इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया में नायक यानी सुपरहीरो जन्मते रहे हैं औरगढ़ेजाते रहे हैं. सुपरहीरो सिर्फ तकनीकी चमत्कार नहीं है, हर सभ्यता, समाज ने सदियों से सुपरहीरो की कल्पना की है. एक तरह से देखें, तो ईश्वर की कल्पना सुपरहीरो की कल्पना है. गोवर्धन पर्वत उठानेवाले कृष्ण हों या रावण का वध करनेवाले राम, विषपान करके सृष्टि को बचानेवाले शंकर भी एक मायने हमारे मिथकीय सुपरहीरो ही हैं. उद्धारक, सेवियर, त्रता की कल्पना लगभग सभी संस्कृतियों में मिलती है. ‘कृष’ फिल्म के बहाने सुपरहीरो के सामाजिक पक्ष को सामने लाती आवरण-कथा.
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्।
भगवान कृष्ण का उपदेश उनके भक्तों को उनके आने का भरोसा दिलाता है. भरोसा कि जब-जब धरती पर पाप बढ़ेगा, वे आयेंगे. जब हमारे सामने समस्याएं बढ़ेंगी, वे आयेंगे. यही निश्ंिचतता हमें नायकों की ओर मोड़ती है, जिसे कभी हम राम के रूप में देखते हैं, कभी हनुमान के रूप में, तो वर्तमान समय आते-आते ‘कृष’ के रूप में भी. हम कई बार खुद को बेबस महसूस करते हैं, कई बार खुद जोखिम नहीं उठाना चाहते, चाहते हैं कोई नायक आये जो हमारी समस्या का समाधान कर जाये. हम एक ऐसे नायक की कल्पना करते हैं, जो हर संकट से हमें बचा सके. हम उसे आवाज लगायें और वह हमारे सामने हाजिर हो जाये. हम अपने को आश्वस्त कर सकें कि जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा.
हर सभ्यता में, हर समय, व्यक्तियों में ऐसे नायकों की तलाश देखी गयी है. ऐसे नायक की, जो सुपर नेचुरल शक्ति से भरपूर हों. कोई ऐसा जो कृष्ण की तरह गोवर्धन पर्वत उठा सके, हनुमान की तरह बूटी के लिए पर्वत को उठा कर ले आये. जहां मानवीय क्षमताओं की हद शुरू होती है, उसी जगह से इनसान परा-मानवीय शक्ति की कल्पना शुरू कर देता है. एक हद तक कह सकते हैं कि इसी नायक की हमारी चाह का विस्तार है, सुपरहीरो. यह अनायास नहीं है कि सुपरहीरो की फिल्में, सुपर हीरो के उपन्यास और कॉमिक्स पूरी दुनिया को लुभाते रहे हैं और कल्पना के दम पर रचा गया बैटमैन, सुपरमैन, स्पाइडरमैन जैसा ‘अवतार’ आज की वैज्ञानिक दुनिया में कल्पना से हट कर एक सांस्कृतिक परिघटना बन चुका है. आज विज्ञान और उन्नत तकनीक के सहारे इस कल्पना को विश्वसनीय रूप देने की कोशिश की जा रही है.
पूरब के पास नायकों की कभी कमी नहीं थी. कहते हैं हिंदुस्तान में जब सिनेमा की शुरुआत हुई अकेले दादा साहब फाल्के ने धार्मिक और ऐतिहासिक नायकों पर 125 से भी अधिक फिल्मों का निर्माण किया.‘कालिया दमन’ से लेकर ‘लंका विजय’ तक शायद ही ऐसा कोई संदर्भ बच पाया, जिस पर दादा साहब फाल्के ने फिल्म नहीं बनायी हो. चूंकि इन कथाओं को, इन पात्रों को लोग पहले से जानते थे इसीलिए इन्हें विश्वास के साथ स्वीकार भी किया जाता था. यदि आज भी बेहतर शासन के लिए ‘रामराज्य’ का उदाहरण दिया जाता है, तो इसलिए कि हम मानते हैं कि रामराज्य था. राम थे, जिन्होंने अहिल्या का उद्धार किया था, और रावण के आतंक से पृथ्वी को मुक्ति दिलायी थी. बगैर किसी वैज्ञानिक तर्क के भी हमें उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठा कर ग्रामीणों की रक्षा करनेवाले कृष्ण को स्वीकार करने में कोई असुविधा नहीं होती. पूरब का सुपरहीरो विश्वास की जमीन पर खड़ा था. यह विश्वास तर्क पर नहीं, इमोशन पर था भावनाओं पर था.
