भगवान भुवन भास्कर को अर्घ्य के बाद महापर्व छठ संपन्न
रांचीः आज छठ महापर्व के अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्घ्य दिया गया और इस उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व का समापन हो गया. इस दौरान छठ घाटों पर सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध किये गये थे. छठ व्रतियों का पहुंचना सुबह तीन बजे के बाद […]
रांचीः आज छठ महापर्व के अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्घ्य दिया गया और इस उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व का समापन हो गया. इस दौरान छठ घाटों पर सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध किये गये थे. छठ व्रतियों का पहुंचना सुबह तीन बजे के बाद से ही शुरु हो गया था. रांची और पटना के घाटों में हजारों की संख्या में लोगों ने भगवान भास्कर को अर्घ्यदान दिया. गंगा घाटों को फूल मालाओं से सजाया गया था.
खबर है कि बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने लालू यादव की कटआउट फोटो लगाकर छठ महापर्व किया. रांची के केंद्रीय कारा में सजा काटने के कारण इस बार लालू यादव छठ में अपने घर पर मौजूद नहीं थे. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्यवासियों को छठ पर्व के अवसर पर शुभकामना दी.
ऊं ऐहि सूर्य सहस्त्रंशों तेजोराशे जगत्पतं।
अनुकंपय माम् भक्त्या गुणार्घ्य दिवाकर:।।
(असंख्य किरणों वाले हे सूर्य, हे जगतपति, मेरी भक्ति से प्रसन्न होकर मेरे अर्घ को स्वीकार कीजिए.)
सूर्योपासवना का पर्व छठ बिहार, झारखंड व यूपी समेत पूरे हिंदी पट्टी में मनाया जानेवाला लोक पर्व है. पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी और पवित्रता है . इस पर्व के लिए विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत नहीं होती है. यह पर्व बांस के बने सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है. नहाय-खाय के साथ शुरू होने वाला चार दिवसीय अनुष्ठान उदयगामी सूर्य को अर्घ देने के साथ संपन्न होता है.
इन चार दिनों के दौरान गली-मोहल्लों से लेकर नदी के तटों और तालाब के किनारों तक पूरा वातावरण भक्तिमय होता है. छठ पर्व के साथ सुमधुर लोक गीतों का गहरा जुड़ाव इसे लोक पर्व बनाता है. ऐसे गीत, जिसे गांव की महिलाओं ने खुद गढ़े, उसे विस्तार दिया और नये-नये शब्द भी गढ़े. इसका कोई रचयिता नहीं. सचमुच छठ सामूहिकता का बोध कराता है और जाति भेद से ऊपर उठ कर संकीर्णता की दीवारों को तोड़ने का संदेश देता है. गुरुवार को खरना संपन्न होने के बाद शुक्रवार को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ दिया जायेगा. सूर्योपासना की परंपरा प्राचीन काल से रही है. सूर्योपासना की परंपरा, भगवान भास्कर की महिमा और छठ की महिमा को समेटता यह विशेष आलेख-
प्राचीन काल से होती रही है सूर्य पूजा
।। उमेश कु सिंह ।।
ऐसा कहा जाता है कि भारत के बारह प्रसिद्ध सूर्य मंदिरों में छह बिहार में ही हैं. ये हैं- पूण्यार्क (पंडारक), औंगरी (नालंदा), देव (औरंगाबाद), उलार (दुल्हिन बाजार), बुड़गांव (नालंदा) व मार्काण्डेयार्क, कंदाहा (सहरसा). भारत के अन्य छह में से पांच इस प्रकार हैं – कोणार्क (ओड़िशा), दर्शनार्क, अयोध्या, चार्णाक (हिमाचल प्रदेश), वेदार्क (हरियाणा), लोलार्क(वाराणसी ).
