नेहरू ने स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं की नींव रखी

पंडित जवाहरलाल नेहरू की गिनती बीसवीं सदी के महान विश्व नेताओं में होती है. वे न सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी सेनानियों में से थे, बल्कि स्वतंत्रता के बाद उनके नेतृत्व में भारतीय राष्ट्र की संकल्पना ने साकार रूप ग्रहण किया. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष के अप्रतिम योद्धा, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 14, 2015 4:37 AM
पंडित जवाहरलाल नेहरू की गिनती बीसवीं सदी के महान विश्व नेताओं में होती है. वे न सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी सेनानियों में से थे, बल्कि स्वतंत्रता के बाद उनके नेतृत्व में भारतीय राष्ट्र की संकल्पना ने साकार रूप ग्रहण किया. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष के अप्रतिम योद्धा, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक, अंतरराष्ट्रीय शांति और सहयोग के अथक नायक तथा भारत को एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में वैश्विक मंच पर स्थापित करनेवाले राजनीतिक शिल्पी नेहरू के साथ-साथ उनके सिद्धांतों, वैचारिकी तथा उपलब्धियों का स्मरण हमारे वर्तमान और भविष्य की बेहतरी के लिए अनिवार्य शर्त है. इसी बोध के साथ उनकी जयंती पर यह विशेष प्रस्तुति
नेहरू की परिकल्पना इस विषय में एकदम स्पष्ट थी कि आधुनिक भारत को कैसा दिखाई देना चाहिए और उन्होंने ऐसे मजबूत स्तंभों का निर्माण करते हुए अपने सपनों को साकार करना शुरू किया, जो नवोदित राष्ट्र को सहायता दे. यदि आज भारत एक जीवंत लोकतंत्र है, तो यह केवल नेहरू द्वारा स्थापित बुनियादों के कारण है.
यदि भारत खरीद शक्ति क्षमता के आधार पर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन पाया है, तो यह नेहरू द्वारा स्थापित बहुउद्देशीय परियोजनाओं, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों जैसे उच्च शिक्षा के संस्थानों तथा उनके द्वारा शुरू की गयी व्यवस्थित योजना निर्माण प्रक्रिया के बदौलत है.
यदि भारत की आज विश्व के प्रौद्योगिकीय रूप से उन्नत देशों में गणना की जाती है, तो यह नेहरू द्वारा वैज्ञानिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने तथा उनके द्वारा देश भर में स्थापित राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की शृंखला के कारण है. नेहरू ने ही हमें पिछड़ी तथा दूसरों पर निर्भर अर्थव्यवस्था से उबार कर आज की उभरती हुई शक्ति बनाया.
नेहरू और स्वतंत्रता आंदोलन
जवाहरलाल नेहरू ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में अनन्य योगदान दिया. वह 1929 की लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में केवल 40 वर्ष की आयु में कांग्रेस के अध्यक्ष बने. लाहौर अधिवेशन ने ‘पूर्ण स्वराज’ को अपना लक्ष्य घोषित किया तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन को शुरू करने की अनुमति दी.
नेहरू ने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए संविधान सभा की मांग को भी लोकप्रिय बनाया तथा 1937 के प्रांतीय चुनावों में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया. नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 3,262 दिन कारावास में रहे, जिसमें से वह सबसे अधिक 1,040 दिन तक भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कारावास में रहे. स्वतंत्रता के लिए नेहरू का गहन जज्बा अप्रैल, 1942 के उनके शब्दों में देखा जा सकता है, ‘हमें बहुत कुछ चाहिए’, ‘स्वतंत्रता के लिए हमारी भूख शांत होनेवाली नहीं है. हम इसके लिए भूखे हैं, और हमारे गले प्यास से सूखे हैं.’