लेकिन पश्चिम की तार्किकता के लिए सिर्फ भावनाएं और विश्वास काफी नहीं था, इसीलिए उन्हें कथित वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर अपने लिए सुपरहीरो की रचना करनी पड़ी, जो आज सुपरमैन,स्पाइडरमैन, बैटमैन इत्यादि के रूप में लोगों को उम्मीदें दे रहा है. पश्चिम में जो भी चरित्र सुपरहीरो के रूप में परिकल्पित किये गये, उनके लिए एक विश्वसनीय कारण की तलाश की गयी. उन्हें पूरब के संदर्भो में ‘अवतार’ नहीं बताया गया, वे एक सामान्य नागरिक के रूप में सामने आये और वैज्ञानिक घटनाक्रमों से उन्हें अतिमानवीय शक्ति हासिल हुई. चाहे वह मकड़ी के काटने से ही क्यों न आयी हो. आश्चर्य नहीं कि पश्चिम के अधिकांश सुपरहीरो को दोहरी जिंदगी जीते दिखाया गया. वे एक ओर अपने परिवार,अपनी प्रेमिका के साथ अति सामान्य व्यक्ति के रूप में दिखाये जाते थे, दूसरी ओर समस्या सामने आते ही वे अति मानवीय रूप ग्रहण कर सभ्यता को बचाने निकल पड़ते थे.वास्तव में यह सामान्य जन को विश्वास दिलाने की कोशिश होती थी कि सुपरहीरो और कोई नहीं आपके ही बीच का ही कोई है.
कह सकते हैं सुपरहीरो की यह अवधारणा पूरब से ही पश्चिम की ओर गयी. लेकिन पश्चिम के अंधानुकरण का इससे बड़ा प्रतीक नहीं हो सकता कि वह अपने परिवर्तित रूप में अपनी स्वीकार्यता की तलाश में हमारे सामने आ गयी. यह संयोग नहीं कि हिंदी सिनेमा से जैसे-जैसे धार्मिक कथानक, जिसमें अपने सुपरहीरो की ताकत दिखती थी, हाशिये पर जाते रहे, पश्चिम के सुपरहीरो की मांग बढ़ती गयी.
आखिर किन परिस्थितियों में राम और कृष्ण भारत के पॉपुलर कल्चर के लिए पराये हो गये और स्पाइडरमैन, सुपरमैन अपने, यह एक अलग समाजशास्त्रीय विश्लेषण की मांग रखता है. लेकिन यह सच है कि भारत में पश्चिमी सुपरहीरो की शुरुआत 90 के दशक में ही हो गयी थी, उदारीकरण की दस्तक के साथ. पश्चिम से बहुत कुछ आने की शुरुआत हुई, तो साथ में उनका सुपरमैन भी आ गया. भारत में शुरुआत छोटी सी रही जब 1987 में पुनीत इस्सर इंडियन सुपरमैन के रूप में दर्शकों के सामने आये. स्वभाविक था दर्शक इस सुपरमैन को स्वीकार नहीं कर सके. बाद में एक फिल्म ‘रिटर्न ऑफ सुपरमैन’ भी बनी, लेकिन वह भी नहीं चली, यहां तक कि उसी दौर में जैकी श्रफ के साथ थ्रीडी में बनी ‘शिवा का इंसाफ’ भी नहीं चली, जिसमें सुपरहीरो के भारतीयकरण की कोशिश हुई थी.