यद्यपि सूर्य पूजा की परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता, ऋग्वैदिक काल, रामायण व महाभारत में प्रचुरता से मिलती है, फिर भी उस समय सूर्य मूर्ति निर्माण के दृष्टांत नहीं मिलते हैं. मुल्तान में देश का सबसे प्राचीन सूर्य मंदिर है तथा गुप्त वंश के शासनकाल की अनेक सूर्य मूर्तियां प्राप्त हुई हैं. प्राचीन अभिलेखों एवं सिक्कों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय शासनकाल में प्राचीन बिहार में शैव, वैष्णव एवं शक्ति पंथ के साथ-साथ सौर पंथ का भी पर्याप्त विकास हुआ था.
वाराहमिहिर संहिता में कहा गया है कि सूर्य की पूजा से धन, शांति और समृद्धि मिलती है. बिहार में इस काल में सूर्य के उपासक भारी संख्या में थे, जो सूर्य को द्वादसादित्याग एवं नवग्रहों के रूप में भी पूजते थे. विग्रहपाल तृतीय का गदाधरा मूर्ति-अभिलेख भी मारतंड की स्तुति से ही प्रारंभ होता है, जो गया क्षेत्र में सूर्य पूजा की लोकप्रियता को बताता है. यक्षपाल के अभिलेख की सूर्य प्रशस्ति इन शब्दों में प्रारंभ होता है, ‘सूर्य आपकी रक्षा करें, वह जो कमल को सुप्रकाशित करता है, जो जगत है, जो मधु से भरपूर है, जो मधुमक्खियों सहित जीवों के लिए अपने आकर्षक पटलों के साथ आकर्षक है-आठ क्षेत्रों में.’
वृहतसंहिता और विष्णुधर्मोतर में सूर्य की प्रतिमा के स्वरूप का पूरा चित्रण किया गया है. इसमें कहा गया है कि सूर्य की प्रतिमा को यभियांगा से लेकर पांव तक तथा पांव से छाती तक पूरा वस्त्रच्छादित रहना चाहिए. ऐसा ही स्वदेशी बनावट में सूर्य की प्रतिमाएं अरुण, दंड तथा पिंगला के साथ कुर्कीहार के उभार में खड़े सूर्य प्रदर्शित है, किंतु बाराहमिहिर का यह कहना कि सूर्य मूर्ति की पूजा-अर्चना मग ब्राrाण द्वारा ही की जानी चाहिए, विदेशी प्रभाव को प्रदर्शित करता है. साथ ही भविष्यपुराण, साम्बपुराण, वराहपुराण और अगिAपुराण भी कहता है कि मग ब्राrाणों को सूर्य पूजा हेतु बाहर से मंगाना चाहिए. एक पौराणिक कथा में सूर्य की मूर्ति के शरीर के ऊपरी भाग को उनके ससुर, विश्वकर्मा को प्रदर्शित कर, उनकी लड़की संबा को खुश करने की प्रवृत्ति को चित्रित किया गया है.
गुप्तकाल की विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां को देखने से यह ज्ञात होता है कि धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने का प्रयास किया गया. कलकत्ता म्यूजियम में सुरक्षित रखी गया से प्राप्त मूर्ति में बुद्ध और सूर्य को क्रमश: दायें और बायें खड़े साथ-साथ दिखाया गया है तथा बीच में हरि-हर की चतुभरुजी मूर्ति है.
दसवीं सदी की कुर्कीहार से प्राप्त खड़े बुद्ध की पटना म्यूजियम में रखी प्रतिमा, वरद-मुद्रा में इस प्रकार के समन्वय के दृष्टांत के रूप में दृष्टव्य है, जिनके बायें दो हाथ एवं तीन सिर वाले ब्रह्मा की मूर्ति तथा दायीं और दो हाथ वाले इंद्र की मूर्ति है. कलाकारों की यह एक नयी दृष्टि थी, जो संभवत: यह संकेत देती है कि विभिन्न धर्मानुयायियों में प्रतिस्पर्धा हिंसक हो चुका होगा तथा उसमें कमी लाने हेतु ऐसा समन्वयकारी कदम उठाया गया होगा, इस काल का हरी-हरा की मूर्तिकला इस बात की मिसाल है कि वैष्णव और शैव में समन्वय स्थापित करने का किस प्रकार का प्रयास किया गया था. गया के विष्णु मंदिर का गदाधर 1175 ई का तथा गोविंदपाल के चौदहवें वर्ष का भी इसका उदाहरण है, जिसके सिर पर शिवलिंग और दोनों ओर सिंह की मूर्ति प्रदर्शित है.
