खतरे में भारत!

आज आतंकवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा कहा जा सकता है. आतंकवादी जिस सुगमता से देश के किसी भी हिस्से में अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में कामयाब हो रहे हैं, कभी दरभंगा टेरर मॉड्यूल, तो कभी रांची मॉड्यूल की शब्दावली गढ़ी जा रही है, उसे देखते हुए लगता है कि आतंकवाद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 10, 2013 12:40 PM

आज आतंकवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा कहा जा सकता है. आतंकवादी जिस सुगमता से देश के किसी भी हिस्से में अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में कामयाब हो रहे हैं, कभी दरभंगा टेरर मॉड्यूल, तो कभी रांची मॉड्यूल की शब्दावली गढ़ी जा रही है, उसे देखते हुए लगता है कि आतंकवाद का खतरा हम सबके दरवाजे तक आ गया है. देश की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष मौजूद चुनौतियों की प्रकृति और इसके ऐतिहासिक कारणों को समझने में पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह की नयी किताब ‘इंडिया एट रिस्क : मिस्टेक्स, मिसकंसेप्शन एंड मिसएडवेंचर’ हमारी मदद करती है.

इच्छाशक्ति और ठोस नीति का सतत अभाव
1947 में देश का विभाजन हमारी सुरक्षा को पहला बड़ा आघात था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने अपनी चिंताओं को दरकिनार कर अपनी जमीन की सामरिक एकता से समझौता किया, ताकि मुसलिम लीग की मांग को पूरा किया जा सके. ब्रिटिश एक्ट को मानते हुए भारत ने आजादी हासिल की. इसे स्वीकार कर हमने समग्र भारतीय उपमहाद्वीप के लिए महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच को नष्ट कर दिया. इस गलती का खमियाजा हमें आज भी भुगतना पड़ रहा है. हमें पाकिस्तान से लड़ाइयों के अलावा 1962 में चीन से लड़ाई लड़नी पड़ी. 1971 में पाकिस्तान से लड़ाई के बाद बांग्लादेश के गठन के बाद उम्मीद थी कि क्षेत्र में शांति बहाल होगी. लेकिन, दुर्भाग्यवश भारत में हालात बिगड़ने लगे और नियंत्रण से बाहर हो गये.

1980 में कांग्रेस सरकार ने कई ऐसे फैसले लिये जो सुरक्षा के लिए सही नहीं थे. प्रधानमंत्री के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सबसे बड़ी क्षति थी संजय गांधी की 23 जून 1980 को विमान हादसे में दुखद मृत्यु. इस हादसे का इंदिरा गांधी पर गहरा असर पड़ा. इसी समय असम, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और श्रीलंका में हालात बिगड़ रहे थे. दुर्भाग्यवश इंदिरा गांधी ने इन सभी समस्याओं का प्रबंधन सही तरीके से नहीं किया. असम में असम अस्मिता और अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ पर शुरू हुए छात्र आंदोलन को कुचल दिया गया. इसके फलस्वरूप ही उल्फा का जन्म हुआ और वहां हिंसक आंदोलन तेज हो गया. इससे निबटने के लिए सेना को तैनात करना पड़ा. उसी समय पंजाब में भी चरमपंथी आंदोलन उफान पर था. 1984 में स्वर्ण मंदिर को आंतकियों से मुक्त कराने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी. इसी समय कश्मीर में भी अलगाववाद अपनी जड़ें जमाना शुरू कर चुका था. 80 के दशक में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई अहम घटनाएं घट रही थीं. अफगानिस्तान में सोवियत संघ सेना का दखल भारतीय सुरक्षा के लिए एक बड़ी घटना थी, जिसने हमारे राष्ट्रीय हित को प्रभावित किया और अभी भी कर रहा है. 80 का दशक तीन महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का साक्षी रहा- अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ आंदोलन, पंजाब में सैन्य कार्रवाई और श्रीलंका में भारतीय शांति सेना का दखल. इनका लंबे समय तक हमारी सुरक्षा पर असर पड़ा.

