ों की आकांक्षाओं को ताकत दी.
जातियों की आकांक्षाओं का उभार डेमोक्रेसी के लिए अच्छा है. जरूरत है राजनीतिक पार्टियों को उनकी आकांक्षाओं के साथ अपने को जोड़ने की. इसको एक उदाहरण के साथ समझा जा सकता है. एक अगड़ी जाति का संगठन है और एक दलित या अति पिछड़ी जाति का.
अगड़ी जाति का संगठन अपने अधिकारों को बचाये रखने के लिए बना है और दलित या अति पिछड़ी जाति का संगठन अपने अधिकारों को पाने के लिए. ऐसे संगठन संविधान के दायरे में काम करें, तब हमारे लोकतंत्र के लिए यह अच्छा है. इससे बैकबेंचर को आगे आने का मौका मिलता है.