धर्मपाल के शासनकाल के 26वें वर्ष में गया में प्रतिस्थापित चतुमरुख-महादेव की मूर्ति के साथ सूर्य, शिव तथा विष्णु को भी आरूढ़ किया गया है, जो इस समन्वयकारी कदम का एक अभिलेखीय प्रमाण है. ह्लेनसांग के अनुसार बोधगया मंदिर का निर्माण एक शैव धर्मावलंबी राजा के ब्राह्मण मंत्री ने किया था. अनंत-वर्मन मौखरी ने कृष्ण, भूपति (शिव) और देवी (पार्वती), कात्यायनी की मूर्तियों को जहानाबाद की बराबर पहाड़ी एवं गया के नागाजरुनी पहाड़ियों में स्थापित किया था. याज्ञवम्र्मन, अनंतवम्र्मन मौखरी दादा ने वैदिक आहुतियों को धूमधाम से गया में संपन्न किया था तथा इंद्र को धरती पर उतर कर इसे स्वीकार करने की प्रार्थना की थी. ह्लेन-सांग के अनुसार वैशाली, व्रीजीसंघ व कजंगला (राजमहल) क्षेत्र में देवों के अनेक मंदिरों का निर्माण किया गया था.
बसाढ़ से मिली दो सीलों में रविदासाह की प्रशस्ति तथा भागवत आदित्यशय का नाम खुदा हुआ है, जो सूर्य पूजा के प्रचलन का साक्ष्य है. सूर्य की ही एक भव्य प्रतिमा जीडी कॉलेज, बेगूसराय में सुरक्षित है. इसका पूरा श्रेय एक प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो राधाकृष्ण चौधरी को जाता है. डॉ बरूआ ने देव में सूर्य के मंदिर को जीवितवाहन द्वितीय के अभिलेखों से काफी पहले का बताया है. एक सूर्य प्रतिमा वैशकरण को भी गुप्तवंशीय ही कहा जाता है. बसाढ़ से मिली एक टेंपल-सील पर अग्नि-वेदी सूर्य के वृत के साथ प्रदर्शित मिला है, जिस पर खुदे शब्द ‘भागवत आदित्यस्य’ को गुप्तकालीन ही बताया गया है. अग्नि और सूर्य के युग्म को ईरानी प्रभाव का द्योतक बताया गया है. गया के ही एक पुराने पत्थर रैलींग के रेलीफ में भी सूर्यदेव की मूर्ति है, जो एक पहिये के रथ पर चार घोड़ों द्वारा खींचते दिखाया गया है. यहां सूर्य को मानव रूप में बड़ा वृत में रथ के पीछे दिखाया गया है. वे अपने दोनों तरफ दो-दो महिला परिचारिकाओं के साथ हैं, उषा और प्रत्युषा, को अंधेरे के बाद सवेरा दिखाते चित्रित किया गया है. कनींघम ने इस रेलीफ को सूर्य का प्रतिनिधित्व करते स्वीकारा है, किंतु उन्होंने भूलवश बगल की दोनों मूर्तियों को स्त्री के बदले मर्दो के रूप में पहचाना है. इतिहासकार आरएल मित्र एवं बाद में बीएम बरूआ ने कनींघम की इस गलती को सुधारा है.