नेहरू और संसदीय लोकतंत्र
भारत में पूर्ण संसदीय लोकतंत्र की स्थापना उपनिवेशवाद की समाप्ति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण कदम था. नेहरू ने उस प्रक्रिया को तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभायी थी, जिसके द्वारा अंगरेजों द्वारा धीरे-धीरे प्रदान की गयी सीमित प्रतिनिधित्व वाली सरकार भारतीय जनता के स्वभाव के अनुकूल जीवंत तथा शक्तिशाली संस्था में रूपांतरित हुई.
नेहरू के लिए लोकतंत्र का तात्पर्य एक ऐसा उत्तरदायित्वपूर्ण तथा जवाब देनेवाली राजनीतिक प्रणाली था, जिसमें विचार-विमर्श और प्रक्रिया के माध्यम से शासन हो. उनके जीवनीकार एस गोपाल के अनुसार, उनमें ‘लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अत्यंत दृढ़ बौद्धिक तथा नैतिक प्रतिबद्धता’ थी.
नेहरू ने 1950 की अंतरिम संसद में तथा 1952 से 1964 के बीच पहली, दूसरी तथा तीसरी लोकसभा में सदन के नेता के रूप में व्यक्तिगत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वस्थ परंपराओं और उदाहरणों की नींव रखी.
वे संसद को बहुत सम्मान देते थे तथा अपने सहयोगियों और नये सांसदों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लंबी और ऊबाऊ बहसों के दौरान धैर्य के साथ बढ़ते रहते थे. वह संसद में खूब बोलते थे तथा इसका प्रयोग जनता में अपने दृष्टिकोण को पहुंचाने के लिए करते थे. पहली तथा तीसरी लोकसभा के संसदीय सत्रों का अधिकांश समय कानून, बजट योजना तथा धन तथा वित्त पर चर्चा पर लगा.
संसद सदस्यों से प्राप्त पत्रों का हर हाल में व्यक्तिगत रूप से तथा तत्काल उत्तर दिया जाता था. नेहरू समझते थे कि एक मजबूत विपक्ष न होने का अर्थ प्रणाली में बड़ी खामी होता है. उन्होंने कहा था : ‘मैं नहीं चाहता कि भारत ऐसा देश बने जहां लाखों लोग एक व्यक्ति की ‘हां’ में हां मिलाएं, मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूं.’
यद्यपि उस समय कोई औपचारिक विपक्षी दल नहीं था, परंतु नेहरू डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, हिरेन मुखर्जी, एचवी कामथ, एके गोपालन तथा अशोक मेहता जैसे विपक्षी नेताओं को सर्वोच्च सम्मान देते थे, जो पहली लोकसभा के सदस्य थे. अटल बिहारी वाजपेयी, जो दूसरी लोकसभा के लिए चुने गये थे तथा डॉ राममनोहर लोहिया, जो तीसरी लोकसभा के सदस्य बने, का भी नेहरू जी विशेष ध्यान रखते थे.
महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने तथा सुविचारित विकल्प का उपयोग करने की गरीबों तथा निरक्षरों की क्षमता पर नेहरू को भारी भरोसा था. उन्होंने देश के बंटवारे तथा उसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक हिंसा को अथवा भारी संख्या में शरणार्थियों के आगमन को चुनावों को स्थगित करने का बहाना नहीं बनाया.
1951-52 के पहले आम चुनावों के लिए चुनाव अभियान के दौरान नेहरू ने खुद 25,000 मील की यात्रा की तथा लगभग 3.50 करोड़ लोगों को, जो कि उस समय की जनसंख्या का दसवां हिस्सा था, संबोधित किया था. उन्होंने जनता को वयस्क मताधिकार के महत्व तथा अपने मताधिकार को जिम्मेवारी के साथ प्रयोग करने के दायित्व के प्रति जागरूक किया.
