बौद्धिक विमर्श है या तमाशा?
बहस : न्यूज चैनलों पर एंकर की आक्रामकता और पैनलिस्टों का वाक् युद्ध मीडिया के विस्तार के कारण परस्पर प्रतिस्पर्द्धा भी उत्तरोत्तर कड़ी होती जा रही है. दर्शकों को लुभाने और टीआरपी जुटाने की कवायद ने खबरिया चैनलों को विभिन्न प्रयोग करने के लिए बाध्य किया है. इनमें से कुछ प्रयोग सराहनीय हैं, पर कई […]
बहस : न्यूज चैनलों पर एंकर की आक्रामकता और पैनलिस्टों का वाक् युद्ध
मीडिया के विस्तार के कारण परस्पर प्रतिस्पर्द्धा भी उत्तरोत्तर कड़ी होती जा रही है. दर्शकों को लुभाने और टीआरपी जुटाने की कवायद ने खबरिया चैनलों को विभिन्न प्रयोग करने के लिए बाध्य किया है. इनमें से कुछ प्रयोग सराहनीय हैं, पर कई बार चैनलों ने समाचार देने और स्वस्थ विमर्श प्रस्तुत करने के अपने कर्तव्य के साथ न्याय नहीं किया है. खास कर टीवी की सांध्यकालीन बहसों में होनेवाले शोर-शराबे, पैनलिस्टों पर एंकरों के हावी होने, बेमानी टोकाटाकी आदि ने बहस के मतलब को ही बदल दिया है. कुछेक चैनलों को छोड़ दें, तो ऐसा दृश्य लगभग हर भाषा के हर समाचार चैनल के स्क्रीन पर देखा जा सकता है.
यह भी बड़ा अजीब है कि इन कार्यक्रमों को अपेक्षाकृत शांत और सौम्य बहसों की तुलना में अधिक देखा जाता है. यही कारण है कि चैनल और एंकर अपना रवैया और बहस के फॉर्मेट को बदलना नहीं चाहते. जाने-माने टिप्पणीकार भी ऐसे आक्रामक कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं. ऐसे में टीवी पर संजीदा बहसों की उम्मीद बेमानी होने लगी है, क्योंकि हंगामेदार कार्यक्रम बेहतर टीआरपी और विज्ञापनों को आकर्षित करते हैं. भारतीय टेलीविजन के इस स्वरूप के विभिन्न आयामों को समझने की कोशिश आज की विशेष प्रस्तुति में…
अज्ञान, टकराव, उत्तेजना, विवाद परोसने का दौर
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय खबरिया चैनलों की यह सबसे बड़ी असफलता है कि वे चैनल को ज्ञान और सूचना का माध्यम न बना कर तू-तू मैं-मैं का प्लेटफॉर्म बना रहे हैं. दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में, जहां मीडिया की स्वतंत्रता है, भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसी स्थिति नहीं है.
वे बड़े सलीके से चर्चा को आगे बढ़ाते हैं. दरअसल, देश में खबरिया चैनलों की जिस तरह से एक बाढ़-सी आ गयी है, ऐसे में मुझे लगता है कि इन खबरिया चैनलों ने बाजार में अपने को टिकाये रखने के लिए आक्रामकतावाला नया फॉर्मेट तैयार कर लिया है, ताकि चैनल की टीआरपी बढ़े और ज्यादा-से-ज्यादा विज्ञापन आये. ये चैनल अपने अज्ञान को, टकराव को, उत्तेजना को, विवाद को या आक्रामकता को बाजार में बेचने का काम कर रहे हैं. ज्ञान, सूचना और पत्रकारिता से इनका सरोकार लगातार खत्म हो रहा है.
अपवादों को छोड़ दें, तो हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में न्यूज चैनल का एंकर जिस विषय पर चर्चा के लिए मेहमानों को आमंत्रित करता है, उस विषय के बारे में उस एंकर को खुद कोई खास जानकारी नहीं होती है.
