लैंपस व पैक्स पर अब दूसरे काम की जिम्मेवारी नहीं
लैंपस-पैक्स कृषि के क्षेत्र में काम करने वाली सहकारी संस्थाएं हैं. ये किसानों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीद के लिए जिम्मेवार होते हैं और साथ ही सरकार की लाभकारी योजना के तहत रियायती दर पर खाद, बीज आदि किसानों को उपलब्ध कराने के लिए उत्तरदायी होते हैं. राज्य सरकार के […]
लैंपस-पैक्स कृषि के क्षेत्र में काम करने वाली सहकारी संस्थाएं हैं. ये किसानों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीद के लिए जिम्मेवार होते हैं और साथ ही सरकार की लाभकारी योजना के तहत रियायती दर पर खाद, बीज आदि किसानों को उपलब्ध कराने के लिए उत्तरदायी होते हैं. राज्य सरकार के सहकारिता विभाग के मार्गदर्शन में ये संस्थाएं काम करती हैं. ये सहकारी संस्थाएं जितनी मजबूत होंगी, राज्य के किसान केंद्र व राज्य की योजनाओं का उतने ही अच्छे तरीके से लाभ ले सकेंगे. लेकिन झारखंड में ये खस्ताहाल हैं. सहकारिता विभाग की परेशानियों, सीमाओं व नयी योजनाओं को जानने के लिए विभाग के संयुक्त निबंधक रत्नेश कुमार चतुर्वेदी से राहुल सिंह ने विस्तृत बातचीत की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
पंचायत स्तर पर लैंपस व पैक्स की स्थापना की क्या प्रगति है?
जनजातीय क्षेत्र में कम से कम पांच व 12 से 13 पंचायतों पर एक लैंपस होता है. इसी तरह पैक्स है, जो गैर जनजातीय क्षेत्र में होता है. इसकी स्थापना भी कम से कम तीन पंचायत के स्तर पर होती है. यह संख्या इससे अधिक भी हो सकती है. लैंपस यानी यानी लार्ज एरिया मल्टीपर्पस सोसाइटी व पैक्स यानी प्राइमरी एरिया को–ऑपरेटिव सोसाइटी दोनों का काम एक ही तरह का होता है. सिर्फ इनकी स्थापना अनुसूचित क्षेत्र व सामान्य क्षेत्र के आधार पर होती है. जनवरी में इसके लिए संकल्प निकाला गया था कि मार्च 2013 तक सभी पंचायतों में लैंपस व पैक्स का गठन कर लिया जायेगा.
जिला सहकारिता पदाधिकारियों से भी कहा गया था कि वे इनके गठन में सहयोग करें. आज की तारीख में राज्य में 4200 लैंपस व पैक्स गठित कर लिये गये हैं. पहले यह संख्या 871 के आसपास थी. अब जो नये लैंपस व पैक्स गठित हुए हैं, उसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में 10-10 सदस्य हैं. इस तरह राज्य में कम से कम 40 हजार लोग इस साल नये सिरे से कृषि सहकारिता से जुड़ रहे हैं. उन्हें हमलोग को–ऑपरेटिव मॉडल समझाने के लिए काम कर रहे हैं. हमारे पास अलग–अलग क्षेत्र के लिए काम करने वाली को–ऑपरेटिव का फेडरेशन है. हम लोगों के लिए विभिन्न बिंदुओं पर सहकारिता के लिए कार्यशाला का भी आयोजन करते हैं. वर्तमान में देश में 60वां सहकारिता सप्ताह (14 से 20 नवंबर तक) चल रहा है. इस दौरान भी हमलोग इनके लिए काम करेंगे. हम इन्हें अधिक सक्रिय करना चाहते हैं.
सहकारिता विभाग लैंपस व पैक्स जैसी सहकारिता संस्थाओं के लिए किस तरह मदद करता है?
हम उन्हें तकनीकी सहयोग उपलब्ध कराते हैं. उनका संचालन व प्रबंधन कुशलतापूर्वक उससे जुड़े लोगों को स्वयं ही करना है. हम उनके लिए भिष्म पितामह की भूमिका में है, राजा की भूमिका में नहीं हैं. राष्ट्रपति शासन के दौरान भी हमलोगों ने जुलाई में राज्यपाल की उपस्थिति में सहकारिता पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था और उनका ध्यान भी को–ऑपरेटिव संस्थाओं को मजबूत बनाने की ओर दिलाया था.
लेकिन आपके विभाग ने जो लैंपस व पैक्स का गठन कराया उनके लिए आधारभूत संरचना कैसे तैयार करेंगे?
जारी वित्तीय वर्ष में नये बने लैंपस व पैक्स के भवन व अन्य संसाधनों के लिए छह करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान है. इसमें से 6.50 लाख रुपये में 100 मिट्रिक टन धान स्टॉक रखने के लिए गोदाम बनाने, एक लाख रुपये लैंपस–पैक्स को माजिर्न मनी के रूप में कामकाज शुरू करने के लिए व एक लाख रुपये फर्नीचर के लिए देने का प्रावधान है. हमलोगों ने तीन साल में सभी नवगठित लैंपस–पैक्स में आधारभूत संरचना तैयार कर लेने का लक्ष्य रखा है.
लेकिन यह कैसे संभव है. जब एक जिले में एक वित्तीय वर्ष में 15-20 से ज्यादा लैंपस-पैक्स के भवन नहीं बन पा रहे हैं?
हमलोग वित्तीय आवंटन व बजट के अनुसार ही कार्य कर सकते हैं. लेकिन कोशिश कर रहे हैं. जमीन की उपलब्धता भी एक समस्या है. बहुत सारे लैंपस–पैक्स गठित तो हो गये हैं, लेकिन वे सक्रिय नहीं है.