नेहरू और विदेश नीति
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में, पूरा विश्व पूर्वी और पश्चिमी प्रतिद्वंद्वी शक्ति गुटों में बंट गया. भारत के लिए और उससे अधिक नेहरू के लिए, जो कि प्रधानमंत्री के रूप में 17 वर्षों तक विदेश मंत्रालय का कार्य भी संभाल रहे थे, यह जरूरी था कि वह नवोदित भारतीय राष्ट्र को, कार्य की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए, सैन्य गुटों तथा गठबंधनों से बाहर रखें. नेहरू ने मार्शल प्लान के तहत सहायता स्वीकार नहीं की, ताकि विदेश नीति संबंधी मामलों पर भारत की स्वतंत्रता पर आंच न आये.
गुट-निरपेक्षता की नेहरू की नीति का अर्थ समान दूरी अथवा अलगाव नहीं था. इसका अर्थ था निर्णय तथा कार्य में स्वतंत्रता. यह कोई निष्क्रियता की नीति नहीं थी, बल्कि एक सक्रिय तथा गतिशील नीति थी, जिसके तहत भारत संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्यों के प्रति मजबूती से प्रतिबद्ध तथा विश्व में शांति के लिए हर संभव प्रयास करने के लिए तत्पर था.
बहुत पहले 1946 में ही, भारत ने दक्षिण अफ्रीका में जातिगत भेदभाव की भर्त्सना करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में एक संकल्प प्रस्तुत किया था.
भारत ने गाजा पट्टी तथा कांगो में शांति रक्षा के लिए सैनिक भेजे. भारत ने आणविक हथियारों तथा उनके समुद्र अथवा वायुमंडल में परीक्षण के विरुद्ध अथक अभियान चलाये. इसने 1963 में आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. आज, जब शीत युद्ध इतिहास की बात बन चुका है, यह ध्यान रखना होगा कि नेहरू की विदेश नीति ‘भारत प्रथम’ के स्वस्थ तथा सतत सिद्धांत पर आधारित थी.
अर्थव्यवस्था का निर्माण
भारत का उद्गम उपनिवेशवादी शासन से अधिकांशत: कृषि प्रधान देश के रूप में हुआ था. कृषि की स्थिति वस्तुत: आधी सदी तक यथावत् बनी हुई थी तथा आर्थिक प्रगति की औसत दर एक प्रतिशत से कम थी. इस निराशाजनक पृष्ठभूमि में पहले पंद्रह वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में 4 प्रतिशत तथा प्रति व्यक्ति में लगभग 2 प्रतिशत (1900 से 1947 के बीच 0.1 प्रतिशत के मुकाबले) की अनुमानित वृद्धि हुई. यह एक ऐतिहासिक मोड़ था तथा भारत चीन, यूके और जापान से आगे तथा अपने समय की अन्य अच्छी अर्थव्यवस्थाओं की बराबरी पर था. नेहरू योजना निर्माण को केवल योजना आयोग का ही कार्य नहीं, बल्कि एक व्यापक राष्ट्रीय प्रयास मानते थे. प्रख्यात अर्थशास्त्री पीसी महालानोबिस ने योजना निर्माण के नेहरूवादी दृष्टिकोण का उल्लेख मध्य मार्ग के रूप में किया है.
इसके बाद, मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा कल्याणकारी राज्य महत्त्वपूर्ण संकल्पना के रूप में उभरे. योजना आयोग की स्थापना, सार्वजनिक क्षेत्र का उभार, भू-हदबंदी, औद्योगिक एकाधिकार पर विनियम, राजकीय व्यवसाय, ये सभी नेहरू के बहुआयामी प्रयासों का परिणाम थे. नेहरू ने विकास कार्यक्रमों पर राष्ट्रीय तथा अंतर-प्रांतीय सहमति प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद् की संस्था की भी स्थापना की. राष्ट्रीय विकास परिषद का उल्लेख कार्यरत संघवाद के उदाहरण के रूप में किया जाता है.