ईरानियों द्वारा सूर्य का प्रतिनिधित्व सौर-वृत्त या पहिये से किया जाता था. बाद में ईरानियों, मिश्रियों ने सूर्य को मानव रूप में चित्रित किया, लेकिन ईरानियों ने कभी भी सूर्य को रथ चलाते हुए प्रदर्शित नहीं किया है.जीवितवाहन द्वितीय की देवबरनार्क के अभिलेख में शाहाबाद जिले में सूर्य-पूजा की चर्चा है तथा जीवितवाहन द्वितीय ने वरुनावासीन शीर्ष के दानपत्र में सूर्य पूजा हेतु वरुनिका या किशोरवाटक गांव को दान में देने की स्वीकृति अनुमोदित की है. भागलपुर के सनोवर (कहलगांव के पास) ताम्र अभिलेख में दामाचादित देव का उल्लेख है, जिन्हें सूर्य ही बताया गया है. यह अभिलेख राजा बलालसेन के नवम् वर्ष में 1166 ई में जारी हुआ था.इस प्रकार प्राचीन काल से ही सूर्य पूजा की परंपरा रही है.
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत अधिकारी हैं.)
छठ से सीख लेने की जरूरत
-प्रो भृगुनंदन त्रिपाठी, वरीय प्राध्यापक, पटना विश्वविद्यालय-
छठ महापर्व के अवसर पर लोक आस्था का प्रतिमान ऊंचा उठता है. प्रत्येक व्यक्ति में शांति, सदभाव व पवित्रता की मूल भावना होती है. ये भावनाएं छठ महापर्व के दौरान उभर कर सामने आ जाती हैं. इन गुणों को दैनिक जीवन में, रोजर्मे के कार्यो में शामिल करना चाहिए. सच पूछे तो पर्व-त्योहारों की भूमिका भी यही होती है. इसके अनुसरण से जीवन में आध्यात्मिक, मानसिक व बौद्धिक चेतना प्रबल होती है. छठ महापर्व के गीतों पर ध्यान दें तो अधिकांश गीतों में भगवान सूर्य से प्रार्थना की जाती है, उनके यहां रूनकी-झुनकी बेटी हो, संतान हो, उनके घरों में धन की वर्षा हो, सुखमय जीवन का निर्माण हो सके. इसमें दारूण वेदना व कष्टों के हर लेने की प्रार्थना भी शामिल होती है. छठ महापर्व के अवसर पर सामाजिक संकीर्णता के सारे भेदभाव मिट जाते हैं, मानवता का सघन रुप दिखायी पड़ता है, पवित्रता के प्रति आकर्षण दिखता है. किसी के बीच वैर-विरोध की भावना नहीं शेष रह जाती है, इसे हम अन्य दिनों में भी विस्तारित क्यों नहीं कर सकते हैं, जीवन को आकर्षक व सुंदर बना सकते हैं. कई बार स्वयं आश्चर्य होता है यह देख कर कि जो व्यक्ति क्रूर, निर्दयी व धोखेबाज व प्रपंची है, वह अचानक देव तुल्य दिखाई पड़ने लगता है, उसका व्यवहार बदल जाता है. छठ महापर्व के अवसर पर वे सभी अच्छाई के गुण प्रकट हो जाते हैं. उस चेतना को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए.
