अपराधीकरण से लोकतंत्र को चुनौती
राजीव कुमार दागी व्यक्तियों की राजनीति में बढ़ती तादाद चिंतित करने वाली है. इससे गवर्नेंस में गिरावट आती है और यह विधि व्यवस्था को भी प्रभावित करती है. लंबे अरसे से राजनीति में अपराधीकरण को लेकर चिंता प्रकट की जाती रही है, लेकिन इस दिशा में ठोस पहल का अभाव दिख रहा है. इसे लेकर […]
राजीव कुमार
दागी व्यक्तियों की राजनीति में बढ़ती तादाद चिंतित करने वाली है. इससे गवर्नेंस में गिरावट आती है और यह विधि व्यवस्था को भी प्रभावित करती है. लंबे अरसे से राजनीति में अपराधीकरण को लेकर चिंता प्रकट की जाती रही है, लेकिन इस दिशा में ठोस पहल का अभाव दिख रहा है. इसे लेकर राजनीतिक दलों की मंशा ठीक प्रतीत नहीं हो रही है.
राजनीति के अपराधीकरण को लेकर चुनाव सुधार बेहद जरूरी प्रतीत होता है. वर्तमान कानून में सिर्फ उन्हीं लोगों को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जा सकता है, जिन्हें अपराधी घोषित किया गया हो. अभी ऐसी सीमा निर्धारित नहीं है, जिसके तहत ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ न्यायिक कार्यवाही में तेजी लायी जाये, जिनके विरूद्व आरोप पत्र दायर किये जा चुके हों. कानून में संशोधन कर यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि वैसे व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, जिनके विरुद्व आरोप पत्र दायर किया जा चुका है.
तस्करी जैसे संगीन अपराधों के सजायाफ्ता को किसी भी राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ने से स्थायी रूप से वंचित कर दिया जाना चाहिए. सर्वप्रथम वोहरा कमेटी ने पूरे देश में आपराधिक गिरोहों के बढ़ते वर्चस्व और राजनेता, नौकरशाह और अपराधियों की साठगांठ की बात की थी. संभवत: वोहरा समिति की सिफारिश के बाद ही ‘राजनीति का अपराधीकरण’ और ‘अपराध का राजनीतिकरण’ जैसे जुमले लोकप्रिय हुए. हालांकि इसका सीधा संबंध चुनाव सुधार से नहीं था, लेकिन इस समिति को प्रसिद्वि मिली. सिफारिशों पर अमल करना तो दूर इसे सार्वजनिक तक नहीं किया गया.
इस संदर्भ में 1998 में एक प्रस्ताव चुनाव आयोग ने भी सरकार को भेजा था, जिसका उद्देश्य गंभीर अपराधों के आरोपी व्यक्ति को चुनाव में भाग लेने से मना करना था. अनेक राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया. इसकी अगली कड़ी हम 2013 के वर्ष को मान सकते हैं, जिसमें न्यायालय की सक्रियता की वजह से ऐतिहासिक फैसले आये.
अदालत ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-8 (4) को असंवैधानिक घोषित करते हुए 10 जुलाई, 2013 को यह फै सला सुनाया कि किसी वर्तमान संसद सदस्य या विधायक को किसी आपराधिक मामले में यदि निचली अदालत द्वारा भी दो वर्ष या उससे अधिक की कारागार की सजा सुनाई जाती है तो उसकी सदस्यता चली जायेगी. इस दिशा में 10 मार्च, 2014 को अदालत ने एक जनहित याचिका की सुनवाई पर निचली अदालत को आदेश दिया कि वे वर्तमान सांसदों और विधायकों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों में फैसला एक वर्ष के भीतर सुनाये और संबद्व उच्च न्यायालयों में भी वे ऐसे मामलों की सुनवाई की प्रगति पर निगरानी रखे.
इस संबंध में सत्तारूढ़ दल के प्रधानमंत्री ने भी कई बयान दागियों को लेकर दिये हैं, लेकिन एक वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद दूर -दूर तक बदलाव के संकेत नहीं मिल रहे. साफ-सुथरे लोकतंत्र के हिमायती लोगों को ठोस पहल का इंतजार है.