‘चूहे की चिंदी है पेरिस की संधि’
सोपान जोशी वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए तो पेरिस में 196 देशों मे समझौता हो गया. कई सालों की नाउम्मीदी के बाद अगर किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त हो तो वह देखता नहीं हैं कि शिशु के हाथ पैर भी हैं या नहीं. उसे तो केवल राहत महसूस होती है. कुछ ऐसा […]
तो पेरिस में 196 देशों मे समझौता हो गया.
कई सालों की नाउम्मीदी के बाद अगर किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त हो तो वह देखता नहीं हैं कि शिशु के हाथ पैर भी हैं या नहीं. उसे तो केवल राहत महसूस होती है.
कुछ ऐसा ही इस जलवायु परिवर्तन पर हुए सौदे का किस्सा है. हर साल दुनिया भर के नेता और वार्ताकार दिसंबर के महीने में मिलते हैं, और दुनिया भर टकटकी लगा कर देखती है कि कोई समझौता होगा या नहीं.
साल दर साल की हताशा के बाद हुई इस संधि को लोग अभी से ही ऐतिहासिक बता रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस समझौते में हर देश के लिए कुछ न कुछ अच्छा है, और हर देश इस में अपनी जीत देख सकता है. हर किसी ने मनुष्यता के संयुक्त परिवार की भलाई के लिए अपने कुछ हितलाभ को त्यागा है.
इस दंगल के पीछे है जलवायु परिवर्तन को रोकने का कटु सत्य. औद्योगिक विकास से कार्बन की गैसें वायुमंडल में छूटती हैं. इन्हें रोका नहीं गया तो जलवायु का बदलना निश्चित है. एक हद तय है, कार्बन को वायुमंडल में बढ़ाने की. उस हद के पार प्रलय है.
झगड़ा इस बचे खुचे कार्बन उत्सर्जन का है. इसका अधिकार आखिर किसे मिलेगा? जो कोई देश इस धुंए को घटाएगा उसकी अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ेगा. वहाँ नौकरियां घटेंगी, आमदनी गिरेगी, आर्थिक विकास की दर गिर जाएगी.
आधुनिक औद्योगिक समाज का विकास कार्बन से भरपूर ईंधनों के जलाने पर टिका है, चाहे कोयला हो या पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस. बिना कार्बन के ईंधन जलाए किसी भी देश का औद्योगिक विकास हो नहीं सकता.
जलवायु परिवर्तन के मंथन से निकले इस गरल को कोई पीना नहीं चाहता. इसका परिणाम यह होता है कि वार्ता में हर देश साथ मिल के काम करने की, आपसदारी की बड़ी बड़ी बातें करता है. जब असल में काम करने का समय आता है तो हर देश पीछे हट जाता है.
सन् 1997 में जापान के शहर क्योटो में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक समझौता हुआ था. उसे क्योटो प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है, हालांकि आजकल कोई उसकी बात भी नहीं करता. जब उस पर दस्तखत हुए थे तब कहा जा रहा था कि यह संधि पर्याप्त नहीं है, कि इस नाकाफ़ी कोशिश से जलवायु परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता.
फिर धीरे धीरे, एक एक करके विकसित देश उस संधि में किए फीके वादों पर भी खोटे उतरते रहे. उन्होंने कहा कि समझौते में किए कार्बन गैस उत्सर्जन घटाने के वादे उनके लिए असंभव हैं. आज क्योटो प्रोटोकॉल की बात करना भी अशुभ माना जाता है.
क्योटो का समझौता कितना भी फीका और कमज़ोर रहा हो, उसमें कुछ सत्य सीधे सीधे माने गए थे. एक तो यह कि जलवायु परिवर्तन के पीछे जो कार्बन उत्सर्जन है उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी औद्योगिक और अमीर देशों की है.
गरीब देशों को इस बोझे से मुक्त रखा गया था क्योंकि उनमें रहने वाले लोगों को अपने विकास के लिए कार्बन वाले ईंधन जलाने की घोर ज़रूरत थी.
इस संधि के ढहने के पीछे यह अहम कारण है. अमीर देश, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका को यह बरदाश्त नहीं है कि उनकी पेट्रोलियम और कोयले की खपत पर रोक लगे, जबकि भारत जैसे देशों में इनका इस्तेमाल बढ़ता ही जाए.
उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी की बात अमेरिका सहन नहीं करता. उसके नेताओं का कहना है कि कार्बन उत्सर्जन घटाने का बोझ हर किसी को उठाना पड़ेगा, चाहे उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी किसी की भी हो.
पिछले दिनों पेरिस में भी कुछ ऐसा ही हुआ. जब भारत और चीन की अगुवाई में गरीब देशों ने ऐतिहासिक जिम्मेदारी की बात की तो अमेरिकी उपराष्ट्रपति जॉन केरी ने वार्ता छोड़ कर जाने की धमकी तक दे डाली. उनका आग्रह है कि अगर कार्बन के ईंधन का इस्तेमाल कम होना है, तो फिर यह हर देश में होना चाहिए.
यही नहीं, भारत को अवरोधक देश की संज्ञा दी गई, क्योंकि भारतीय प्रतिनिधी ऐतिहासिक जिम्मेदारी की बात कर रहे थे. इस जघन्य काम में अमीर देशों की सरकार का साथ उनके पत्रकार भी देते हैं. लगातार पत्र पत्रिकाओं और टी.वी. इंटरनेट पर अमेरिका और यूरोप के पत्रकार भारत को अड़ियल करार दे रहे हैं.
पर्यावरण रक्षा की बात करने वाले इस बात को स्वीकार लेते हैं. उनकी प्राथमिकता है जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए जो भी जरूरी है वह किया जाए. इस विष को कौन पीए इससे उन्हें बहुत ज्यादा मतलब नहीं है.