वास्तव में हिंदी सिनेमा के लिए सुपरहीरो की परिकल्पना का कोई अर्थ ही नहीं था, क्योंकि 90 के दशक के बाद तो अमूमन हर नायक और हर पात्र सुपरहीरो के रूप में दिख रहा था. भले ही वह हवा में नहीं उड़ सकता था,लेकिन जिस तरह अन्याय के खिलाफ उसे लड़ते दिखाया जाता था, वह किसी अति मानवीय शक्ति से कम लगता भी नहीं था. एक साथ सैकड़ों लोगों से मुकाबला करते,गोलियों की बौछार के बीच से निकलते, अति मानवीय छलांग लगाते जब अपने अमिताभ और सलमान दिखते ही थे, तो भला जरूरत क्या थी, दर्शकों को किसी अपरिचित से लगते सुपरहीरो की. लेकिन पश्चिम से जब फिल्में तेजी से आने लगीं, तो भारतीत दर्शकों पर सुपरहीरो का दवाब भी बढ़ा, उनकी स्वीकार्यता भी. भारत में सुपरहीरो को विज्ञान की छौंक के साथ पेश करने की पहली कोशिश शेखर कपूर की ‘मिस्टर इंडिया’ के रूप में हुई, जिसमें अदृश्य होने की वैज्ञानिक खोज का लाभ उठा कर कमजोर नायक देशद्रोही से मुकाबला करता है. यह फिल्म आज भी याद की जाती है.
‘कृष 3’ को उसी परंपरा से जोड़ कर देखा जा सकता है. फर्क यह है कि ‘मिस्टर इंडिया’ का नायक थोड़ा ज्यादा देशज था, कृष पश्चिम के सुपरहीरो के ज्यादा करीब है. यह इसलिए कि बगल के स्क्रीन पर दिख रहे स्पाइडरमैन और सुपरमैन की स्वीकार्यता भारतीय फिल्मकारों की इस समझ को पुख्ता कर रही है कि ग्लोबल बनते विलेज में जब हर चीज सरहदों के आर-पार आवाजाही कर सकती है, तो फिर सुपरहीरो क्यों नहीं!
अमेरिका और सुपरहीरो
अधिकतर सुपरहीरो दूसरे महायुद्ध से पूर्व गढ़े गये. जादूगर मैंड्रेक, फैंटम की सफलता से प्रेरित सुपरमैन और बैटमैन की परिकल्पना 1939 तक की जा चुकी थी. लेकिन तब तक अमेरिका एक ‘सुपर पावर’ नहीं था. धीरे-धीरे सुपरहीरो अमेरिकी वर्चस्व और अमेरिकी राष्ट्रवाद का एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गया. खासकर शीत युद्ध के दौरान. 1938 में लेखक जेरी सीगल और आर्टिस्ट जो शुस्टर ने क्लीवलैंड में सुपरमैन की रचना की थी. यह एक्शन कॉमिक्स की दुनिया में सुपरमैन की शुरुआत थी. 1950 के आस-पास अमेरिका में सुपरहीरो पर फिल्में बनने लगी थीं. ‘सुपरमैन एंड द मोलमैन’ 1951 में प्रदर्शित ऐसी पहली फिल्म थी. सुपरहीरो की कल्पना के इस क्रम में सुपरमैन के बाद स्पाइडरमैन, बैटमैन के नाम जुड़े. हालांकि, जर्मन अस्तित्ववादी विचारक नीत्शे 1883 में सुपरहीरो की अवधारणा की व्याख्या कर चुके थे.
अच्छाई का प्रतीक है सुपरहीरो
सुपरहीरो अच्छाई का ही दूसरा नाम है. सुपरहीरो वह काम करता है, जो आम आदमी के वश में नहीं. सुपर हीरो का मतलब केवल तकनीक से नहीं है. कम से कम भारत में आप सुपरहीरो को केवल तकनीक के रूप से नहीं देख सकते. भारत में सुपरहीरो होगा, तो वह भावनात्मक भी होगा. आप कृष को देखें तो वह उन लोगों की मदद करता है, जिन पर बुराई का हमला हुआ है. आज जब हर आदमी तरह-तरह के हमलों से त्रस्त है, उसमें अवतार की तलाश स्वाभाविक है. यह सिलसिला आज से नहीं कई वर्षों से चला आ रहा है. अकसर यह सवाल भी किया जाता है कि आखिर क्यों बार-बार सुपरहीरो की फिल्मों में विषय एक से ही होते हैं? मेरा सीधा जवाब यह है कि कई लव स्टोरीज भी एक ही तरह की होती हैं. लेकिन फिर भी वह अलग होती हैं. कहानी तो एक ही है, बुराई पर अच्छाई की जीत की. यह जिस भी रूप में दिखायी जाये, पसंद आयेगी. लोग अच्छाई को जीतते देखना चाहते हैं, इसलिए सुपर हीरो की फिल्में उन्हें पसंद आती हैं.