उर्दू पर सितम ढाकर ग़ालिब पर करम क्यों?

मार्कण्डेय काटजू पूर्व अध्यक्ष, प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर अपने बयानों से हलचल पैदा करने के लिए ख़ासे मशहूर रहे हैं. उन्होंने भारत में उर्दू भाषा के साथ होने वाले अन्याय या भेदभाव पर दो मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब और साहिर लुधियानवी को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 4, 2016 12:06 PM
उर्दू पर सितम ढाकर ग़ालिब पर करम क्यों? 2

प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर अपने बयानों से हलचल पैदा करने के लिए ख़ासे मशहूर रहे हैं.

उन्होंने भारत में उर्दू भाषा के साथ होने वाले अन्याय या भेदभाव पर दो मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब और साहिर लुधियानवी को याद किया है और साहिर की शायरी के ज़रिए अपनी राय रखी है. पढ़ें –

1969 में आगरा में ग़ालिब की देहांत शताब्दी समारोह जश्न-ए-ग़ालिब में साहिर लुधियानावी की पंक्तियां थीं-

"जिन शहरों में गूंजी थी ग़ालिब की नवा बरसों,

उन शहरों में अब उर्दू बेनाम-ओ-निशाँ ठहरी।

आज़ादी-ए-कामिल का ऐलान हुआ जिस दिन,

मातूब जुबां ठहरी, ग़द्दार ज़ुबाह ठहरी।।"

(नवा यानी आवाज़, कामिल यानी पूरा, मातूब यानी निकृष्ट)

”जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िंदा जुबां कुचली

उस अहद-ए-सियासत को महरूमों का ग़म क्यों है?

ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू का ही शायर था,

उर्दू पर सितम ढाकर ग़ालिब पर करम क्यों है?”

(अहद यानी युग, सियासत यानी राजनीति, महरूम यानी मृत, सितम यानी ज़ुल्म, करम यानी कृपा)

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