सन् 1992 के बाद से इस विषय पर लगातार गतिरोध लगा हुआ है, और इसे हटाने के लिए जो भी करना पड़े उसे पर्यावरणवादी अविलंब लागू करना चाहते हैं. चाहे फिर गरीब देशों के साथ एक बार फिर घोर अन्याय ही क्यों न होता हो.
अमेरिकी सरकार निश्क्रियता की इस लंबी अवधि में सबसे जिद्दी रुख अपनाए हुए है. उनके कूटनीतिज्ञ इस बातचीत को धीरे धीरे इतनी गर्त में ले आए हैं कि उनकी राजीमंदी के लिए हर कोई कुछ भी रियायत देने को तैयार है. उनकी हर बात मानने के लिए गरीब देश लगभग मजबूर हैं.
यूरोपीय देशों का रवैया अमेरिका से थोड़ा अलग रहा है. उन्होंने अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को नकारा नहीं है. उनके नेताओं ने लगातार माना भी है कि अमीर देशों को ही कार्बन की पीड़ादायक कटौतियां करनी पड़ेगीं. पर इस बार पेरिस में यूरोप के नेताओं ने भी मंच पूरी तरह अमेरिका को सौंप दिया.
अमेरिका की कूटनीति यही थी. दूसरे देशों को एकदम हताश करते रहो. फिर उनके सामने कोई चिंदी भी फेंकी जाए, तो उन्हें मंजूर होगी. पेरिस के समझौते में से ‘ऐतिहासिक जिम्मेदारी’ का नामोनिशान भी मिटा दिया गया है. इस संधि को चूहे की चिंदी भी कहा जा सकता है.
समझौते की सामग्री में गरीब और अमीर देशों की विपरीत परिस्थितियों के बारे में कुछ अच्छे लगने वाले वाक्य जरूर डाले गए हैं. गरीब देशों को अपने विकास के लिए कार्बन के ईंधन के इस्तेमाल से हटने के लिए अमीर देशों द्वारा धन राशी देने की भी बात की गई है.
पर इन संधियों को करीब से जानने वाले कहते रहे हैं कि यह धन राशी मिथ्या है. क्योंकि इस धन राशी का स्वरूप तय नहीं है. मिसाल के तौर पर अमीर देश विकास के लिए दिए जा रहे पहले से दी जा रहे सहायता अनुदान को जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए दिया धन बता कर अपनी जिम्मेदारी से हाथ धो सकते हैं.
जलवायु परिवर्तन केवल कूटनीति और विज्ञान का मसला भर नहीं है. इसमें लेखाकारी और हिसाब किताब के खेलों की पर्याप्त गुंजाइश होती है. अमीर देशों के प्रतिनिधि मंडलों में दसियों लोग आते हैं, हर तरह की वैज्ञानिक और वैशेषिक तैयारी के साथ. मनों टनों कागज, विशेषज्ञों की फौज और अपनी हर दलील के पीछे अथाह जानकारी के साथ.
गरीब देशों के पास इतने साधन होते नहीं हैं. उनके प्रतिनिधि और वार्ताकार इतनी तैयारी से नहीं आते. उन पर दबाव डालना मुश्किल नहीं होता, तब भी नहीं जब सत्य प्रत्यक्ष रूप से उनका समर्थन कर रहा हो. पेरिस में गरीब देशों की हार हुई है.
गरीब और विकासशील देशों पर बढ़ते दबाव का एक कारण उनकी अपनी परिस्थिति भी है. असल में जलवायु परिवर्तन की गाज गरीब देशों पर ही गिरेगी.
उदाहरण के लिए भारत को ही लीजिए. हमारी अर्थव्यवस्था, खेती और बिजली उत्पादन चौमासे पर, मॉनसून की बारिश पर निर्भर है. हमारे यहाँ होने वाली कुल बारिश का 70-90 प्रतिशत मॉनसून के तीन महीनों में गिर जाता है.
हर वैज्ञानिक आकलन कई सालों से बताता आ रहा है कि जलवायु के बदलने से मॉनसून की बारिश का ढर्रा बदलेगा. पिछले कुछ सालों के वर्षा के आँकड़े बता रहे हैं कि तेज पानी गिरना बढ़ता जा रहा है, जबकि रिसझिम बारिश के दिन घटते जा रहे हैं.
मतलब पानी कम गिर रहा है, और जब गिरता है तो झड़ी ही लग जाती है. अकाल और बाढ़, दोनों की ही अति होती जा रही है. भारत के आगे कुआं है और पीछे खाई.
अगर भारत अमेरिका की दादागिरी के आगे झुक जाए तो आर्थिक विकास के रास्ते घट जाते हैं. जलवायु परिवर्तन को रोकने की भरपूर कोशिश न की तो उसकी मार भी सबसे ज्यादा यहीं लगनी तय है.
एक तीसरी परिस्थिति भी है, इन दोनों से और बदतर. वह है कि भारत सामूहिकता के भाव में अपने औद्योगिक विकास पर अंकुश लगाता है, लेकिन जलवायु के बदलने के असर भी झेलता रहे क्योंकि अमीर देश अपनी कार्बन की भूख पर संयम रखने को तैयार न हों.
यह विषमता बढ़ेगी. इसका संकेत अमीर देशों के विगत व्यवहार में तो है ही, पेरिस के समझौते में यह और भी साफ दीखता है.
पेरिस में यह सिद्ध हो गया कि पीड़ित व्यक्ति उस कारावास में है जिसकी चाबी अपराधी की जेब में है.
( ये लेखक के निजी विचार हैं )
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