इनके अलावा 1983 में जम्मू कश्मीर के चुनाव को भी शामिल किया जा सकता है. उत्तर-पूर्व में अवैध घुसपैठ लंबे समय से सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे के केंद्रबिंदु में रहा है. घुसपैठ के कारण राजनीतिक और सांस्कृतिक तरीके में व्यापक बदलाव आ गया है. स्थानीय आदिवासी समूह अल्पसंख्यक हो गये हैं. अगर 1901 से 1971 तक की आबादी की वृद्धि पर गौर करें तो असम में 345 फीसदी, त्रिपुरा में 798 फीसदी की बढ़ोतरी हुई आबादी में. आज त्रिपुरा में गैर-आदिवासियों की आबादी 71 फीसदी हो गयी है. आबादी की इतनी अधिक वृद्धि दर से पूरे उत्तर पूर्व में जटिल समस्या पैदा हो गयी है. उत्तर पूर्व में आर्थिक सूचकांक में जमीन और रोजगार का महत्वूपर्ण स्थान है. आज असम में प्रति व्यक्ति भूमि देश में सबसे कम है. मिजोरम, नगालैंड में नौकरशाही के रवैये के कारण लोगों में अलगावाद की भावना पनपी. पंजाब में भी हालात सरकार के कारण बिगड़े. अकालियों से लड़ने के लिए जनरैल सिंह भिंडरावाले को बढ़ावा दिया गया. गिरफ्तारी का वारंट होने के बावजूद भिंडरावाले को मुंबई और दिल्ली आने की इजाजत दी गयी. राजीव गांधी के शासनकाल में श्रीलंका में तमिल समस्या से निबटने के लिए भारतीय शांति सेना भेजना सबसे बड़ी चूक थी. लेकिन, 90 के दशक में आतंकवाद ने भारत के दूसरे हिस्सों में अपना असर दिखाना शुरू कर दिया.

96 में नरसिंह राव अपना कार्यकाल पूरा कर चुके थे. इसके बाद राजनीतिक अस्थिरता का दौर रहा. इस दौरान 1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण करना बड़ी घटना थी. अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाये जाने के बाद अर्थव्यवस्था का प्रबंधन बड़ी चुनौती थी. प्रधानमंत्री वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर करने के लिए 1999 में अमृतसर से लाहौर की बस यात्र की. लेकिन, मई 1999 में कारगिल में पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ की खबर आने लगी. पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ की खबर पक्की होने के बाद भारत को सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी. इसी साल भारतीय विमान आइसी-814 को हाइजैक कर लिया गया. फिर 2001 में भारतीय संसद पर आतंकी हमला हुआ. इस हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के संबंध काफी तनावपूर्ण हो गये. इन गलतियों से हमने सबक नहीं सीखा. आजादी के 66 साल बीतने के बावजूद हम आखिर क्यों राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष मौजूद चुनौतियों का जवाब देने में हिचक दिखाते हैं! यह चुनौती व्यापक है और चिंता का विषय भी, लेकिन इसके प्रति हमारी समझ और तैयारी सही नहीं रही है.

सरकार और लोगों के बीच दूरी कायम है. देश के 127 जिले माओवाद से प्रभावित हैं और यह इस चुनौती का एक पहलू भर है. हम जो राजनीति करते हैं, वह समय के अनुरूप नहीं है. जो व्यवस्था हमें मिली है, वह मौजूदा समय की चुनौतियों के अनुरूप नहीं है. यही वजह है कि राजनीति, राजनीति करनेवाले नागरिकों की नजर में विश्वासयोग्य नहीं रह गये हैं. मुद्दा हमारी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर शांति का भी है. आखिर क्या वजह है कि आजादी के इतने साल बीतने के बावजूद विश्व की सबसे विवादास्पद सीमा समस्या का हल नहीं हो पाया है?

