हताशा ने मुझे लेखक बनाया

मैं लेखक नहीं होती, तो डॉक्टर होती या हो सकता है कि एक बेहतरीन किसान होती या और कुछ भी हो सकती थी. लेकिन, मेरा दुखी बचपन और मेरी हताशा मुङो लेखन में ले आयी. मुङो लगता है बहुत से लोग इसी वजह से लेखन में आते हैं. दरअसल, मेरी मां, जो एक नर्स थीं, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 24, 2013 10:21 AM

मैं लेखक नहीं होती, तो डॉक्टर होती या हो सकता है कि एक बेहतरीन किसान होती या और कुछ भी हो सकती थी. लेकिन, मेरा दुखी बचपन और मेरी हताशा मुङो लेखन में ले आयी. मुङो लगता है बहुत से लोग इसी वजह से लेखन में आते हैं. दरअसल, मेरी मां, जो एक नर्स थीं, अकसर अवसाद में रहती थी. उनमें बहुत कुछ कर सकने की काबिलियत थी, लेकिन उनकी सारी ऊर्जा मुझमें और मेरे भाई में खर्च हो गयी. वह चाहती थी कि मैं म्यूजिशियन बनूं. लेकिन मुझमें यह प्रतिभा नहीं थी. मुङो लगता है कि हर बच्चे को खुद में यह खोजना आना चाहिए कि वह क्या कर सकता है?

मेरे पिता प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल थे. युद्ध के बाद सैनिकों के हालात अत्यधिक व्यथित करनेवाले थे. पिता के लिए इंग्लैंड की स्थितियों को बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया था. वह जिस बैंक में काम करते थे, उन्होंने उससे पूछा कि क्या उन्हें और कहीं भेजा जा सकता है? बैंक ने उन्हें ईरान भेज दिया. वहां हमें एक बड़ा घर मिला, बहुत ही खुला-खुला और खूबसूरत. जिसमें बड़े-बड़े कमरे और बहुत सारी जगह थी और सवारी के लिए घोड़े भी थे. बताया जाता है कि इस शहर का अधिकांश हिस्सा मलबे में तब्दील हो चुका है.

यह समय-समय की बात है, कभी वहां एक खूबसूरत इमारतों वाला प्राचीन बाजार हुआ करता था. इतना कुछ नष्ट हो जाता है, लेकिन किसी का ध्यान नहीं जाता और हम व्यथित भी नहीं होते. फिर हमें तेहरान भेज दिया गया, जो कि बहुत ही बदसूरत शहर था. 1924 में हम इंग्लैंड लौट आये, वहां एक साम्राज्य की प्रदर्शनी लगी थी (जो समय-समय पर साहित्य की तरह बदलती रहती है) जिसका सभी पर गहरा प्रभाव था. दक्षिणी रोडेशिया का स्टैंड ‘पांच साल में अपनी किस्मत बनायें’ का प्रस्ताव दे रहा था. रोमांटिक मिजाज के मेरे पिता ने सारा समान बांधा और अपनी पांच हजार पांउड की युद्ध पेंशन के साथ वहां किसान बनने के लिए निकल पड़े. उनका बचपन कॉलचेस्टर नाम के कस्बे में एक किसान पिता की संतान के रूप में बीता था. रोडेशिया (यह अस्सी के दशक के पहले का उत्तर-पश्चिम जिंबाब्वे है) में उन्होंने अपने आप को एक किसान के रूप में जाना. यह कहानी उस दौर में बहुत ही सामान्य थी, लेकिन मुङो यह समझने में वक्त लगा. इसका मेरे लेखन पर बहुत प्रभाव रहा.

मेरा बचपन अफ्रीका की शानदार यादों से भरा हुआ है. वहीं मैंने ये जाना कि आखिर मैं चाहती क्या हूं? कैसे डूबता हुआ सूरज जामुनी, सुनहरे और नारंगी रंगों में फैल कर आसमान में घुल जाता है. कैसे तितलियां, पतंगे और भंवरे झाड़ियों पर मंडराते हैं. दक्षिण अफ्रीका से जुड़ी कई यादें परेशान करनेवाली भी हैं, जो वहां के लोगों की अभावग्रस्त जिंदगी से जुड़ी हैं.

अफ्रीकी कहानी सुनाने में माहिर होते हैं लेकिन हमें उनसे घुलने-मिलने की इजाजत नहीं थी. यह उस प्रवास का सबसे खराब हिस्सा था. पहले कहानी सुनाने को एक कला माना जाता था. इंग्लैंड के एक स्टोरी टेलर कॉलेज से मेरा वास्ता रहा है. कुछ लोग हमेशा दूसरों को अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बताना चाहते हैं, जो सबके पास है. लेकिन असली कहानी सुनाके बहुत से कहानीकारों ने लोगों को आकर्षित भी किया है. इनमें अफ्रीकी सबसे अधिक हैं, जिन्होंने अपनी परंपरा से जुड़ी कहानियों को पुनर्जीवित किया. यह अभी भी हो रहा है. कहानी कहने की कला अभी भी जीवित है.

कहानी को शुरू करने से पहले मेरे पास किसी ऊपरी खाका होता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसमें कुछ नया जोड़ने या हटाने की गुंजाइश नहीं रह जाती. मैं उसमें तब तक बदलाव करती रहती हूं, जब तक कि वह रुचिकर नहीं बन जाती. हालांकि नयी कहानी शुरू करते वक्त कुछ मुश्किलें आती हैं लेकिन एक बार फ्लो बनने के बाद कहानी बढ़ती जाती है. जब प्रवाह बन जाता है, तब मैं अच्छा लिख पाती हूं. जब हरेक वाक्य पर मेहनत करना पड़ता है, तो मैं अच्छा नहीं लिख पाती.

हर कोई इस बात से सहमत होगा कि जिंदगी में एक गुरु की जरूरत होती है. मैं भी जिंदगी में थोड़ा अनुशासन चाहती थी और इसके लिए चारों ओर देख रही थी, लेकिन मुङो कहीं कुछ नजर नहीं आ रहा था. इन्हीं दिनों मैंने शाह के बारे में सुना जो कि एक सूफी थे. वास्तव में उन्होंने मुङो प्रभावित किया. इस तरह साठ के दशक की शुरुआत में मैं सूफियाना संस्कृति से जुड़ी. लेकिन इस जुड़ाव के अनुभव की उत्कृष्टता को संक्षेप में बता पाना मुश्किल है. महान सूफियों ने कहा भी कि ‘हम अपने आप को सूफी नहीं कहेंगे क्योंकि सूफी अपने आप में एक बड़ा नाम है.’ प्रस्तुति : प्रीति

(साभार – ‘पेरिस रिव्यू’ और नोबेल भाषण)

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