नेहरू ने संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को शामिल करके देश को समाजवादी मार्ग की दिशा में उन्मुख किया. 1955 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ऐतिहासिक आवडी अधिवेशन में कांग्रेस ने स्वयं को औपचारिक रूप से समाज के समाजवादी स्वरूप का समूह घोषित किया.
यह अधिवेशन, द्वितीय पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के समय हुआ था. उसके बाद से संसाधनों का व्यापक उपयोग, तीव्र औद्योगिकीकरण तथा समतापूर्ण वितरण की प्राप्ति राष्ट्र की प्राथमिकताएं बन गये.
बाद के वर्षों में आर्थिक मामलों में सरकार को प्रमुखता प्रदान करने के लिए नेहरू की आलोचना हुई.परंतु इन नीतियों को नेहरू के समय के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. 190 वर्षों तक शोषित समाज में पूंजी के निर्माण का कार्य एक महती कार्य बन गया था, जिसे केवल निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता था. योजना निर्माण से राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप सीमित संसाधनों के आवंटन में मदद मिली. नियंत्रित अर्थव्यवस्था की तुलनात्मक उपयोगिता को उन दिनों व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता था. नेहरू के प्रयासों ने निजी पहल को हतोत्साहित नहीं किया. निजी क्षेत्र विशेषकर कृषि तथा लघु और मध्यम उद्योगों में, अहम भूमिका निभाता रहा.
वास्तव में, स्वतंत्रता के शुरुआती दिनों में, आर्थिक प्रगति लाने में सरकार की प्रमुख भूमिका के विचार का निजी क्षेत्र ने भी समर्थन किया था. इसके अलावा बहुत से निजी क्षेत्र की कंपनियां सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों से भारी सहयोग लेकर अपने-अपने क्षेत्र की विशाल कंपनियां बन गयी.
भाखड़ा नंगल में नेहरू का व्याख्यान उनके एक सबसे उम्दा व्याख्यान के रूप में अभी तक याद किया जाता है : ‘मेरे लिए आज ये स्थान ही मंदिर, गुरुद्वारे, गिरिजाघर, मसजिद हैं, जहां इंसान दूसरे इंसानों और कुल मिला कर मानवता के हित के लिए मेहनत करते हैं.
वे आज के मंदिर हैं. किसी मंदिर या किसी विशुद्ध पूजास्थल के बजाय इन महान स्थलों को देख कर मैं, यदि मैं यह शब्द इस्तेमाल करूं, अधिक धार्मिक महसूस करता हूं. ये पूजास्थल हैं, क्योंकि हम यहां किसी चीज को पूजते हैं; हम भारतीयों को तैयार करते हैं; हम लाखों भारत का निर्माण करते हैं और इसलिए यह एक पावन कार्य है.’
इस्पात और उर्वरक, जल-विद्युत बांधों तथा एल्युमीनियम भट्टियों में निवेश का अर्थव्यवस्था पर चौतरफा प्रभाव पड़ा. 1950-65 के दौरान कृषि में 2.6 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर रही, जो भारत में 20वीं सदी के समूचे उत्तरार्द्ध से अधिक थी.
एस गोपाल ने नेहरू की उपलब्धियों को संक्षेप में इस प्रकार कहा है : ‘उन्होंने राष्ट्र को एकजुट बनाया, लोकतंत्र के लिए इसे प्रशिक्षित किया, आर्थिक विकास के लिए एक मॉडल का निर्माण किया तथा देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर किया.’
नेहरू और विज्ञान
नेहरू मानते थे कि जातिगत पूर्वाग्रह, धर्मांधता, सामाजिक विषमता आदि को हमारे सामाजिक संबंधों तथा मानसिक स्वभावों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति पैदा करके ही समाप्त किया जा सकता है. वैज्ञानिक उपलब्धि के साथ-साथ, वैज्ञानिक मानसिकता तथा चिंतन की वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास भी उतना ही जरूरी है.
