बिहार चुनाव : जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे रोज मरते रहे, वोट करते रहे
बिहार के 11 जिलों की 4157 बस्तियों के पानी में फ्लोराइड की मात्र तयशुदा मानक से अधिक है. केवल गया में ही ऐसी बस्तियों की संख्या 517 है. इन बस्तियों में रहने वाले दलित व कमजोर वर्ग के लोग विकलांगता के शिकार होकर बस किसी तरह जी रहे हैं. पांव मुड़ गये हैं. चलना-फिरना मुहाल […]
बिहार के 11 जिलों की 4157 बस्तियों के पानी में फ्लोराइड की मात्र तयशुदा मानक से अधिक है. केवल गया में ही ऐसी बस्तियों की संख्या 517 है. इन बस्तियों में रहने वाले दलित व कमजोर वर्ग के लोग विकलांगता के शिकार होकर बस किसी तरह जी रहे हैं. पांव मुड़ गये हैं. चलना-फिरना मुहाल है. गया जिले के बेलागंज विधानसभा क्षेत्र की एक बस्ती इस्माइलपुर बहादुर बिगहा का दौरा किया पुष्यमित्र ने. इस बस्ती की पीड़ा न केवल चुनावी शोरगुल से अलग-थलग है, बल्कि यह बिहार में पानी की राजनीति को भी उजागर करती है.
गया शहर से बमुश्किल सात-आठ किमी दूर इस्माइलपुर बहादुर बिगहा गांव में घुसते ही 27 साल के युवक रामकृष्ण ईंट पर बैठे मिले. दरअसल, वे न राम हैं न कृष्ण. वे बामन देव बनकर रह गये हैं. उनकी ऊंचाई बमुश्किल साढ़े तीन या चार फीट होगी. पांव मुड़ गये हैं. उनके लिए चलना-फिरना मुहाल है. जन्म से वे ऐसे नहीं थे. 15 साल की उम्र तक उनके शरीर की बनावट किसी आम किशोर जैसी ही थी. फिर अचानक उनके पांव मुड़ने लगे और हाइट भी कम होने लगी. विकलांगता की वजह से मेहनत-मजूरी उनसे नहीं होती.
थोड़ा आगे बढ़ने पर मिलीं सियामनी देवी. 45-50 साल उम्र है. मगर लगती सत्तर की हैं. पांच साल से बिस्तर पर हैं. शरीर में तेज लहर, दर्द और झुनझुनी की शिकायत है. हमेशा कराहती रहती हैं. कभी-कभी तेज आवाज में चीखने-चिल्लाने लगती हैं. इन दिनों पांव में एक अजीब किस्म का घाव हो गया है, जिस पर मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं.
मगर खुद में इतनी ताकत नहीं बची है कि इन मक्खियों को उड़ा पायें. करवट बदलने के लिए भी दूसरों की मदद लेनी पड़ती है. मदद भी करे तो कौन करे. उनके पति खुद फ्लोरोसिस के शिकार हैं. किसी तरह चलते-फिरते हैं. खेतों में बिखरे अनाज के दाने बटोर कर खाना-पीना होता है. तीन बेटे हैं. वे भी परेशान हैं.
ये लोग रविदास जाति के हैं. यानी महादलित. इतनी परेशानियों के बावजूद इनके मन में अपने नेता को जिताने का सपना है. हालांकि ये मुखर नहीं होते. क्योंकि मुखिया जी विधायक जी के आदमी हैं. कोई सुन लेगा तो परोबलम(प्रोब्लम) हो जायेगा. इसलिए राजनीति की बातें फुसफुसाकर करते हैं. मैंने जब पूछा कि उनके नेता के जीतने से क्या उनकी समस्या का समाधान हो जायेगा. दरद-लहर सब ठीक हो जायेगा? तो कहते हैं, नही बाबू.. सबको भोट चाहिए. आजकल, काम कहां कोई करता है. चाहे इ हो, चाहे ऊ हो.. सब एक्के रंग का है. मगर जात-बिरादरी है, तो कुछ तो देखना पड़ता है, बाबू.
यह क्षेत्र बेलागंज विधानसभा के अंतर्गत है. यहां के विधायक सुरेंद्र यादव लगातार चुनाव जीतते रहे हैं. मैंने पूछा, विधायक जी इस बार वोट मांगने आयेंगे तो आप लोग अपनी समस्या उठाइयेगा न? गांव का एक युवक कहता है, उनको सब मालूम है, विधायक जी हमरे गांव में उतरते कहां हैं, गाड़ी की खिड़की से ही हाथ जोड़े-जोड़े चले जाते हैं. हमलोग भी सोचते हैं, जब दूसरा कोई आदमी जितबे नहीं करता है तो इनको ही भोट दे दिया जाये. काहे संबंध खराब किया जाये.
पेयजल विभाग के लोग सालों पहले हैंडपंप पर लाल निशान लगा कर चले गये. यानी यहां का पानी खतरनाक है, इसे न पियें. पांच साल पहले वैकल्पिक उपाय भी किये गये. लाखों की लागत से इस पंचायत में दो वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाये गये. पाइप बिछा कर पेयजल उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गयी. इन प्लांटों का पानी कुछ दिन तो रविदास टोले तक पहुंचा फिर पहुंचना बंद हो गया.
