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परदे के पीछे का चुनाव अभियान : तकनीक तो सिर्फ माध्यम है, असली ताकत मैसेज है

इलेक्शन डेस्क बिहार चुनाव अभियान पहली बार कॉरपोरेट व सोशल दोनों अंदाज में एक साथ लड़ा जा रहा है. अबतक ऐसा नहीं था. आर्थिक पायदान पर पिछड़े बिहार में अबतक चुनाव अभियान विभिन्न दलों द्वारा परंपरागत अंदाज में लड़े जा रहे थे. पर, आज आपको इस चुनाव अभियान के पक्ष-प्रतिपक्ष के दो अहम चेहरों नरेंद्र […]

इलेक्शन डेस्क

बिहार चुनाव अभियान पहली बार कॉरपोरेट व सोशल दोनों अंदाज में एक साथ लड़ा जा रहा है. अबतक ऐसा नहीं था. आर्थिक पायदान पर पिछड़े बिहार में अबतक चुनाव अभियान विभिन्न दलों द्वारा परंपरागत अंदाज में लड़े जा रहे थे. पर, आज आपको इस चुनाव अभियान के पक्ष-प्रतिपक्ष के दो अहम चेहरों नरेंद्र मोदी व नीतीश कुमार के राजधानी पटना में बड़े-बड़े होर्डिंग भी दिख जायेंगे, जो अपने बगल में कॉरपोरेट एड की चमक को फीकी करते दिखते हैं, तो गांव में मोदी के मुखौटे लगाते बड़े बुजुर्ग से लेकर छोटे बच्चे भी.वहीं, नीतीश का मुखौटा लगाये व उनके नारे व दावे लिखे रिक्शे पर प्रचार करते युवा भी दिख जायेंगे. चुनावी वार में टीम मोदी भी टि्वटर फेसबुक पर सक्रिय है तो टीम नीतीश भी. नीतीश ने तो इंटरव्यू भी टि्वटर पर दिये हैं.
यह बदलाव क्यों?
बिहार में परदे के पीछे से चुनाव अभियानकासंचालन करने वाले एक दिग्गज ने ऐसे ही सवाल पर प्रभात खबर डॉट कॉम को बताया कि जिसे आप चुनाव अभियान में नया कह रहे हैं, उसमें नया कुछ नहीं है. वे सवाल उठाते हैं कि पहले एसएमएस नहीं था तो उसका उपयोग नहीं करते थे, आज है तो करते हैं. इसी तरह सोशल मीडिया व अन्य माध्यम हैं. आज अगर वे हैं तो उनका उपयोग किया जा रहा है.
उदाहरण के तौर पर 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सबसे पहले अोवीडी तकनीक से वॉयस कॉल से प्रचार की शुरुआत की थी. अचानक से लोगों के मोबाइल पर उनका रिकार्डेड फोन आता था : मैं अटल बिहारी वाजपेयी बोल रहा हूं…
जिस माध्यम से संदेश पहुंच सकता है पहुंचायेंगे
परदे के पीछे से चुनाव कमान संभाल रहे लोगों का स्पष्ट मत है कि उनका संदेश जिस माध्यम से पहुंचेगा वे पहुंचायेंगे. दरअसल चुनाव में तकनीक के उपयोग की शुरुआत2004में हुई, यह 2009 में थोड़ा आगे बढी, जब लालकृष्णआडवाणी कोएनडीएकापीएमउम्मीदवार प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा गया था.पर, तकनीक का बेहतरीन ढंग से उपयोग करने के बाद भाजपा को इन दो चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा. पर,यह हार भाजपा का तकनीक पर से भरोसा नहीं डीगा सकी. जब 2014 में नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा तो इसका पहली बार बड़े स्वरूप में उपयोग कियागया. तकनीककी मदद से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र माेदी का थ्री डी स्वरूप में प्रचार कराया गया,जिसमेंएक मोदी सौ मोदी में रूपांतरित होकर दिखते थे. साथ ही चाय पर चर्चा जैसे कार्यक्रम आयोजित किये गये और उन कार्यक्रमों को टीवी सहित सोशल मीडिया फेसबुक टि्वटर के माध्यम से बड़े वर्ग में प्रचारितवप्रसारितकिया गया.
फ्लोटिंग वोटर होते हैं असली टारगेट
भाजपा के ही दो अनुभवों से स्पष्ट है कि तकनीक का उपयोग अपके विजय की गारंटी नहीं है. पर, यह एक सशक्त माध्यम है और इसीलिए इसको कोई इग्नोर नहीं कर सकता. हाइटेक प्रचार का असली टारगेट फ्लोटिंग यानी अस्थायी वोटर होते हैं. चुनावी जीत व हार यही वोटर तय करता है. राजनेता व उनके रणनीतिकार इन्हीं वोटरों को लुभाने व उन्हें खुद से जोड़ने की पहली कोशिश करते हैं. राजनीतिक दलों के जो समर्पित वोटर होते हैं, उन्हें सिर्फ संगठित रखे रहना होता है. क्योंकि इस बेस वोट बैंक को बनाये रखने के बाद ही आगे की लड़ाई शुरू होती है.