विज्ञान मात्र सत्य की खोज नहीं है, बल्कि व्यक्ति की बेहतरी के लिए भी है. सरकार द्वारा एक विज्ञान नीति अपनायी गयी तथा देशभर में वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं स्थापित की गंयीं. इंजीनियरी में जनशक्ति के सृजन के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना की गयी. अंतरिक्ष और परमाणु इंजीनियरी जैसी अग्रिम विषय प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत निगरानी में आ गये.
उपसंहार
स्वतंत्रता के समय से बहुत से लोग यह मानते थे कि भारत शीघ्र ही निरंकुश शासन के अधीन हो जायेगा तथा लोकतंत्र का प्रयोग असफल हो जायेगा. भारत ने राष्ट्र निर्माण के कठिन शुरुआती वर्षों के दौरान नेहरू द्वारा स्थापित सुदृढ़ और स्थिर संसदीय प्रणाली के कारण स्वयं को एकजुट बनाये रखा. जब एक बार नेहरू से यह पूछा गया कि भारत के लिए उनकी विरासत क्या होगी, तो उन्होंने उत्तर दिया : ‘यकीनन स्वयं पर शासन करने में सक्षम चालीस करोड़ लोग.’
एस गोपाल के शब्दों में : ‘चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के समक्ष प्राप्त भारतीय लोकतंत्र-व्यस्क मताधिकार, संप्रभु संसद, मुक्त प्रेस, स्वतंत्र न्यायपालिका- नेहरू का एक सबसे स्मरणीय स्मारक है.’
नेहरू और पंथनिरपेक्षता
नेहरू संपूर्णत: पंथनिरपेक्ष थे. जब काफी वर्षों बाद, फ्रांसीसी लेखक आंद्रे मालरॉक्स ने नेहरू से पूछा कि उनका सबसे कठिन कार्य कौन-सा रहा, तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘मैं समझता हूं कि एक न्यायपूर्ण राष्ट्र की न्यायोचित साधनों से स्थापना…’ और थोड़ा रुक कर कहा, ‘शायद एक धार्मिक देश में पंथनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना.
खासकर जब इसका धर्म किसी प्रेरित पुस्तक पर स्थापित नहीं है.’ नेहरू के ही सतत् प्रयासों से भारत ने खुद को सभी के लिए, भले ही वे किसी भी धर्म से जुड़े हों, समान अधिकारों वाले पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित किया.
नेहरू और महिला सशक्तीकरण
नेहरू की इच्छा थी कि महिलाएं देश में समान नागरिक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करें. पश्चिम देशों के विपरीत, भारत में महिलाओं को पुरुषों के साथ ही मताधिकार प्राप्त हुआ, जो काफी पहले 1928 में ही कांग्रेस द्वारा उद्घोषित लक्ष्य था.
उन्होंने 1954 में कल्याणी में एक व्याख्यान में कहा था : ‘भारत की महिलाओं को देश के निर्माण में समुचित भूमिका निभानी होगी. उनके बिना देश तेजी से प्रगति नहीं कर सकता. देश की प्रगति की स्थिति उसकी महिलाओं से जानी जा सकती है, क्योंकि वे ही देश के लोगों की निर्मात्री होती हैं.’
नेहरू को जरूरी लगता था कि लोगों में सोचने की आदत पैदा हो
अपूर्वानंद
लेखक ‘आलोचना’ के संपादक एवं दिल्ली विवि में अध्यापक हैं
यह कहा जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती के आखिरी दिनों में और उनके जन्म के महीने में बिहार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी को फैसलाकुन शिकस्त देकर उन्हें एक नायाब तोहफा दिया है.
नेहरू भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा को मानते थे. उनके नेतृत्व की कांग्रेस के खिलाफ कम्युनिस्ट, समाजवादी और पूंजीवाद समर्थक स्वतंत्र पार्टी भी थी, लेकिन नेहरू किसी को भारतीय जनतंत्र के लिए उतना नुकसानदेह नहीं मानते थे, जितना भारतीय जनसंघ को.
