लड़की जो लड़कों को चित करती है..
सलाहुद्दीन ज़ैन बीबीसी उर्दू संवाददाता कुश्ती भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोकप्रिय है, जो परंपरागत रूप से पुरुषों का खेल रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में लड़कियां भी रुचि दिखा रही हैं. ऐसी ही लड़कियों में हैं 17 साल की दिव्या सैन. लेकिन उनकी ख़ासियत यह है कि वो अखाड़े में लड़कों […]
कुश्ती भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोकप्रिय है, जो परंपरागत रूप से पुरुषों का खेल रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में लड़कियां भी रुचि दिखा रही हैं.
ऐसी ही लड़कियों में हैं 17 साल की दिव्या सैन. लेकिन उनकी ख़ासियत यह है कि वो अखाड़े में लड़कों को चुनौती देती हैं.
दिव्या कहती हैं, "कहते हैं लड़कों में अधिक ताक़त होती है, उन्हें लड़कियों को चित करना अच्छा लगता है. मगर लड़कों को हराने में एक अलग ही मज़ा है क्योंकि लड़कियों को कोई कुछ समझ नहीं है और लड़के जब लड़की से हारते हैं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता है."
ऐसी प्रतियोगिताओं में दिव्या ने अब तक दर्जनों लड़कों को मात दी है. अब अखाड़े में लड़के बड़ी मुश्किल से उनके मुक़ाबले में उतरते हैं. कुछ दिन पहले इटावा में एक लड़के से उनकी कुश्ती के लिए आठ मिनट का समय रखा गया था पर दिव्या ने आठ सेकेंड में ही बाज़ी मार ली.
वे बताती हैं "लड़कों से यह कुश्ती काफ़ी दिन बाद हुई, तो थोड़ा विश्वास कम था. इसलिए मैंने सोचा कि दांव-पेंच क्या खेलें, जाते ही हमला क्यों न किया जाए. जाते ही धोबी पाट मारी और आठ सेकेंड में चित कर दिया."
खुले अखाड़ों में लड़कों की कुश्ती तो आम बात है, लेकिन लड़कियों के लिए इसके दरवाज़े आमतौर पर बंद ही रहते हैं.
दंगल में लड़के के सामने लड़की का ताल ठोककर खड़ा होना ही केवल एक चुनौती नहीं है. कुश्ती शरीर की पकड़-धकड़ और दांव-पेंच का खेल है. लड़के केवल लंगोट पहनते हैं और लड़कियों की पोशाक अलग होती है. लेकिन दिव्या अब इन सभी अड़चनों से पार पा चुकी हैं.
वह कहती हैं, "मैं लड़कों को पहले ही बता देती हूं कि मेरे कपड़े मत पकड़ना. कई बार कहने पर वो और अधिक पकड़ते हैं. इसी तरह एक लड़का मना करने पर नहीं माना तो चित करने के बाद उसकी छाती पर बैठकर मैंने कहा, मेरे कपड़े मत पकड़ाकर."
तो यह शौक था या मज़बूरी, जिसकी वजह से एक लड़की ने लड़कों से टक्कर लेने की ठानी?
दिव्या बताती हैं, "लड़कियों से लड़ने में पैसे बहुत कम मिलते थे. एक बार रामपुर गांव में एक लड़के से मेरी कुश्ती की घोषणा हुई और लड़के के पिता ने कहा कि यदि तू मेरे बेटे को हरा दे, तो मैं 500 रुपए का पुरस्कार दूंगा. सुनकर मुझे लगा कि जीत गई तो मेरे तो मज़े हो जाएंगे. लेकिन कुश्ती ऐसी अच्छी हुई कि जब मैं जीती, तो 3000 रुपए मिले.”
वे कहती हैं, "मैंने सारे पैसे मम्मी को दिए. मैंने सभी नोट फैला दिए ताकि खूब ढेर सारे लगें. मुझे बड़ा अच्छा लगा जब मम्मी उनमें से दस-दस और दो-दो रुपए चुन रही थीं. उस समय मेरी आंख में पानी आ गया था कि पहली बार मेरे पास इतने पैसे आए थे."
और फिर खस्ता माली हालत के कारण मजबूरी में यह सिलसिला चल निकला, जिसके लिए उनके परिवार का मजाक भी उड़ाया गया.
दिव्या के पिता सूरजवीर कहते हैं, "लोग कहते थे कि लड़की से कुश्ती लड़वाएगा, वह भी लड़कों से. ख़ुद घर में विरोध शुरू हो गया और गांव-समुदाय के लोगों ने तरह-तरह की बातें कीं. मगर जब उसने अच्छा प्रदर्शन किया तो कुछ लोगों ने समर्थन भी किया."