धान क्रय की क्या तैयारी है? पिछले साल के अनुभव कैसे रहे और उसके आधार पर इस बार आप क्या नया करने जा रहे हैं?
धान की अधिप्राप्ति के लिए हमलोग काम कर रहे हैं. 15 नवंबर से हमलोग केंद्रों पर धान की खरीद शुरू कर देंगे. पिछले साल हमने 871 लैंपस व पैक्स से 3.21 लाख मैट्रिक टन धान खरीदा था. इस मद में 405 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. पर, हमें बहुत दिक्कतें आयी. ट्रांसपोटेशन का हमें पैसा नहीं मिला, मिलिंग चार्ज नहीं मिला. इससे हमारे लैंपस–पैक्स घाटे में चले गये. एसएफसी धान खरीद का पैसा देता है, लेकिन कई बार वहां दूसरे खर्चे नहीं देता. इससे दिक्कतें आती हैं. ऐसा भी होता है कि एफसीआइ को जब लैंपस व पैक्स से धान देने जाते हैं, तो कहा जाता है कि अभी जगह नहीं है, उनका रेक लगा है.
ऐसे में गाड़ी एक–दो दिन खड़ी रह जाती है. जिसका पैसा लैंपस–पैक्स को देना होता है. इस बार से हमारी संस्था यह काम नहीं करेगी. यह काम यूं भी राज्य खाद्य एवं आपूर्ति विभाग का है. इस संबंध में मुख्य सचिव ने भी कहा है कि हम वही काम करें जो हमारी जिम्मेवारी है. इस संबंध में मुख्य सचिव व विकास आयुक्त के साथ बैठक भी हो चुकी है. कैबिनेट को यह प्रस्ताव भेजा जायेगा. पिछली दो बार हमलोग नुकसान ङोल चुके हैं. इस बार दूसरा काम नहीं करेंगे. अंतर यही होगा कि हमारा कमीशन 2.5 प्रतिशत से घट कर 1.5 प्रतिशत या उससे भी कम पर आ जायेगा. दूसरे काम करने से एक दूसरी दिक्कत यह होती है कि हमारा गोदाम भरा रह जाता है. हम खाद–बीज का व्यापार नहीं कर पाते हैं.
क्या आपलोग इस मामले में दूसरे राज्यों में हुए अच्छे प्रयोग को अपनाने पर काम कर रहे हैं?
हमलोग पंजाब व छत्तीसगढ़ का धान अधिप्राप्ति का मॉडल देखने गये थे. वहां मार्केटिंग फेडरेशन है. यहां उसके गठन में समय लगेगा. छत्तीसगढ़ जैसा राज्य जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए जरूरी अनाज केंद्र से नहीं लेता. वह राज्य में ही अपने किसानों से लेता है और उसका अच्छा मूल्य देता है. छत्तीसगढ़ तो केंद्रीय पूल के लिए भी अनाज की खरीदारी करता है. वहां कर्नाटक को भी चावल बेचता है. पिछले साल उसे चार लाख मिट्रिक टन दिया. बचा हुआ चावल एफसीआइ को देता है. भारत सरकार की योजना का भी वह लाभ लेता है. पीडीएस को भी इसी से अनाज देता है. जैसे रांची के पंडरा बाजार समिति से अनाज उठाने के बाद उसे वहां से दूर भेजने की जरूरत नहीं है, बल्कि पंडरा व उसके आसपास के पीडीएस दुकानों को वह अनाज दे देता है. इससे ट्रांसपोर्टिग व कई अन्य खर्च की बचत होती है.
तकनीक के स्तर पर को–ऑपरेटिव बैंक का पिछड़ापन भी समस्या है. इससे निबटने के लिए क्या हो रहा है?
आठ क्षेत्रीय को–ऑपरेटिव बैंक राज्य में हैं. उनका विलय स्टेट को–ऑपरेटिव बैंक में किया जा रहा है. एक–दो महीने पहले स्टेट को–ऑपरेटिव बैंक को रिजर्व बैंक से लाइसेंस मिल गया है. अब सभी क्षेत्रीय को–ऑपरेटिव बैंक के 122 शाखाएं स्टेट को–ऑपरेटिव बैंक की शाखा की तरह काम करेंगी. रिजर्व बैंक से इसके लिए अनुमति मिल गयी है. यूआइडी ने हमारे विभाग को 1.50 करोड़ रुपये दिया है. इन पैसों से हमें 1000 माइक्रो एटीएम वाले बिजनेस कॉरसपोंडेंट तैयार करना है. ये बिजनेस कॉरसपोंडेंट लैंपस–पैक्स से ही होंगे. छह तारीख को हमलोगों ने पहले चरण में 15 लोगों को इसके लिए प्रशिक्षण दिया है. नाबार्ड से वित्तीय सहयोग लेकर शॉर्ट टर्म लोन भी देंगे. मार्च से पहले को–ऑपरेटिव बैंकों के बोर्ड का चुनाव होना है.
लैंपस–पैक्स आधारभूत संरचना, जैसे खखरी चुनने की मशीन, सुखाने की मशीन आदि की मांग कर रहे हैं. पत्र भी लिखा है. इसे कैसे करेंगे?
क्रमबद्ध तरीके से हमलोग इसके लिए कोशिश करेंगे. खाद्य आपूर्ति विभाग व एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड उनको इस तरह का संसाधन देगा.
आरके चतुर्वेदी
संयुक्त निबंधक सह प्रशासक, सहाकारिता विभाग