जनतंत्र में विचारों की प्रतियोगिता का पूरा स्थान होना चाहिए, लेकिन कोई विचार यदि बुनियादी तौर पर नफरत और इंसानों में कुछ को बेहतर तथा कुछ को कमतर मानने पर टिका हो, तो वह जनतंत्र की मूल आत्मा के खिलाफ है, जिसमें हम लोगों को उनकी समाजी हैसियत या उनके जन्म के आधार पर ऊपर या नीचे नहीं रखते.
अगर एक बार यह बात जड़ जमा जाये, तो फिर हम किसी के विचार के आधार पर उसके पक्ष या विपक्ष में मत नहीं बनाते, बल्कि उसकी धार्मिक या जातीय स्थिति के चलते उसके बारे में निर्णय करते हैं. इसका मतलब यह भी है कि हमें किसी विचार के बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं रह जाती, हम बस व्यक्ति का सामाजिक उद्गम देख लेते हैं.
बिहार के हालिया विधानसभा चुनाव में भाजपा ने फिर खुद को हिंदू हितों की पैरोकार के तौर पर पेश करने की कोशिश की. इसके लिए उसने दूसरे दलों को मुसलमानों का पक्षधर और इस वजह से हिंदुओं का दुश्मन साबित करने की कोशिश की. हालांकि वह पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकी.
नेहरू को भी आज की भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ से इसी तरह के हमले का सामना करना पड़ता था. उन्हें आधा मुसलमान-आधा ईसाई कहा जाता था. तीसरे लोकसभा के चुनाव में वे इसी जहरीले प्रचार के शिकार हुए.
चुनाव में उनकी भारी जीत हुई, लेकिन जिस प्रचार का मुकाबला उन्होंने किया, उसके बारे में ब्लिट्ज के संपादक आर के करंजिया को एक इंटरव्यू में नेहरू ने बताया, ‘क्या आपको पता है कि खुद मेरे बारे में यह प्रचार किया गया कि मैं रोज शाम बीफ खाने अशोक होटल जाता हूं! पूरी दिल्ली में पोस्टर लगाये गये, जिनमें मुझे नंगी तलवार लिए गायों को बूचड़खाने की ओर हांकते दिखाया गया.’ आज के बिहार की जनता की तरह ही 1962 में भारत की जनता ने इस घृणा-प्रचार को नकार दिया था.
भारत के मतदाता की परिपक्वता पर नेहरू को भरोसा था- ‘भारतीय मतदाता, कमोबेश राजनीतिक रूप से अधिक सचेत, अधिक निश्चयात्मक और विवेकशील हो रहा है. इस तरह एक परिपक्व आधार तैयार हो रहा है, जो इस तरह की गड़बड़ियों को दुरुस्त करने में उनकी मदद करे.’ यह आधार लेकिन तभी मजबूत हो सकता था, जब उसके लिए सचेत प्रयास जारी रखा जाये.
इसी वजह से पिछली सदी के पचास और साठ के दशकों में भी, जब जनसंघ का जनाधार कुछ न था, नेहरू अपनी जनसभाओं में उस विचार के खतरे से जनता को आगाह करते रहते थे. उस वक्त एक समझ यह थी कि कम्युनिस्ट जनतंत्र के लिए खतरा हैं. कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी थी भी. लेकिन नेहरू उससे चिंतित न थे.
नेहरू को सबसे जरूरी यह लगता था कि लोगों में सोचने की आदत पैदा हो जाये. सोचना इतना सरल नहीं है. लेकिन सोचने की काबिलियत हर किसी में है, इसके लिए कॉलेज की डिग्री की जरूरत नहीं.
