वैश्विक तेजी में भारत में मंदी क्यों?
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री वर्तमान में हमारी बिगड़ती स्थिति का कारण वैश्विक संकट नहीं बल्कि घरेलू नीतियां हैं. मनरेगा तथा भ्रष्टाचार के कारण हमारे उद्योगों की लागत ज्यादा आ रही है और हमारे निर्यात विश्व बाजार से बाहर हो रहे हैं.इस समय विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार आ रहा है. अमेरिका पहले ही मंदी […]
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
अर्थशास्त्री
वर्तमान में हमारी बिगड़ती स्थिति का कारण वैश्विक संकट नहीं बल्कि घरेलू नीतियां हैं. मनरेगा तथा भ्रष्टाचार के कारण हमारे उद्योगों की लागत ज्यादा आ रही है और हमारे निर्यात विश्व बाजार से बाहर हो रहे हैं.इस समय विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार आ रहा है. अमेरिका पहले ही मंदी से निकल चुका है. पिछली तिमाही में यूरोप की अर्थव्यवस्था ने भी जोर पकड़ा है. लेकिन हमारी हालत पस्त है. हम पूर्व में नौ प्रतिशत विकास दर हासिल कर चुके थे. आज पांच प्रतिशत भी बनाये रखना कठिन हो रहा है.
कारण हमारी घरेलू नीतियां हो सकती हैं. पिछले दशक के अपने अनुभव से ज्ञात होता है कि इस समय रुपये का टूटना वैश्विक कारणों से नहीं है. वर्ष 2002 से 2008 के बीच विश्व अर्थव्यवस्था स्थिर थी. इस अवधि में रुपये का मूल्य 45 रुपये प्रति डॉलर पर टिका रहा. 2008 में वैश्विक मंदी का दौर चालू हुआ जो कि 2012 तक चला. इस अवधि में भी रुपये का मूल्य 45 रुपये प्रति डॉलर पर टिका रहा.
इससे प्रमाणित होता है कि रुपये पर विश्व अर्थव्यवस्था की चाल का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है. 2012 के बाद विश्व अर्थव्यवस्था ने पुन: सुधार की तरफ रुख किया है. लेकिन इस बार रुपये ने तेजी से लुढ़कना शुरू कर दिया है. इससे प्रमाणित होता है कि रुपये के टूटने का कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था का उलटफेर नहीं है.
इन कारणों को समझने के लिए विश्व अर्थव्यवस्था से हमारे संबंध पर नजर डालनी होगी. विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा एक संबंध आयात और निर्यात से बनता है. वैश्विक संकट के कारण हमें आयातों में लाभ मिलता है. वैश्विक अर्थव्यवस्था मंद होती है, तो ईंधन की खपत कम होती है.
इससे तेल के दाम में गिरावट आती है. तेल आयात करने का हमारा खर्च कम होता है. 2007 में तेल के दाम 145 डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई को छू गये थे. 2008 में संकट पैदा होने पर ये गिर कर 40 डॉलर पर आ गये थे. यह हमारे लिये लाभकारी रहा. दूसरी तरफ हमारे निर्यात दबाव में आते हैं. दूसरे देशों में हमारे माल की मांग कम हो जाती है. अत: समग्र रूप से देखें, तो हमारे विदेश व्यापार पर वैश्विक संकट का प्रभाव शून्यप्राय रहता है.
फिर भी निर्यातों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को दूर करना होगा. इस दुष्प्रभाव का प्रमुख कारण है कि हमारे निर्यात महंगे हैं. बाजार में मांग कम हो तो कुशल उद्यमी अपने माल का दाम घटा कर बेच लेता है. अकुशल उद्यमी माल के दाम नहीं घटा पाता है और बाजार से बाहर हो जाता है.
इसी प्रकार हम अपने नियार्तो को सस्ता बना दें, तो वैश्विक संकट का सामना कर सकते हैं. लेकिन अपने देश में माल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं. इसका मूल कारण है कि नेता और नौकरशाही की लूट बढ़ती ही जा रही है. बाजार का स्वभाव होता है कि इसमें कुछ समय के अंतर पर तेजी और मंदी आती रहती है.
जो कंपनी अंदर से सुदृढ़ रहती है, वह मंदी को झेल लेती है. दूसरी डूब जाती है. वास्तव में मंदी ही परीक्षा का समय होता है. इसलिये वैश्विक मंदी को दुखड़े का कारण बनाने के स्थान पर हमें आत्मचिंतन करना चाहिए कि हम मंदी को झेल क्यों नहीं पा रहे हैं?
विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा दूसरा संबंध पूंजी के माध्यम से स्थापित होता है.
वैश्विक संकट के कारण विदेशी निवेशक अपने घर में दुबक जाते हैं. 2007 में अपने देश में 43 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया था. 2008 में यह घट कर यह मात्र 8 अरब डॉलर रह गया था. लेकिन, 2010 से 2012 के बीच फिर से लगभग 43 अरब डॉलर प्रति वर्ष देश आता रहा. वर्तमान में जो विदेशी पूंजी का पलायन हो रहा है, उसका कारण घरेलू अर्थव्यवस्था में गिरावट है.
भारत में निवेश करना लाभप्रद नहीं रह गया है. भारतीय उद्योग की लागत ज्यादा आ रही है. इसका एक कारण मनरेगा है, जिससे श्रम के दाम बढ़ गये हैं. यह सकारात्मक पक्ष है. दूसरा कारण भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है. यह नकारात्मक पक्ष है. इस भ्रष्टाचार के कारण विदेशी निवेशक भारत से पूंजी निकाल कर चीन, कोरिया, ताइवान में लगा रहे हैं.
सरकार ने देश को अय्याशी की राह पर चलाया है. खुदरा बिक्री में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को छूट देकर खपत की वस्तुओं का आयात करने को प्रोत्साहन दिया है. सरकार द्वारा स्विस चॉकलेट एवं फ्रेंच परफ्यूम के आयात को कम करने का जरा भी प्रयास नहीं किया जा रहा है. बल्कि इस खपत को पोषित करने के लिए और अधिक मात्र में विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा रहा है.
वर्तमान में हमारी बिगड़ती स्थिति का कारण वैश्विक संकट नहीं बल्कि घरेलू नीतियां हैं. मनरेगा तथा भ्रष्टाचार के कारण हमारे उद्योगों की लागत ज्यादा आ रही है और निर्यात विश्व बाजार से बाहर हो रहे हैं. विदेशी निवेश से मिली पूंजी का विलासिता की वस्तुओं के आयात में उपयोग से रुपया टूट रहा है.
सरकार को चाहिए कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने के स्थान पर आयातों पर रोक लगाने का प्रयास करे. साथ–साथ गवर्नेस में सुधार कर उद्योगों की लागत कम की जानी चाहिए.