आजादी के बाद भारत के समक्ष आतंरिक और बाह्य चुनौतियां सुरक्षा के लिए खतरा बनी है. खासकर पिछले दो दशकों में आतंकवाद और नक्सलवाद प्रमुख चुनौती बनकर उभरे हैं. हमने इन चुनौतियों का कैसे सामना किया है? आतंकवाद भारत के लिए चुनौती बना रहेगा. अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद आतंक की पहचान बदली और आने वाले समय में यह फिर बदलेगी. हमें इससे निबटने के लिए कारगर उपाय करने होंगे, क्योंकि यह आसानी से हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा. इससे निबटने के लिए अभी तक हमने एडहॉक (फौरी) तरीके ही अपनाये हैं. इन उपायों से हमें आतंकवाद से लड़ने में सफलता नहीं मिलेगी.

भारत छद्म युद्ध, राज्य प्रायोजित आतंकवाद और सीमापार आतंकवाद का सामना करता रहा है. आतंकवादी संगठन किसी एक नेता के सहारे नहीं चलते हैं. हम सिर्फ आतंकी संगठनों के प्रमुखों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि हमारा मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए किआतंक को पनपने के लिए जमीन ही नहीं मिले ताकि वह अपनीजडेन जमा सके. आतंकवाद के मौजूदा स्वरूप को देखते हुए यह जरूरी है कि देशों के बीच समन्वय हो. आतंकवाद के खिलाफ हम आतंकी तरीके अपनाकर सफल नहीं हो सकते हैं. इसके लिए एक समग्र और ठोस नीति बनाने की जरूरत है.

(‘इंडिया एट रिस्क : मिस्टेक्स, मिसकंसेप्शन एंड मिसएडवेंचर’ किताब से संपादित अंश)

जसवंत सिंह,

पूर्व विदेश मंत्री

जब एक आदमी से हारा आतंकवाद
पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल को पंजाब से आतंकवाद का खात्मा करने का श्रेय दिया जाता है. हाल ही में आयी गिल की राहुल चंदन द्वारा लिखित जीवनी ‘द पारामाउंट कॉप’ गिल के जीवन के साथ ही, पंजाब के आतंकवाद निरोधी अभियान के बारे में भी विस्तार से बताती है. यह एक सीख है कि कैसे आतंकवाद के खिलाफ जंग जीती जा सकती है. यहां पुस्तक के अंशों को मिला कर पंजाब में आतंकवाद के खात्मे की कहानी कही गयी है.

आतंक और आतंकवाद से चौतरफा घिरे पंजाब को आतंकवाद के चंगुल से निकालने के लिए पंजाब पुलिस के आइजी केपीएस गिल को 1988 के अप्रैल महीने पंजाब का पुलिस महानिदेशक बनाया गया. इस वक्त तक पंजाब में 2,866 जानें जा चुकी थीं, जिसमें 2,207 नागरिक, 177 पुलिस और 482 आतंकवाद मारे गये थे. गिल से पहले पंजाब के पुलिस महानिदेशक रहे रिबेरो को ऐसा लगता था कि वे मुंबईवासी पहले हैं, और भारतीय बाद में. इसलिए वे पंजाब की समस्या को खुद की समस्या मान कर इसके समाधान की दिशा में पहल नहीं कर पाये. ऐसे वक्त में केंद्र सरकार ने पंजाब में कानून व्यवस्था की स्थिति को सुधारने और कानून का शासन स्थापित करने के लिए केपीएस गिल को यह जिम्मेवारी सौंपी.

पंजाब के पुलिस महानिदेशक के रूप में केपीएस गिल के सामने पहली चुनौती स्वर्ण मंदिर को आतंकवादियों के चंगुल से मुक्त कराने की थी, जिसे खालिस्तानी आतंकी संगठन अपने मुख्यालय के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे. परिस्थिति ठीक वैसी ही बन गयी थी, जिसमें सरकार को ऑपरेशन ब्लूस्टार के लिए मजबूर होना पड़ा था. गिल के महानिदेशक बनने के बाद तीन सप्ताह बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा बुलाई गयी एक उच्चस्तरीय बैठक में पंजाब के गवर्नर एसएस रे, गवर्नर के सलाहकार रिबेरो, आइबी निदेशक नारायणन, केंद्रीय गृह सचिव, केंद्रीय कैबिनेट सचिव आदि शामिल हुए. पंजाब पुलिस के महानिदेशक के रूप में बैठक में गिल को भी शामिल किया गया.

