न्यायिक प्रक्रिया के तहत सुलझाये जाते हैं वाद

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत शिकायतों का निष्पादन न्यायिक प्रक्रिया के तहत होता है. शिकायतों का निष्पादन जूडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाता है. इसमें वह उसी प्रक्रिया को अपनाता है, जो विधिक मामलों में सामान्य रूप से व्यवहार की जाती है. मजिस्ट्रेट की पहली कोशिश होती है कि मामले के निष्पादन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 23, 2013 12:05 PM

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत शिकायतों का निष्पादन न्यायिक प्रक्रिया के तहत होता है. शिकायतों का निष्पादन जूडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाता है. इसमें वह उसी प्रक्रिया को अपनाता है, जो विधिक मामलों में सामान्य रूप से व्यवहार की जाती है. मजिस्ट्रेट की पहली कोशिश होती है कि मामले के निष्पादन में पक्षकारों की नातेदारी बनी रहे.

उसकी कार्रवाई से उनके आपसी संबंधों में दुराव की स्थिति पैदा न हो. मजिस्ट्रेट मामले की सुनवाई में दोनों पक्षकारों को पर्याप्त अवसर देता है. मामले के निष्पादन में वह ऐसे व्यक्ति की सलाह भी ले सकता है, जो इस क्षेत्र में अनुभव रखता हो. सामान्य तौर पर महिला कल्याण से जुड़े विशेषज्ञों की सेवा ली जाती है. इनमें महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है. परामर्श किस से लिया जाये, यह मजिस्ट्रेट पर निर्भर करता है. वह पीड़ित महिला की किसी नातेदार महिला की भी सेवा ले सकता है. मामले के किसी भी पक्षकार को यह अधिकार वह मजिस्ट्रेट से बंद कमरे में सुनवाई की मांग करे. इस तरह की मांग पर मजिस्ट्रेट के लिए यह बाध्यकारी है कि वह ऐसा ही करे यानी बंद कमरे में मामले की सुनवाई करे. यह अधिनियम हर महिला को घरेलू नातेदार में साझी गृहस्थी में निवास करने का अधिकार देता है. यह अधिकार वैसी महिलाओं को भी है, जिसे ऐसी साझी गृहस्थी में किसी हिस्सेदारी का अधिकार नहीं है.

तीन दिनों के अंदर पहली सुनवाई, 60 दिनों में निष्पादन
घरेलू हिंसा की शिकायत प्राप्त होने के तीन दिनों के भीतर मजिस्ट्रेट को पहली सुनवाई शुरू करनी है. इसके लिए मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपित व्यक्ति के खिलाफ नोटिस जारी किया जाता है, जिसे दो दिनों के भीतर तामिल कराने की जिम्मेवारी संरक्षण पदाधिकारी की है. मजिस्ट्रेट कार्रवाई और सुनवाई में संरक्षण पदाधिकारी या सेवा प्रदाता की रिपोर्ट पर विचार करेगा. यह रिपोर्ट ठीक वैसी ही होती है, जैसी कि किसी अन्य अपराध के मामले में पुलिस रिपोर्ट. मजिस्ट्रेट पहली सुनवाई शुरू करने से 60 दिनों के भीतर मामले का निष्पादन करेगा.