डिफेंड व अटैक की रणनीति
चुनाव अभियान के एक अहम रणनीतिकार कहते हैं कि पूरी लड़ाई में डिफेंड व अटैक की रणनीति अहम होती है. यानी करीने से अपना बचाव कीजिए और फिर प्रतिद्वंद्वी पर मारक चोट कीजिए. पर, यह कई बार उल्टा भी पड़ जाता है. जैसा कि दिल्ली चुनाव का एक उदाहरण है, जब अरविंद केजरीवाल के आरोपों से तिलमिलायी भाजपा ने उन पर वार करने के लिए उपद्रवी गोत्र शब्द का प्रयोग किया, जिसे उन परराजनीतिक हमले के लिए तय किया गया था.पर,इसके उलट केजरीवाल ने भाजपा के उपद्रवी गोत्र शब्द को लपक लिया.
नेता ही सबसे अहम और जहां नेता वहीं वार रूम
यह आम धारणा है कि चुनाव में नेता के लिए चीजें तय करने में उनके एक्सपर्ट चुनाव रणनीतिकार अहमहोते हैं. लेकिन बिहार चुनाव से जुड़े एक इलेक्शन मैनेजर इस बात को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, गीतकार गायक को गाना नहीं सीखा सकता, हां उसे एक कलेवर या स्वरूप दे सकता है. गायक तो अपने रियाज से गाता है और उसे बेहतर बनाता है.उनकायहभी कहना है कि हमारा काम नेता को असिस्ट करना है, गाइड करना नहीं. वे स्पष्ट रूप से कहते हैं किजमीन व जनता से सीधे जुड़ेहोने के कारण उन्हें जमीनी हकीकत हमसे अधिक पता होती है, ऐसे में वे कई बार हमारी सलाह को हंस कर टाल देते हैं कि यह नहीं चलेगी. वार रूमतो वह होता है, जहां बैठकर पार्टी के आला नेता निर्णय लेते हैं कि यह करना है और जिसे वाररूम कहा जाता है वह तो तय मुद्दों को बस क्रियानि्वत करता है.
चुनाव एक्सपर्ट चीजों को दो नजरिये से देखते हैं : एक पॉलिटिकल एंगल से और दूसरा आम आदमी की नजर से. और, नेताओं के लिए उनका यही एप्रोच लाभदायक होता है. इसके आधार पर वे नेताओं को ब्रीफ करते हैं और यह उन पर निर्भर करता है कि उसे वे कितना स्वीकार करते हैं. वे उदाहरण देते हैं कि किसी दीवार में आप आंखें सटा कर देखेंगे तो वह चीन की दीवार नजर आयेगी, लेकिन कुछ दूर हट कर देखेंगे तो कहेंगे कि दस या पांच इंच की दीवार है.
असल ताकत मैसेज है
बिहार चुनाव में भाजपा के मुख्य नारे बदलिए सरकार, बदलिए बिहार को गढने वाले चुनाव प्रबंधन के दिग्गज निशिथ शरण प्रभात खबर डॉट कॉम से कहते हैं, तकनीक तो सिर्फ माध्यम हैं हमारेमैसेज को लोगों तक पहुंचाने के लिए, असली ताकत तोहमारेमैसेज मेंछिपीहोती है. वह तो बस एक माध्यम है, जो बदलती तकनीक के साथ बदल सकता है. आज डिजिटल तकनीक से संदेश पहुंच रहे हैं, तो पहुंचाये जा रहे हैं. दअसल, बिहार में आरंभ में बदलिए सरकार, बदलिए बिहार से अबकी बार, भाजपा सरकार व परिवर्तन जैसे नारे चल रहे थे. पहले नारे को तो भाजपा ही लोकसभा में, जबकि दूसरे नारे को ममता बनर्जी व बराक ओबामा यूज कर चुके थे. ऐसे में भाजपा को कोई नये नारे की तलाश थी, जो सीधे लोगों को स्ट्राइक करे. बदलिए सरकार, बदलिए बिहार नारा गढने के पीछे धारणा यह है कि आम बिहारियों की उस भावना को उभारदियाजाये कि बीते 67 सालों में बिहार की क्षमता के साथ न्याय नहीं हुआ है.अत:इसके लिए सरकार को बदलना जरूरी है.
इसी तरह महागंठबंधन ने अपने चुनाव अभियान को नीतीश कुमार पर फोकस रखा है. सोनिया गांधी, राहुल गांधी व कई बार लालू प्रसाद यादव भी ब्रांड नीतीश का उल्लेख करते हैं. इसी के तहत नीतीश निश्चय व नीतीश के सात वचन नारे गढे गये.

बहरहाल, चुनाव एक बाजार है, वोट कंपनियों का टर्न ओवर है और नेता उसके ब्रांड, जो टर्न ओवर बढा सकते हैं. और, इस चुनाव में तो बस दो ही ब्रांड हैं : नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार. और, दोनों खेमों के धुरंधर जानते हैं कि लोग उनके पक्ष में इसी ब्रांड के आधार पर गोलबंद हो सकते हैं.

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