जब राजीव गांधी ने वर्तमान परिस्थितियों से निबटने के लिए बनायी गयी योजना के विषय में सवाल किया, तो बैठक में चुप्पी छा गयी. ऐसा लगा कि किसी के पास कोई योजना नहीं है. शायद ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके पश्चात उपजी परिस्थिति के कारण कोई भी कुछ भी कहने से बच रहा था. वरिष्ठता क्रम में काफी नीचे होने के कारण गिल चुप रहे. सर्वत्र चुप्पी देख कर और यह सुनिश्चित हो जाने के बाद कि किसी के पास कोई योजना नहीं है, गिल ने स्वर्ण मंदिर और इसके आसपास के नक्शे के साथ पूरी योजना रखी. उन्होने प्रधानमंत्री के समक्ष सबकुछ विस्तार से रखा.

कहा कि सेना का कोई जवान इस अभियान के दौरान नहीं होगा, और मीडिया चाहे देशी मीडिया हो या विदेशी उसे पूरे अभियान का कवरेज करने की अनुमति होगी, ताकि देश और दुनिया के लोग मीडिया के जरिये यह जान सकें कि वहां क्या हो रहा है? कौन गलत है, पुलिस या आतंकवादी? आगे भी उन्होंने प्रेस पर किसी तरह के प्रतिबंध का विरोध किया. उनकी सोच थी अगर लोगों तक सही सूचना जाये तो अफवाहों से बचा जा सकता है. राजीव गांधी को गिल की योजना पसंद आयी. आगे चलकर इस अभियान को ब्लैक थंडर के नाम से जाना गया. इस अभियान के दौरान गिल ने काफी दृढ़ता का परिचय दिया. आतंकवादियों के समर्पण के बाद केंद्र सरकार की राय थी कि स्वर्ण मंदिर परिसर का भी फिल्मांकन किया जाए, लेकिन गिल इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते थे. उन्होंने तर्क दिया कि अभियान के दौरान मंदिर को भी नुकसान पहुंचा है. इसलिए हम विदेशी मीडिया को इसे शूट करने की इजाजत नहीं दे सकते.

वे दूरदर्शन को फिल्मांकन की इजाजत देने के लिए रजामंद थे, लेकिन उनकी स्पष्ट राय थी कि यह चित्रण प्रसारण के लिए नहीं बल्कि रिकॉर्ड के लिए हो. दूसरा मुद्दा स्वर्ण मंदिर के खजाने में जमा आभूषणों को लेकर था. गिल का कहना था कि शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के सदस्य को बुलाकर ही स्वर्ण को सरकार के कोष में जमा कराया जाना चाहिए, नहीं तो ऐसा संभव है कि इस तरह के आरोप लगाये जायें कि वरिष्ठ अधिकारी ने स्वर्ण मंदिर के सोने में हेराफेरी की. इसी वजह से वे स्वर्ण मंदिर नहीं गये, और पुलिस ने सोने को एसजीपीसी को सौंप दिया.

इस अभियान के समाप्त होने के बाद सभी बड़े आतंकवादियों ने समर्पण कर दिया. यह पुलिस के लिए बड़ी सफलता थी. हालांकि ऑपरेशन थंडर पंजाब के आतंकवाद के संदर्भ में एक छोटा अभियान था, लेकिन इस घटना के बाद आम लोगों को यह बात समझ में आ गयी कि कैसे आतंकवादी धर्म की आड़ लेकर और मंदिरों और गुरुद्वारों को अपना ठिकाना बना कर आंतकी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं.