अधिनियम किस तरह का देता है संरक्षण
यह अधिनियम मजिस्ट्रेट के माध्यम से महिला को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, भावनात्मक, स्वास्थ्य और जीवन संबंधी घरेलू हिंसा से संरक्षण देता है. पीड़ित महिला की शिकायत पर जांच और सुनवाई के बाद जब मजिस्ट्रेट इस नतीजे पर पहुंचता है कि शिकायत सही है, तो वह दो तरह के आदेश पारित कर सकता है. जहां महिला घरेलू हिंसा की शिकार हुई है या उसके इस तरह की हिंसा का शिकार होने की आशंका है, वहां मजिस्ट्रेट ऐसी व्यवस्था का आदेश दे सकता है, जिससे महिला की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके. दूसरा कि वह पीड़ित महिला को आर्थिक क्षतिपूर्ति का भुगतान का आदेश दे सकता है. चूंकि यह न्यायिक निर्णय होता है. इसलिए महिला को संरक्षण देने में सक्षम होता है. मजिस्ट्रेट प्रतिवादी को ऐसे कार्य को करने, उसमें सम्मिलित होने, उसके लिए किसी की मदद करने या उकसाने पर प्रतिबंध लगाता है, जिससे पीड़ित महिला उत्पीड़न का शिकार हुई हो या हो सकती हो. प्रतिवादी से पीड़ित महिला को संरक्षण देने के लिए मजिस्ट्रेट प्रतिवादी को वैसे स्थान पर जाने पर प्रतिबंध लगा सकता है, जहां पीड़ित महिला रहती है या काम करती या उसके बच्चे पढ़ते हैं और इस कारण महिला का वहां आना-जाना होता है. मजिस्ट्रेट अगर उचित और जरूरी समझता है, तो वह प्रतिवादी को उस घर से अलग रहने का आदेश दे सकता है, जहां पीड़ित महिला रहती है. भले ऐसे घर में प्रतिवादी का भी हिस्सा हो या उसका भी अधिकार हो, महिला को हिंसा से बचाने के लिए ऐसा आदेश दिया जा सकता है. मजिस्ट्रेट प्रतिवादी को यह भी आदेश दे सकता है कि वह पीड़ित महिला के अलग रहने की व्यवस्था करे. ऐसे मकान का किराया प्रतिवादी को देना पड़ सकता है. पीड़ित महिला से किसी भी तरह से संपर्क करने पर भी प्रतिवादी पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है. यह प्रतिबंध व्यक्तिगत, मौखिक, लिखित, इलेक्ट्रॉनिक और दूरभाष या मोबाइल से संपर्क के प्रयास पर हो सकता है.

संपत्ति के मामले में आदेश
पीड़ित महिला की अगर कोई संपत्ति प्रतिवादी के कब्जे में है, तो उसे लौटाने, किसी साझा संपत्ति को नहीं बेचने, बैंक अकाउंट का संचालन नहीं करने जैसे आदेश भी पारित किये जा सकते हैं. मजिस्ट्रेट प्रतिवादी से इस आशय का बांड लिखवाता और जमानत लेता है. वह क्षतिपूर्ति भुगतान का भी आदेश देता है. प्रतिवादी के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश बाध्यकारी होता है.

अपील का अवसर भी
मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में अपील की जा सकती है. अपील का अधिकार दोनों पक्षकार को है. उसे अपील दायर करने के लिए आदेश की प्रति मिलने से 30 दिनों का समय मिलता है.

आदेश की अवहेलना पर कैद की सजा
इस अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट के आदेश की अवहेलना आपराधिक कृत्य माना गया है. मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश का उल्लंघन करने पर आरोपित व्यक्ति को एक साल तक के साधारण या सश्रम कारावास और बीस हजार रुपये तक जुर्माने की सजा हो सकती है. ऐसे मामले की सुनवाई उसी मजिस्ट्रेट द्वारा की जायेगी, जिसने पहली बार आदेश पारित किया है.

संरक्षण पदाधिकारी व सेवा प्रदाता पीड़ित महिलाओं की मददगार
अधिनियम में संरक्षण पदाधिकारी और सेवा प्रदाता का प्रावधान किया गया है. घरेलू हिंसा से महिलाओं को न्यायिक संरक्षण दिलाने में इनकी बड़ी जिम्मेवारी है. इन्हें पीड़ित महिला की शिकायत पर रिपोर्ट दर्ज करने तथा घरेलू हिंसा के मामले में सीधा हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया है. कोई घरेलू हिंसा की शिकार पीड़ित महिला या उसके परिजन मदद के लिए इनमें से किसी से भी संपर्क कर सकते हैं.

