जात-पांत से बाहर निकले राजनीति

लंबे समय तक राज्य से बाहर रहने के बाद मैंने जो अपने राज्य के बारे में महसूस किया वह यह है कि देश भर में बिहार की राजनीति की पहचान जाति और धर्म के नाम से होती है. देश के ज्यादातार हिस्सों में जब भी बिहार की राजनीति या फिर चुनाव की बात छिड़ती है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 16, 2015 5:15 AM
लंबे समय तक राज्य से बाहर रहने के बाद मैंने जो अपने राज्य के बारे में महसूस किया वह यह है कि देश भर में बिहार की राजनीति की पहचान जाति और धर्म के नाम से होती है. देश के ज्यादातार हिस्सों में जब भी बिहार की राजनीति या फिर चुनाव की बात छिड़ती है, तो लोग जाति और धर्म की ही बात करते हैं.
ऐसा शायद इसलिए भी है कि बिहार देश के उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां की राजनीति जाति और धर्म के इर्द-गिर्द आज भी घूम रही है तथा इन दोनों की यहां गहरी पैठ भी है.
बिहार में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है और जल्द ही इस बात का फैसला भी हो जायेगा कि सूबे में इस बार किसकी सरकार बनेगी. सरकार बनने की यह प्रक्रिया चुनाव के दौर से गुजरेगी और इसमें सबसे अहम योगदान हर बार की तरह जनता का ही होगा. ऐसे में यह जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल और उनके राजनेता जनता का भरोसा जीतने की कोशिश करें.
यदि उन्होंने जनता का भरोसा जीत लिया, तो जाहिर-सी बात है कि जीत उनकी ही होगी. लेकिन जनता का भरोसा जीतना इतना आसान नहीं है, क्योंकि जनता में हर तरह के लोग शामिल हैं और सभी की सोच एक जैसी नहीं हो सकती. सभी की आवश्यकताएं और सभी की मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं. फिर भी यह माना जाता है कि कम-से-कम एक विशेष वर्ग की आवश्यकताएं और मान्यताएं समान होती हैं. इसी वजह से राजनेता यह कोशिश करते हैं कि उस वर्ग की उन आवश्यकताओं की पूर्ति करके किस तरह उनका समर्थन ले लिया जाये.
बिहार में इस तरह के वर्ग को जाति और धर्म से जोड़ दिया गया है. राजनीतिक दलों की यही कोशिश रहती है कि वे जाति और धर्म के आधार पर लोगों को तोड़ने की कोशिश करें और उनके बहला-फुसला कर चुनाव में उनका वोट मांगें. यही वजह है कि चुनाव के वक्त वे संबंधित क्षेत्र की जनता को अलग-अलग वर्गो में बांट कर देखते हैं और विभिन्न वर्गो के प्रतिशत के आधार पर ही प्रत्याशी का चुनाव करते हैं.
यह प्रत्याशी भी उसी वर्ग से जुड़े होते हैं, ताकि उन्हें वोट मिल सके. ऐसे में राजनीतिक दल विकास के मुद्दों का दरकिनार कर देते हैं. वे इस बात की चर्चा नहीं करते कि संबंधित क्षेत्र में लोगों की समस्याएं क्या हैं? लोगों की कौन-सी जरूरतें अब तक पूरी नहीं हो पायी हैं और क्या ऐसा किया जाये कि उस क्षेत्र के लोगों को बेहतर अवसर मिल पाये और वे एक खुशहाल जिंदगी जी सकें? इसके बजाय वे केवल इस जोड़-गणित में लग जाते हैं कि उस इलाके में किस जाति के कितने लोग हैं और किसे चुनाव में उतारा जाये कि उनका वोट उन्हें मिल जाये.
खैर जो भी हो, लेकिन एक बात तो तय है कि जाति और धर्म इस बार भी चुनाव के नतीजों को प्रभावित करेंगे. फिर भी उम्मीद की किरण अब जगी है. मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा इस बार युवाओं का है. युवाओं की सोच अब तक चली आ रही अवधारणाओं से अलग है और वह जात-पांत व धर्म से ऊपर उठ कर विकास के बारे में सोच रहे हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों को परंपरागत मुद्दों के आधार पर उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करना आसान नहीं होगा. ये युवा शिक्षित हैं. वे जागरूक हैं.
उन्हें मालूम है कि कौन उन्हें किसी तरह से उल्लू बनाना चाहता है. उन्हें सही और गलत का अंतर मालूम है. उन्हें मालूम है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में क्रांति क्यों हुई है और उससे भारत को क्या सीख लेने की जरूरत है. ऐसे में मत डालने से वह पूर्व वे इस बात को आकलन कर ही लेंगे कि बिहार की राजनीतिक स्थिति इस समय क्या है और किसे वोट देना बिहार के लिए बेहतर होगा?
किसी ने ठीक ही कहा है, फूट का घड़ा भरा है, फोड़ कर बढ़े चलो. भला हो जिसमें देश का, वह काम सब किये चलो. ऐसी ही सोच की देश को आवश्यकता है. इसी सोच के साथ बिहार भी आगे बढ़ सकता है.

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