रणनीतिक कौशल ने दिलायी पंजाब में सफलता
पंजाब पुलिस में लंबा वक्त गुजारने के कारण गिल पंजाब पुलिस की समस्याओं से बखूबी वाकिफ थे. हालांकि उन्हें राजनेताओं का समर्थन मिल रहा था, लेकिन साधनों की कमी गिल के समक्ष बड़ी समस्या थी. गिल ने अपनी बेहतर रणनीति की बदौलत, संसाधनों की कमी के बावजूद पंजाब में आतंकवाद के विरुद्ध अभियान की सफल शुरूआत की. इस दौरान उन्होंने पाया कि पंजाब पुलिस में नेतृत्व क्षमतावाले पुलिस अधिकारियों की कमी है. ज्यादातर वरिष्ठ अधिकारी किसी भी अभियान में खुद शिरकत न करते हुए निचले अधिकारियों के भरोसे रिमोट कंट्रोल के जरिये अभियान का संचालन करते थे, ताकि उन्हें खुद जोखिम न उठाना. पुलिस बल की तैनाती की योजना ज्यादातर कागज पर बनायी जाती थी, और बड़े अधिकारियों के स्तर पर इस बात को परखने की कोशिश न के बराबर की जाती थी कि जमीन पर योजनाओं को कितना अमल में लाया गया.

अभियान सफल हुआ या विफल या फिर विफलता के क्या कारण रहे? ऐसे माहौल में जब गिल पुलिस महानिदेशक बने, उन्होंने खुद आगे बढ़ कर पुलिस को नेतृत्व देने का निर्णय लिया. ज्यादातर अभियानों में उन्होंने खुद शिरकत की और जहां भी आतंकी घटनाएं घटित होती, वे खुद जाते. एक तरफ गिल का हेलीकॉप्टर पंजाब के दूर-दराज के आतंकी बहुल इलाकों में निर्भीकता से घूम रहा होता, वहीं दूसरी तरफ गिल सड़क मार्ग का प्रयोग करते हुए हर उस जगह पर जाते जहां से उन्हें आतंकी हमला होने की सूचना मिलती. वे खुद पुलिसकर्मियों के साथ मिल कर आतंकियों के खिलाफ मोर्चा संभालते दिखे. पुलिस महानिदेशक की इस निर्भीकता ने स्वाभाविक रूप से अन्य पुलिस बलों का हौसला बढाया.

कई कनिष्ठ अधिकारियों ने आगे बढते हुए अपनी पदस्थापना आतंक प्रभावित इलाकों में करने और उन्हें खतरनाक अभियानों से जोड़े जाने की मांग की. यह आंतक विरोधी अभियानों के लिए काफी अहम था. गिल दूसरे राज्यों के कैडर और सशस्त्र सैन्य बलों को अपने अभियान के लिए लेकर आये. एक वक्त था जब लोग आतंकवाद या बढ़ते अपराध के लिए पुलिस के मनोबल और उनके लुंज-पुंज रवैये को जिम्मेवार मानते थे, लेकिन गिल ने पांच वर्ष में अपने पुलिसकर्मियों के मनोबल को इस हद तक बढ़ाया कि अब पुलिसवाले पुलिस स्टेशन में बैठ कर आतंकियों के हमले का इंतजार नहीं करते, बल्कि प्रो-एक्टिव कार्रवाई करते.

इसके अलावा गिल ने खुफिया सूचनाओं को एकत्र करने और उन सूचनाओं के विश्लेषण के लिए मजबूत नेटवर्क तैयार करने पर खासा जोर दिया. खुफिया अधिकारियों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया गया कि कैसे वे आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों और आम लोगों में अंतर करें, ताकि कम से कम लोगों को किसी भी तरह के उत्पीड़न या असुविधा का सामना करना पड़े. इसके साथ ही पुलिस के मुखबिरों का एक बड़ा संजाल तैयार किया गया. इन मुखबिरों को सूचना देने के एवज में पैसे भी दिये गये. आम लोगों का पुलिस बल के प्रति विश्वास बढ़ाने के लिए पुलिस थानों द्वारा स्थानीय युवाओं को जोड़ने के लिए कई खेलकूद कार्यक्रम आयोजित किये गये. साथ ही सूचना देनेवालों की सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया गया. पुलिस थानों में पुलिस बलों की संख्या बढायी गयी. साथ ही उन्हें आतंकवाद से लड़ने के लिए अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित किया गया.

