बात एक कदम आगे तो बढ़ी
प्रो एमएन कर्ण समाजविज्ञानी नोटा को एक ऐसे कदम के रूप में देखा जाना चाहिए, जो भविष्य में बहस के नये केंद्र खोलेगा. यह सही है कि प्रतिनिधि वापसी का अधिकार की मांग एक दौर में काफी मुखर थी. पर नोटा के पीछे उस मांग की बड़ी भूमिका रही. हालांकि दोनों दो तरह की बात […]
प्रो एमएन कर्ण
समाजविज्ञानी
नोटा को एक ऐसे कदम के रूप में देखा जाना चाहिए, जो भविष्य में बहस के नये केंद्र खोलेगा. यह सही है कि प्रतिनिधि वापसी का अधिकार की मांग एक दौर में काफी मुखर थी. पर नोटा के पीछे उस मांग की बड़ी भूमिका रही. हालांकि दोनों दो तरह की बात है. फिर भी, एक अधिकार तो मिला.
आने वाले समय में लोग इस पर विचार करेंगे और हो सकता है कि बात यहां से आगे भी बढ़े. नोटा आम वोटरों को अभिव्यक्त करने का मौका तो दिया ही है. आपको कोई उम्मीदवार पसंद नहीं हो तो उसे आप खारिज कर सकते हैं. कई चरमपंथी संगठन पहले जहां बूथों तक नहीं जाते थे और वोट बहिष्कार करते थे, अब कम से कम वे बूथ तक तो जायेंगे.
यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सीमाओं का विस्तार भी तो है. निश्चय ही इन प्रक्रियाओं से दृष्टि बदलती है और दिशा भी परिवर्तित होती है. दुनिया भर में जितनी भी विचाराधाराएं है, उसमें परिवर्तन चलता रहता है. यही वह प्रक्रिया है जो तरह-तरह की गुत्थियों को सुलझाने में हमें मदद करती है. नोटा के इस्तेमाल की व्यवस्था को इसी संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है. हमारी संसदीय व्यवस्था में कई खामियां हैं.
आप दुनिया के पैमाने पर देखें, तो पायेंगे कि वहां की व्यवस्था कैसे बिगड़ गयी है. किसी भी जीवंत समाज का यह लक्षण होता है कि वह प्राय: बेहतरी की ओर देखता है. प्रतिनिधि वापसी का अधिकार निश्चय ही बड़ा मुद्दा है. पर उसका संदर्भ दूसरा था. पर उस दिशा में एक कदम के तौर पर नोटा को देख जा सकता हैँ.