टोले के लोग कहते हैं कि उसी समय सड़क बन रही थी, तो पाइप टूट गया. अब मुखिया जी पाइप ठीक कराते नहीं हैं, कहते हैं कि अगर पानी चाहिए, तो उनके दरवाजे से लेकर आयें. दरअसल यह प्लांट मुखिया जी के घर के पास बिठाया गया है, जो इस टोले से कम-से-कम डेढ़-दो किमी दूर है. हालांकि लोग वहां भी जाकर पानी ले आते, मगर यह भी उतना सहज नहीं है. वहां जाने पर टोका-टोकी शुरू हो जाती है. अक्सर झगड़े की नौबत बन जाती है.
यह पानी की राजनीति है, जो देशव्यापी है. पेयजल विभाग के संसाधनों पर गांव की दबंग जातियां हर बार कब्जा कर लेती हैं और दलित, गरीब-गुरबों के हाथ में कुछ नहीं आता. चापाकल लगना हो, या नल की टोटी. हमेशा रसूख वालों के घर के पास लगती है. समाज का निचला तबका पेयजल की इस राजनीति का शिकार होकर हमेशा दूषित जल पीता रहता है. आज भी इस्माइलपुर बहादुरपुर बिगहा के लोग बेखौफ होकर लाल निशान वाले हैंडपंप का पानी पी रहे हैं. यह जाने बगैर कि इन पंपों से जो पानी निकल रहा है, उसमें 17 मिग्रा प्रति लीटर की दर से फ्लोराइड की मौजूदगी है, जो संभवत: देश में सबसे अधिक है. तयशुदा मानकों के मुताबिक अगर पानी में 1.5 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक फ्लोराइड हो, तो वह पीने लायक नहीं होता.
मगर यह पेयजल की राजनीति का एक चरण है. इस राजनीति के कई और चरण हैं. फिर हम चुड़ावन नगर पहुंचते हैं. वह भी इसी पंचायत का हिस्सा है. भुइयां लोगों की इस बस्ती में भी एक वाटर प्यूरीफायर लगा है.
इस वाटर प्यूरीफायर में पानी तो साफ होता है, मगर आसपास गंदगी पसरी रहती है. यूरीफायर से सटे मकान के बाहर खड़ीं जुड़वां बच्चियों ाके पांव टेढ़े होने लगे हैं. साल भर का एक और बच्चा है, जिसके पांव टेढ़े हो गये हैं. गांव के लोग बताते हैं कि ये लोग इसी प्यूरीफायर का पानी पीते हैं. फिर ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं है. दरअसल पांच साल पहले लगे इस प्यूरीफायर ने पानी से फ्लोराइड मुक्त करना बंद कर दिया है.
सरकारी सूत्र कहते हैं, लखनऊ की संस्था वाटर लाइफ ने इन संयंत्रों को स्थापित किया था. निगरानी और मरम्मत का ठेका भी उनके ही पास है. फ्लोराइड ट्रीटमेंट प्लांट में नियमित निगरानी की जरूरत होती है. मशीन खराब हो जाये तो उसे ठीक करना और तयशुदा वक्त पर उसके मेंब्रेन को बदलना जरूरी होता है. मगर इंस्टॉलेशन के बाद से ही वह संस्था लौट कर इन गांवों में आयी ही नहीं. लिहाजा प्लांट से जो पानी साफ हो रहा है वह गांव के लोगों की जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहा. सरकारी दस्तावेज में इन गांवों को फ्लोराइडमुक्त मान लिया गया है.
बिहार सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 11 जिलों की 4157 बस्तियों के पानी में फ्लोराइड की मात्र तयशुदा मानक से अधिक है. ये जिले हैं, नालंदा, औरंगाबाद, भागलपुर, नवादा, रोहतास, कैमूर, गया, मुंगेर, बांका, जमुई और शेखपुरा. सरकारी सूत्रों के मुताबिक केवल गया में ही ऐसी बस्तियों की संख्या 517 है. मध्य बिहार के 13 जिले आर्सेनिक के कहर के शिकार हैं. ये जिले हैं – बक्सर, भोजपुर, सारण, पटना, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय, भागलपुर, लखीसराय, मुंगेर, खगड़िया, दरभंगा और कटिहार. उसी तरह कोसी-सीमांचल के नौ जिलों के लोग आयरनयुक्त जल पीने को विवश हैं.
ये जिले हैं, खगड़िया, पूर्णिया, कटिहार, अररिया, सुपौल, किशनगंज, बेगूसराय, मधेपुरा और सहरसा. यानी तकरीबन पूरा बिहार पीने के पानी में आर्सेनिक, आयरन या फ्लोराइड जैसे विषैले तत्वों को पीने के लिए विवश है. अब एक नया जहरीला तत्व सामने आया है, नाइट्रेट, जो गर्भस्थ और नवजात शिशुओं के लिए काल के समान है. मगर आज चुनावी बहस में शुद्ध पेयजल का सवाल किसी की जुबान पर नहीं है.