स्वावलंबन की राह पर चले बिहार
कमलेश कुमार सिंह बेंगलुरु से ‘थे महाराष्ट्र, गुजरात उठे. पंजाब, ओडिशा साथ उठे. बंगाल इधर, मद्रास उधर. मरुस्थल में थी ज्वाला घर-घर.’ एक खंडकाव्य में कवि ने भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई का जिक्र कुछ इस प्रकार से किया है. स्वतंत्रता से पहले देश पूरी तरह से एकजुट था. हर धर्म, हर जाति, हर क्षेत्र, हर […]
कमलेश कुमार सिंह
बेंगलुरु से
‘थे महाराष्ट्र, गुजरात उठे. पंजाब, ओडिशा साथ उठे. बंगाल इधर, मद्रास उधर. मरुस्थल में थी ज्वाला घर-घर.’ एक खंडकाव्य में कवि ने भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई का जिक्र कुछ इस प्रकार से किया है.
स्वतंत्रता से पहले देश पूरी तरह से एकजुट था. हर धर्म, हर जाति, हर क्षेत्र, हर भाषा के लोग बस यही चाहते थे कि देश किसी तरह से आजाद हो जाये. चाहे उसके लिए कितनी बड़ी कुरबानी भी क्यों न देनी पड़े. तभी तो सभी ने एकता का परिचय देते हुए आजादी की लड़ाई साथ लड़ी और अंत में आजादी पा ही ली. आजाद भारत में गणतंत्र लागू होने के बाद शासन उस जनता के हाथों में चला गया, जिसने आजादी की लड़ाई लड़ी और इसके लिए सर्वस्व न्योछावर करने से भी नहीं चूकी. लेकिन वक्त के थपेड़ों के साथ इस लोकतंत्र में उसी जनता को दरकिनार किया जाने लगा, जो लोकतंत्र की असली ताकत है.
धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बन गयी कि केवल चुनाव के समय ही जनता जर्नादन बनने लगी और चुनाव बीत जाने के बाद उसे कोई पूछनेवाला भी नहीं रहा. ऐसी परिस्थिति में आमचुनाव की महत्ता अब और बढ़ गयी है. साथ ही आमचुनाव में भाग ले रही जनता की जिम्मेवारी भी अब पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है.
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जनता को केवल वोट डालने के लिए नहीं जाना है, बल्कि उस बदलाव के लिए जाना है, जिसकी इस राज्य को दरकार है. वोट डालने से पूर्व जनता को अच्छी तरह से सोच-विचार लेना चाहिए कि आखिर कौन-सा प्रतिनिधि सही मायने में उनके लिए काम करनेवाला है और कौन नहीं.
यदि अभी सही फैसला करने से चूक गये, तो फिर पांच साल तक इस गलती की सजा भुगतनी पड़ेगी.इसलिए वोट डालने से पहले आंख, नाक, कान सब खुले रख कर इस चीज का विश्लेषण कर लेना चाहिए कि चुनाव में खड़े हो रहे प्रतिनिधि जनता के प्रति जिम्मेवारियों को निभाने में कितने सक्षम हैं और उनकी पृष्ठभूमि किस प्रकार की रही है.
ईमानदार और साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार ही केवल जनता का भला कर सकते हैं. यदि बागडोर वैसे लोगों के हाथों में चली गयी, जो भ्रष्टाचार में डूबे हैं, जिन पर अपराध के गंभीर आरोप लगे हैं और जिनके बारे में लोग भली-भांति जानते हैं कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, तो राज्य की सूरत बिगड़ते देर नहीं लगेगी.
आजादी के बाद लंबे समय तक उपेक्षा का शिकार रहे बिहार ने जितनी भी प्रगति की है, उस लय को बरकरार रखने के लिए ऐसे लोगों का सत्ता में आना जरूरी है, जिनका एजेंडा सिर्फ विकास का हो. जो जाति और धर्म पर आधारित राजनीति करने की बजाय, विकास की राजनीति करें. बिहार की जनता को जरूरत है शिक्षा की, बेहतर चिकित्सा व्यवस्था की, सड़क और बिजली की.
इनकी कमी की वजह से ही राज्य का विकास बार-बार अवरुद्ध हो रहा है. जो उम्मीदवार जनता को इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने का माद्दा रखते हैं, असल में उन्हीं को जनता से वोट भी मांगना चाहिए. फिर भी यदि ऐसे लोग चुनाव में खड़े हैं, जो केवल किसी तरह से जीत कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं और लोकतंत्र में भाई-भतीजावाद के सिद्धांत को हवा देना चाहते हैं, तो ऐसे लोगों की पहचान कर जनता को इन्हें ऐसा जवाब देना चाहिए कि वे दोबारा चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकें.चुनाव लोकतंत्र का एक पवित्र पर्व है. पर्व-त्योहार में अपवित्र चीजों के लिए कोई जगह नहीं होती.
इसलिए चुनाव में ऐसे ही लोगों को खड़ा भी होना चाहिए, जिनका चरित्र उत्तम हो और जो सच में जन प्रतिनिधि बनने के काबिल हों. यहां तक कि जनता को भी चाहिए कि वह लोकतंत्र के इस पवित्र पर्व का मान रखते हुए वैसे ही लोगों के हाथों में सत्ता सौंपे, जो अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी से राज्य को बाहर निकाल कर विकास के रास्ते पर ले जा सके.