प्रशिक्षण, हथियार, यातायात और संचार के साधनों से लैस पंजाब के पुलिस थाने आतंकी चुनौतियों से निबटने के लिए पूरी तरह से तैयार थे. सभी पुलिस थानों को मुख्यालय में स्थित सशस्त्र सैन्य बलों की तरफ से हर संभव मदद मुहैया करायी गयी. शहरी इलाकों में आतंकी घटना घटित होने के 3-5 मिनट और ग्रामीण इलाकों में घटना घटित होने 15-20 मिनट के बीच पुलिस बल पहुंचाने की व्यवस्था की गयी.

पुलिस बल को कम जरूरी गतिविधियों में शामिल होने की बजाय आतंक के खिलाफ अभियान में अधिक से अधिक संख्या में जोड़ा गया. इतना ही नहीं, गिल ने पुलिस बलों की सुरक्षा के लिए हर संभव उपाय किये. पंजाब पुलिस के डीआइजी केके अत्री के नेतृत्व में एक सेल का गठन किया गया जो इस बात का आकलन करता था कि आतंकियों के पास किस तरह के हथियार हैं और उनसे मुकाबला करने के लिए पुलिस बलों को कैसे हथियार चाहिए.

पंजाब पुलिस में खालिस्तानियों के प्रति सहानुभूति रखनेवाले पुलिसकर्मियों की संख्या काफी थी. बाहर से आये सशस्त्र सैन्य बल के जवान सिख पुलिसकर्मियों को संदेह की नजर से देखते थे. गिल ने इस तरह की सहानुभूति रखनेवाले पुलिस बल के जवानों को संवेदनशील अभियानों से अलग करते हुए कम महत्व के कामों पर लगाया. हालांकि इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि किसी की भावनाएं आहत न हो और सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे. अपनी खुफिया सूचनाओं का इस्तेमाल करते हुए गिल ने आतंकियों को कई श्रेणियों में बांटा. कम हिंसक अर्थात निचली श्रेणी के आतंकी, जिन्हें पुलिस द्वारा पकड़ा गया, उनसे प्राप्त सूचनाओं का इस्तेमाल बड़े आतंकियों को पकड़ने के लिए किया गया. कई भटके हुए युवाओं को गिल ने मुख्यधारा में पुनर्वापसी का मौका दिया.

एक अध्ययन के मुताबिक सिर्फ 10 फीसदी आतंकी ही ऐसे थे जो खालिस्तान की मांग में दिल से जुड़े हुए थे. 50 फीसदी आतंकियों ने सिर्फ इसलिए हथियार उठाया था कि उन्हें बंदूक के बल पर साहस के प्रदर्शन का मौका मिलता था. जबकि बाकी के 40 फीसदी नौजवान गरीबी से विवश होकर अपनी रोजी-रोटी के लिए आतंकियों के साथ जुड़े हुए थे. जिनके लिए आतंक रोजी-रोटी का जरिया बन गया था, और आतंकी संगठन द्वारा दी गयी मदद से उनका परिवार चलता था.

गिल ने ग्रामीण इलाकों में ग्राम सुरक्षा योजना और स्पेशल पुलिस ऑफिसर की नियुक्ति की प्रक्रिया अपनायी, ताकि स्थानीय स्तर पर आतंकी चुनौती का मुकाबला किया जा सके. गिल की पहल पर पाकिस्तान की तरफ पड़नेवाले पूरे पंजाब बॉर्डर पर बाड़ लगाया गया ताकि आतंकियों की घुसपैठ को रोका जा सके. इतना ही नहीं अपने हर अभियान की पारदर्शिता पर भरोसा करने वाले गिल ने मीडिया के साथ ही बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल आतंक के खिलाफ अपने अभियान में किया, ताकि मनौवैज्ञानिक युद्ध में आंतकियों को मात दिया जा सके. गिल के अभियानों में मीडिया को कवरेज का पूरा मौका दिया जाता था, और उन्हें निष्पक्ष रिपोर्ट लिखने, स्वतंत्र रूप से खोजी पत्रकारिता करने की पूरी छूट थी.

(प्रस्तुति : संतोष कुमार सिंह)

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