शक्ति उपासना का भी पर्व
-प्रो शिवाकांत पाठक-
मिथिला आदिकाल से शक्ति का उपासक रहा है. शिव और शक्ति की उपासना यहां प्राय: घर-घर में होती है. यहां लगभग सभी उत्सव उत्साह के साथ मनाये जाते हैं, लेकिन छठ पर्व पर लोक आस्था चरमोत्कर्ष पर रहता है. इसलिए इस त्योहार को बोलचाल में महाभारत पावनि भी कहा जाता है. सूर्य उपासना के रूप में इस पर्व की ख्याति है, लेकिन मिथिला में यह मूल रूप से शक्ति उपासना का पर्व है. परंपरा कमोवेश एक सी है, लेकिन स्थान व वर्ग विशेष में थोड़ी भिन्नता भी नजर आती है. सामाजिक सद्भावना के प्रतीक पर्व की पहचान आज भी बरकरार है. एक ही घाट पर सभी जाति व धर्म तक के लोग अघ्र्य दान करते हैं. प्राचीन काल में जिस वर्ग की परछाई से भी लोग खुद को बचाया करते थे. उसी द्वारा तैयार पात्र (सूप-डगरा व दउरा) में भगवान भास्कर को अर्घ अर्पित किया जाता है. नहाय खाय के दिन से ही परिवार के लोगों को यत्र-तत्र थूकने पर पाबंदी लगा दी जाती है. मिथिला के बारे में विख्यात है कि धर्म का निर्णय अगर करना हो तो मिथिला के व्यवहार का अनुकरण करो. तात्पर्य कि यहां के सभी व्यवहार व परंपरा धर्म आधारित हैं. ऐसे में सामाजिक सद्भावना को धर्म-निर्देश ही कहा जायेगा. मिथिला में अधिकांश स्थानों पर श्रद्धालु संध्याकाल अघ्र्य दान के बाद पूजन सामग्री लेकर अपने घरों को लौट जाते हैं तो कहीं-कहीं पूरी रात घाट पर ही बिताने की परंपरा है. कुछ स्थानों पर कच्च सांच से संध्याकाल अघ्र्य अर्पित किया जाता है और रात में उसको छानकर सुबह में अघ्र्य दान लोग करते हैं. वहीं कई स्थानों पर सूप के सिद्ध (पकाया हुआ) पकवान को सुबह में बदल दिया जाता है.
( लेखकसेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)
सूर्य पूजा का संदर्भ
छठ सूर्य की आराधना का पर्व है. सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें देखा जा सकता है. सूर्य की शक्तियों का स्नेत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं. छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है. सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ दिया जाता है और प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) को अर्घ देकर दोनों को नमन किया जाता है.
सूर्योपासना की परंपरा
भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है. सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है. मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यविस्थत पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है.
देवता के रूप में
सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर प्रारंभ हो गयी. देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है.
आरोग्य देवता के रूप में : पौराणकि काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था. सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी गयी. ऋ षि-मुनियों ने अपने अनुसंधान में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया. संभवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो.
मानवीय रूप की कल्पना
उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी. इसने कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया. पौराणकि काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया. अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाये गये.
ऐतिहासिक धरोहर है उलार सूर्य मंदिर
अभय, दुल्हिनबाजार.
पटना जिले के दुल्हिनबाजार का उलार सूर्य मंदिर देश के 12 सूर्योपासना स्थलों में से एक है. यहां कार्तिक व चैत में छठ के मौके पर अर्घ देने के लिए हजारों व्रती आते हैं. इस मंदिर की सभी मूर्तियां पालकालीन ब्लैक स्टोन की हैं. भगवान सूर्य के अलावा कृष्ण, शंकर, पार्वती, गणोश आदि देवताओं की मूर्तियां भी हैं. पहले का ओलार्क अब उलार के नाम से जाना जाता है. उलार मंदिर के एक कोने में दर्जनों टूटी हुई मूíतयां हैं. इन मूíतयों की भी पूजा होती है. यहां छठ में नेटुआ नचाने की प्रथा अब भी कायम है. जिसकी मनौती पूर्ण होती है वह महिला अपनी आंचल को जमीन पर बिछा देती है, जिस पर बाजा बजाते हुए नेटुआ नाचता है.
द्वापर युग का है बड़गांव का सूर्य मंदिर
अरुण कुमार, बिहारशरीफ.