निचले स्तर की इकाई में संरक्षण पदाधिकारी की नियुक्ति
इस अधिनियम को लागू करने में संरक्षण अधिकारी महत्वपूर्ण कड़ी हैं. अधिनियम राज्य सरकार को यह अधिकार देता है कि वह सभी जिलों और उससे भी निचले स्तर की प्रशासनिक इकाई में संरक्षण अधिकारी नियुक्त करेगा. इनकी संख्या जरूरत के अनुसार होगी. इसमें महिलाओं को प्राथमिकता दी जानी है. संरक्षण पदाधिकारी होने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्तिके पास इसका अनुभव और योग्यता हो. ताकि वह बेहतर ढंग से कार्य कर सके.

संरक्षण पदाधिकारी की जिम्मेवारी
संरक्षण पदाधिकारी मजिस्ट्रेट की मदद के लिए होता है. वह घरेलू हिंसा की शिकायत को प्राप्त करता है और उसे संबंधित मजिस्ट्रेट, थाने और सेवा प्रदाता को भेजता है. वह शिकायत की जांच कर मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट सौंपता है, जिसके आधार पर अदालत मामले का निष्पादन करता है. वह भी सुनिश्चित करता है कि पीड़ित महिला को विधिक सेवा प्राधिकार अधिनियम, 1987 के तहत मुफ्त कानूनी सहायता मिले. वह पीड़ित महिला को तत्काल आश्रय, चिकित्सा और कानूनी सेवा उपलब्ध कराने के लिए ऐसे आश्रय केंद्रों, सेवा प्रदाताओं और चिकित्सालयों की सूची तैयार कर अपने पास रखता है. पीड़िता की मेडिकल जांच कराने और उसे उसकी इच्छा पर आश्रय गृह में आश्रय दिलाने का काम करता है.

स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी
इस अधिनियम को लागू करने में गैर सरकारी संस्थाओं को भी भागीदार बनाने की व्यवस्था की गयी है. उन्हें सेवा प्रदाता कहा गया है. सेवा प्रदाता वही संस्था हो सकती है, जो सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1860 या कंपनी एक्ट, 1956 या किसी अन्य ऐसे कानून के तहत पंजीकृत है तथा महिलाओं के अधिकारों और हितों के संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रही है. ऐसी संस्था को इस अधिनियम के तहत सेवा प्रदाता बनने के लिए राज्य सरकार के पास निबंधन करारा होता है.

पंजीकृत सेवा प्रदाता स्वयंसेवी संस्था की भूमिका
सेवा प्रदाता संस्थाओं को इस अधिनियम में लगभग वही शक्तियां दी गयी हैं, जो संरक्षण अधिकारी की हैं. ऐसी संस्थाओं को पीड़ित महिला की सहमति पर घरेलू हिंसा की रिपोर्ट लिखने, उसकी डॉक्टरी जांच कराने, उसे आश्रय गृह में आश्रय दिलाने तथा विधिक कार्रवाई का अधिकार होता है. घरेलू हिंसा की रिपोर्ट लिखने के बाद वह उसकी कॉपी संबंधित क्षेत्र के मजिस्ट्रेट तथा संरक्षण अधिकारी को देता है. पीड़िता की मेडिकल रिपोर्ट उसे पुलिस और संरक्षण अधिकारी को तथा उसे आश्रय गृह भेजने की रिपोर्ट स्थानीय थाने को भेजना होता है.

संरक्षण पदाधिकारी व सेवा प्रदाता लोक सेवक
कोई संरक्षण पदाधिकारी या सेवा प्रदाता जब इस अधिनियम के तहत कार्य कर रहा हो, तो वह लोग सेवक माना जाता है. उसे भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा-21 के तहत लोक सेवक का अधिकार प्राप्त होता उसके कार्य में किसी भी तरह की बाधा पैदा करना, सरकारी कार्य में बाधा डालने के समान अपराध होगा.

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