यह बात अब लोगों को याद नहीं रह गयी है कि नेहरू का राजनीतिक प्रशिक्षण दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ था और उनका ज्यादा वक्त किसानों के बीच गुजरता था. उन्हें शहरी जमात के बीच उलझन भी होती थी, ऐसा उन्होंने एकाधिक बार अपनी बेटी को और दूसरी जगह लिखा है.
किसानों के धरती से जुड़ाव के कारण उनमें जो एक जीवट और धीरज आ गया था, वह उन्हें अधिक प्रामाणिक बना देता था. कुदरत से वे तकरीबन एकमेक थे और यह चीज भी उन्हें शहरी लोगों के मुकाबले एक ताकत देती थी. लेकिन उनकी दिनचर्या में जीवित रहने का संघर्ष उनके जीवन को सीमित भी कर देता था. नेहरू चाहते थे कि वे इस रोजमर्रापन के हद तोड़ कर एक ऊंची सतह पर जिंदगी जी सकें. लेकिन यह मुमकिन कैसे हो?
समाज में जो ऊंच-नीच का बंटवारा था, वह नेहरू को सख्त नापसंद था और इसलिए वे वर्ण-व्यवस्था को लेकर गांधी से कभी सहमत नहीं हो पाये. लेकिन उन्होंने यह भी देखा कि कितनी चतुराई से इस व्यवस्था की बुनियाद, यानी अस्पृश्यता में पलीता लगा कर गांधी ने इसे पोला कर दिया. यह पूरा विभाजन पवित्रता और प्रदूषण के बंटवारे पर टिका था. काम भी श्रेणियों में विभाजित थे. मानसिक या आध्यात्मिक काम के लायक सिर्फ ब्राह्मणीय जातियां थीं और शारीरिक काम ‘निम्न’ और अछूतों के जिम्मे था.
गांधी ने आध्यात्मिकता को शरीरी अनुभव बना दिया. शिक्षा के उनके सिद्धांत में भी अक्षर ज्ञान की जगह शारीरिक कार्य पर अधिक जोर का कारण यही था. नेहरू उनकी इस हिकमत को समझ पा रहे थे. हालांकि, गांधी के काम करने के तरीके को उनका तर्कवादी मन पूरी तरह पद्धति के तौर पर कबूल नहीं कर पाता था.
गांधी से उनके मतभेद इतने गहरे थे कि एक बार गांधी ने लिखा कि उनके बीच एक अलंघ्य खाई है. फिर भी गांधी ने बड़े सचेत ढंग से नेहरू को ही अपना उत्तराधिकारी चुना. इस फैसले के कारण गांधी को गांधीवादियों के भी एक तबके ने माफ नहीं किया. लोहिया की तो यह समझ थी कि ब्राह्मण नेहरू को एक वर्णवादी गांधी ने चुना. लेकिन गांधी को इस चुनाव को लेकर कोई दुविधा न थी. उन्होंने कहा कि मुझे मालूम है कि मेरे बाद नेहरू मेरी ही भाषा बोलेंगे.
गांधी का भरोसा अपने बाकी सहयोगियों के मुकाबले नेहरू पर सबसे ज्यादा इसी कारण था कि उनकी कल्पना के भारत को साकार करने में नेहरू कसर न छोड़ेंगे और कोई समझौता नहीं करेंगे. यह एक ऐसा भारत था, जिसमें संख्या अधिक होने के कारण हिंदुओं का देश पर दावा अधिक और कम संख्या के कारण अन्य समुदायों की दावेदारी कम नहीं थी.
नेहरू का संघर्ष राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से इसी कारण था कि वह उनके गुरु की कल्पना के भारत के उलट एक दूसरे भारत की स्थापना करना चाहता था. 2014 के चुनाव परिणाम से आशंका हुई कि गांधी के रास्ते से हम हट गये हैं. लेकिन, बिहार के नतीजों ने बताया है कि भारतीय मतदाता के विवेक पर गांधी के प्रमुख शिष्य का विश्वास गलत न था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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