बड़गांव का सूर्य मंदिर पौराणिक सूर्यपीठ है. भगवान सूर्य इस मंदिर में पूरे परिवार के साथ विराजमान हैं. बनावट की दृष्टि से बड़गांव सूर्य मंदिर में स्थापित भगवान सूर्य की प्रतिमा द्वापर युग की है. कहा जा सकता है कि यह राजा सांब के समय का है. इस मंदिर से थोड़ी दूर गांव के किनारे पर एक बड़ा-सा तालाब है जो सूर्य तालाब के नाम से प्रसिद्ध है. इस तालाब का उल्लेख द्वापर युग से ही चला आ रहा है. इस तालाब में स्नान करने के बाद राजा सांब बड़गांव सूर्य मंदिर में पूजा-अर्चना करते थे. ऐसी मान्यता है कि पहले इस तालाब में दो कुंड थे. एक जल का और दूसरा दूध का. समय बीतने के साथ तालाब के दोनों कुंड जमीनदोज हो गये. छठ के अवसर पर बड़गांव में मेला लगता था. यहां छठ करने के लिए न केवल दूसरे जिलों से बल्कि दूसरे प्रदेशों के लोग बड़ी संख्या में आते हैं. झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, राजस्थान आदि राज्यों से लोग यहां छठ करने के लिए नहाय-खय के पहले ही पहुंच जाते हैं.
आदिकाल से होती रही है यहां पूजा
सत्यशरण ,पंडारक.
बाढ़ अनुमंडल मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर और पंडारक प्रखंड मुख्यालय से एक किलोमीटर दूर गंगा के किनारे स्थित है पंडारक का सूर्य मंदिर. पंडारक का पौराणिक नाम पुण्यार्क है. यहां भगवान सूर्य की पूजा आदिकाल से होती आ रही है. पंडारक सूर्य मंदिर द्वापरकालीन है. भगवान श्रीकृष्ण के बेटे सांब ने इस मंदिर का निर्माण कराया था. मत्स्य पुराण में सूर्य प्रतिमा का जो विधान वर्णित है, इसमें सात घोड़ों से युक्त रथ की चर्चा है. पुण्यार्क सूर्य मंदिर में ऐसी ही सूर्य की प्रतिमा है. प्रतिमा के हाथ भी कमर तक ही है. वास्तुकला विशेषज्ञों के अनुसार पुण्यार्क सूर्य मंदिर में सूर्य प्रतिमा का निर्माण पहली सदी में हुआ होता जान पड़ता है. इसी समय ईरान के सूर्य उपासक पुजारियों का आगमन भारत में हुआ था.
नेपाल से पूजा करने आते हैं श्रद्धालु
सहरसाः देशभर में स्थापित सूर्य मंदिरों में कोणार्क सूर्य मंदिर के बाद शेष मंदिरों में कंदाहा सूर्य मंदिर की पौराणिकता व गर्भ गृह में स्थापित भगवान सूर्य की प्रतिमा अद्वितीय है. जिला मुख्यालय से से 15 किमी पश्चिम व प्रखंड मुख्यालय से पांच किमी उत्तर में धर्ममूला नदी के किनारे कंदाहा गांव में इस मंदिर की स्थापना 14वीं सदी में की गई थी. जनश्रुतियों के अनुसार ओइनवार ब्राह्मण वंश के राजा नरसिंह देव ने इस मंदिर का निर्माण कराया था. कंदाहा मंदिर एक ऊंचे टीले पर अवस्थित है. छठ पर इस मंदिर में नेपाल से भी श्रद्धालु आते हैं.
-नहीं रहती जाति-धर्म की दीवार-
।। उषा किरण खान, साहित्यकार।।
भगवान सूर्य की समस्त ऊर्जा बिना किसी भेदभाव के अमीर-गरीब, सूक्ष्म व विशाल जीव-जंतुओं को समान रूप से मिलती है. जाति-धर्म को भूल कर समाज के सभी वर्गो के लोग इस महापर्व में शामिल होते हैं. पूरा समाज छठमय हो जाता है. ऐसा नहीं कि सब जैसे-तैसे काम करते हैं, बल्कि पूरी पवित्रता व आस्था के साथ हर काम को पूरा करते हैं.