लड़की और लड़का की कुश्ती इस खेल के प्रशंसकों के लिए भी किसी क्रांति से कम नहीं. इसकी घोषणा के साथ ही जोश और उत्साह बढ़ जाता है. भीड़ उमड़ पड़ती है.
दिव्या कहती हैं कि उनकी सबसे अच्छी कुश्ती हिमाचल प्रदेश में हुई थी, जिसे वह हमेशा याद रखेंगी.
वह बताती हैं, "दो लड़कियों को हराने के बाद एक लड़के से कुश्ती की घोषणा हुई, जो 18 मिनट चली. दंगल में इतनी लंबी कुश्ती नहीं चलती, पर लड़का बड़ा तगड़ा था और मैं पस्त हो चुकी थी. लड़का बार-बार यह सोचकर कि वह जीत चुका है, खुशी से बाहर हो जाता."
वह बताती हैं, "एक बार वह पानी पीने अखाड़े से बाहर गया और पूछा कि क्या मैं पानी पीने जाऊंगी. मैंने कहा पहले यहां आकर कुश्ती लड़ और फिर मैंने उसे चित कर दिया. वह बहुत मुश्किल लेकिन बड़ी यादगार कुश्ती रही."
इस रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं था लेकिन दिव्या को इसका फ़ायदा भी मिला. लड़कों से लड़ने के कारण उनका मनोबल बढ़ा और लड़कियों से उनकी कुश्तियां कुछ आसान हो गईं.
वे बताती हैं, "लड़कों में ताक़त अधिक होती है और फिर मुझे दंगल में चित करने की आदत है तो इससे लड़कियों के सामने मेरी हिम्मत बढ़ जाती है. कई बार अंत तक मेरा एक भी प्वाइंट नहीं होता लेकिन चित करके दूसरे के सारे प्वाइंट मिटा देती हूँ."
दिव्या के कंधे भी पहलवानों की तरह मज़बूत और चौड़े हैं. उनका अनोखी शैली जहां लड़कों पर भारी पड़ती है, वहीं लड़कियों के 70 किलो वज़न में वे अब तक कई पदक जीत चुकी हैं.
उनके अखाड़े के कोच विक्रम कहते हैं, "होनहार खिलाड़ी के लक्षण दिख ही जाते हैं. इस लड़की में बड़ी खूबियां हैं. अभी कुछ महीने पहले ही एशियाई प्रतियोगिताओं में दिव्या अकेली भारतीय लड़की थीं जिन्होंने दो पदक जीते, बाकी किसी को कुछ नहीं मिला. आगे चलकर उनसे काफ़ी उम्मीदें हैं."
लेकिन इतनी ख़ूबियों वाली 17 साल की इस लड़की का ग़रीबी ने पीछा नहीं छोड़ा. वह दिल्ली की एक तंग अंधेरी गली में अपने माता-पिता और भाइयों के साथ किराए के एक मकान में रहती हैं.
प्रशिक्षण का समय तो है, लेकिन सामान नहीं है और उपकरण है तो पूरी ख़ुराक नहीं.
उनके जिम के कोच अमित कुमार कहते हैं, "कमी यह है कि घर के हालात अच्छे नहीं हैं इसलिए पूरी ख़ुराक और प्रोटीन नहीं मिल पाता. वरना और अच्छा प्रदर्शन करे."
इन सब मुश्किलों के बावजूद दिव्या ने साबित किया है कि अगर लड़कियों को भी लड़कों की तरह मौक़े मिलें तो वो लड़कों से दो क़दम आगे निकल सकती हैं.
दिव्या की मां संयोगिता का अन्य माँओं के लिए यही संदेश है. "लड़कियां लड़कों से कम नहीं होतीं. एक बार लड़का माँ-बाप का सपना पूरा करने में विफल रह सकता है, पर लड़की को मौक़ा मिले तो लड़के से आगे निकल सकती है."
उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की दिव्या सैन ने लड़के-लड़कियों के बीच के भेदभाव को मात दी है, मुश्किलों को हराया है, जातीय अड़चनों को चित किया है, रूढ़िवादी परंपराओं को परास्त किया है और ग़रीबी से लड़ते हुए वह हर रोज़ अपने ओलंपिक के लक्ष्य की ओर दौड़ रही हैं.
उनका जीवन भी एक अंडरडॉग की दिलचस्प कहानी है.
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