‘जय जवान, जय किसान’ के नारे के साथ देश को नया आत्मविश्वास देने वाले पूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री की मौत सहज नहीं थी, यह मत केवल परिजनों का ही नहीं, कई विशिष्ट से लेकर आम लोगों का भी है. शक के कई कारण हैं, उनकी मौत के बाद निजी डॉक्टर की संदेहास्पद मौत, निजी सहायक के स्मृति का जाना. मूल सवाल है कि शास्त्री जी की मौत की असली दास्तान से मुकम्मल तौर पर पर्दा उठेगा क्या? इन्हीं बातों सवालों पर नजर डालती इस शृंखला की अंतिम कड़ी.
अनिल शास्त्री ने धर्म तेजा के साथ पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी की मौत का जो कनेक्शन जोड़ने की कोशिश की है, उसका कारण ये है कि बतौर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने नेहरू के चचेरे भाई और विदेश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे आरके नेहरू को रिटायरमेंट के बाद तेजा की कंपनी ज्वाइन करने की इजाजत देने से मना कर दिया था. यही नहीं, शास्त्री ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो मुहिम चलायी थी, उसमें धर्म तेजा के पकड़े जाने की बारी आने ही वाली थी. यही कारण था कि तेजा बाद में भारत छोड़कर भाग भी गया. मथाई ने अपनी पुस्तक में तो यहां तक जिक्र किया है कि विदेश भागने के बाद नवंबर 1970 में लंदन की एक अदालत में तेजा ने यहां तक कहा था कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए 1966 में उनके करीबी उमाशंकर दीक्षित ने नेशनल हैरल्ड नामक अखबार के लिए दस लाख रुपये मांगे थे और तत्कालीन वाणिज्य मंत्री मनुभाई शाह ने भी ये कहा था कि अगर रुपये नहीं दिये गये, तो तुम बरबाद हो जाओगे.
तेजा की इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर क्या ये कहा जा सकता है कि शास्त्री की मौत अगर सहज नहीं थी, तो उसमें तेजा का भी कोई हाथ था. दरअसल अनिल शास्त्री का ये कहना है कि शास्त्री जी की मौत के दौरान ताशकंद में उनके निजी डॉक्टर के तौर पर गये आरएन चुग की भी कुछ समय बाद संदेहास्पद परिस्थितियों में परिवार सहित सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी. यही नहीं, शास्त्री का निजी सहायक भी एक दुर्घटना का शिकार हुआ और उसकी स्मृति जाती रही. अनिल शास्त्री ने ताजा आरोपों की कड़ी में भारत के सोवियत रूस में तत्कालीन राजदूत टीएन कौल और दूतावास के बाकी अधिकारियों की भूमिका पर भी सवाल उठाये हैं, जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री के कमरे में न तो कॉल बेल की व्यवस्था की थी और न ही फर्स्ट एड या टेलीफोन की. यहां तक कि हालत बिगड़ने पर खुद शास्त्री को कराहते हुए अपने कमरे का दरवाजा खोलना पड़ा था. बाद में लोकसभा के अंदर धर्मेश देव नामक एक निर्दलीय सांसद ने भी टीएन कौल के ऊपर सीधा आरोप ये लगाया था कि वो खुद शास्त्री की मौत की साजिश में शामिल थे और सोवियत संघ की समर्थक इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपने सोवियत आकाओं के कहने पर अपने घर से शास्त्री के लिए जहर मिलाया हुआ खाना भेजा था, जिसकी वजह से शास्त्री की मौत हुई. इस प्रसंग का जिक्र भी नैयर ने अपनी किताब में किया है.
अनिल शास्त्री का ये भी आरोप है कि उनके पिता की लाल डायरी, जो वो हमेशा अपने पास रखते थे, वो भी गायब पायी गयी, जो संदेह बढ़ने की एक और वजह है.
परिवार की मांग के बावजूद शास्त्री की मौत के मामले में जांच न होने की वजह से इसे लेकर विवाद और बढ़ा है. अब मांग इस बात की भी हो रही है कि शास्त्री की मौत से जुड़ी जो फाइल विदेश मंत्रालय में है, उसे सार्वजनिक किया जाए. कुलदीप नैयर के मुताबिक 2009 में इसे लेकर आरटीइ के तहत जानकारी की मांग की गयी थी, लेकिन तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसे सार्वजनिक हित में जारी करने से मना कर दिया था.
शास्त्री की मौत के पांच दशक बाद इन ताजा विवादों के बीच सवाल ये कि क्या खुद शास्त्री को अपनी मौत का आभास हो चुका था. उनके निजी सचिव रहे सीपी श्रीवास्तव शास्त्री की जीवनी ‘Lal Bahadur Shastri- A life of truth in politics’ में लिखते हैं कि 10 जनवरी 1966 की सुबह ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर से पहले शास्त्री ने कागज के एक टुकड़े पर मशहूर शायर सकिब लखनवी का ये शेर लिखा था-
‘जमाना बड़े शौक से सुन रहा था
हमीं सो गये दास्तान कहते-कहते’
सवाल ये कि शास्त्री की मौत की असली दास्तान से मुकम्मल तौर पर पर्दा उठेगा क्या? इसका इंतजार शास्त्री के परिवार के अलावा देशवासियों को भी है, जो ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे के साथ देश को नया आत्मविश्वास देने वाले शास्त्री की याद को अपने दिल में संजोये बैठे हैं.
(समाप्त) (एबीपी न्यूज ब्लॉग से साभार)
ब्रजेश कुमार सिंह
एडिटर-नेशनल अफेयर्स, एबीपी न्यूज