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छठ महापर्व सामाजिक समरसता को विकसित व उर्वर भूमि प्रदान करता है. बिहार सहित उत्तर भारत के प्रमुख क्षेत्रों से होते हुए छठ का विस्तार मुंबई व दिल्ली तक हो गया है. बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग जहां-जहां गये, वे अपनी परंपरा को साथ लेते गये. चार दिवसीय छठ व्रत के दौरान व्रती के साथ उनके परिजन, गांव व मुहल्ले के लोग एकजुट होकर महापर्व में अपनी सहभागिता निभाते हैं. सूर्य के प्रकाश के समान व्रती की आभा समान रूप से अपने आसपास रहनेवालों के बीच फैल जाती है. भगवान सूर्य की समस्त ऊर्जा बिना किसी भेदभाव के अमीर-गरीब, कंद-मूल, सूक्ष्म व विशाल जीव-जंतुओं को समान रूप से मिलती है. छठ के दौरान गांव में आसानी से उपलब्ध होनेवाली सामग्री का उपयोग किया जाता है. बांस से निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतन, गन्ने का रस, गुड़ व चावल आसानी से उपलब्ध होनेवाली सामग्री है.
मुसलिम महिलाएं चूल्हा बनाती हैं, तो पुरुष बहंगी बनाते हैं. भंगी समाज के लोग टोकरी व सूप बनाते हैं, तो कुम्हार मिट्टी के दीये व बरतन उपलब्ध कराते हैं. मुसहर व मल्लाह समाज के लोग पानी व मिट्टी के अंदर पैदा होनेवाले फल निकालते हैं. घेचूल व शारुख पानी के अंदर होते हैं. छठ में इनका भी प्रयोग होता है. विभिन्न प्रकार के किसानों की भी सहभागिता होती है. किसी किसान से कंदली फल, तो किसी से अमरूद, तो कोई चावल देता है. मुसलिम समाज के लोग ही लहठी व चूड़ी बनाते हैं. अलता भी उन्हीं के द्वारा बनाया जाता है. सभी सामान छठ में प्रयोग होता है.
किसी-किसी व्रती के यहां मनता माना जाता हैं कि इस बार फलां काम होने पर नाच करायेंगे, तो उसमें समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोग ही नाच-गान को घाट पर प्रस्तुत करते हैं. पूरा समाज छठ में मिश्रित हो जाता है. ऐसा नहीं कि सब जैसे-तैसे काम करते हैं, बल्कि पूरी पवित्रता व आस्था के साथ हर काम को समाज के सभी वर्गो द्वारा पूरा किया जाता है. गांव व मुहल्ले के लोग घाट पर सफाई में सहयोग करते है. कोई चेन स्नेचर भी हो, तो उस दिन किसी का गिरा हुआ गहना सहृदयता के साथ लौटा देता है. दरअसल, पूरी आस्था के साथ समाज का हर वर्ग व्रत के आयोजन में शामिल होता है.
इसलिए इसे लोक आस्था का महापर्व कहा गया है. भगवान सूर्य के प्रताप से समाज में एक-दूसरे के प्रति सौम्यता व सहजता का वातावरण विकसित होता है. छठ में समाज का कोई तबका अछूता नहीं रहता है.
सभी बढ़-चढ़ कर अपनी ओर से व्रती को सहयोग करते हैं. छठ परंपरा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. सास से यह परंपरा बहू व बेटियों में आती है, फिर धीरे-धीरे यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है. इस व्रत को करने के बाद छोड़ा नहीं जाता है.
अगर कोई छोड़ता है, तो उसे सदा के लिए छोड़ देता है. कई लोग छोड़ने के बाद भी अपना सूप दूसरे को सौंपते हैं. ऐसे में एक-दूसरे के प्रति लगाव व सद्भाव का विकास होता रहता है. मिथिलांचल में तो कई महिलाएं अपने घर के पालतू जीव गाय-भैंस के नाम पर भी छठ करती हैं. उनकी मनता होती है कि इस बार गाय का बच्च ठीक से हो जायेगा, तो सूप चढ़ायेंगे. छठ पर्व के दौरान आस्था चरम पर होती है.
(कौशलेंद्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)