मसलन, भारत-पाक रिश्ते पर, किसी गूढ़ आर्थिक विषय पर, विदेश नीति पर या संवैधानिक तथ्यों आदि पर बहस कराने के लिए ऐसे एंकर को बिठा दिया जाता है, जिसे इन विषयों के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं होती. यही वजह है कि वह मेहमान विशेषज्ञों को बिना सुने उनकी बात काटता रहता है. दरअसल, वह एंकर पीसीआर (प्रोडक्शन कंट्रोल रूम) के इशारे पर चलता है और वहां से उसे जो कुछ निर्देश दिया जाता है, उसी का अनुसरण करता रहता है. ऐसे में कोई चर्चा जीवंत नहीं हो पाती और श्रोता व दर्शक को कोई अतिरिक्त ज्ञान या सूचना नहीं मिल पाती.
ऐसे एंकरों की खासियत यह होती है कि वह मेहमान विशेषज्ञाें से सिर्फ अपनी बात कहवाना चाहता है. इसलिए वह मेहमानों को अपनी पूरी बात कहने तक का मौका न देकर एक तरह का भयादोहन करता है. कई चैनलों का तो उद्देश्य ही यही होता है कि मेहमान विशेषज्ञों को आपस में लड़ा दिया जाये, ताकि बौद्धिक विमर्श खत्म हो जाये और वाक् युद्ध या आक्रामकता पैदा कर दर्शकों को आकृष्ट किया जाये. हालांकि, गिरावट के इस दौर में भी कुछ एंकर नयी जानकारी परोसने के लिए दमदारी के साथ खड़े हैं.
बहस को एंकर नहीं, मालिक बनवाते हैं आक्रामक
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
खबरिया चैनलों की आक्रामक बहसों को लेकर यह सवाल उठते रहे हैं कि चैनल के एंकर और पैनलिस्ट लड़ने सरीखा बहसें क्यों करते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि एंकर ही बहस को आक्रामक बनाते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि एंकर नहीं, बल्कि चैनलों के मालिकान बहसों को आक्रामक बनाते हैं.
भारत के किसी भी खबरिया चैनल के किसी भी एंकर को शायद यह अधिकार नहीं है कि चैनल मालिक की इजाजत के बिना वे ऐसा तेवर अपनायें, जो उनके पैनलिस्टों को भी नागवार गुजरे. चैनल मालिकों के दिशा-निर्देश और कृपा-कटाक्ष के बिना कोई भी एंकर आक्रामक नहीं हो सकता. इसके प्रति या उसके प्रति, जिस किसी चैनल की जिसके प्रति पक्षधरता होती है, उसके प्रतिद्वंद्वी को संकोच में डालने के लिए एंकर आक्रामक मुद्रा अख्तियार करता है. पैनलिस्ट भी ऐसा ही करते हैं. यह एक तरह से नूरा-कुश्ती के खेल सरीखा होता है, जिसका उद्देश्य टीआरपी बढ़ाना होता है. जो एंकर इस बात के लिए बदनाम हैं कि वे पैनलिस्ट को बाेलने ही नहीं देते हैं, इससे पहले वे जिस चैनल में होते थे, वहां तो भीगी बिल्ली की तरह रहते थे, क्योंकि मालिक का वैसा ही दबाव होता था.
लेकिन, जब वे उस चैनल को छोड़ कर दूसरे चैनल में पहुंचे, तो अपनी पहचान बनाने के लिए आक्रामकता को अपनाया. यहां भी मैं इस बुनियादी बात पर कायम हूं कि मालिक की शह के बिना कोई एंकर चैनल में बना नहीं रह सकता. अब सवाल यह है कि एंकर की आक्रामकता के बावजूद मालिक उसे अपने यहां क्यों रहने देता है? जवाब सीधा है. चैनल मालिकों के लिए यह व्यवसाय है, जिसमें नुकसान वह कभी नहीं चाहेगा. मुझे लगता है कि एंकर की शैली और तेवर मालिक के व्यवसाय के साथ जुड़ जाते हैं. पैनलिस्टों में सरकार या पार्टी के प्रवक्ता भी होते हैं, ऐसे में चैनल का मालिक सरकार को नाराज करने का खतरा एक सीमा तक ही उठा सकता है.
इसलिए मालिक ऐसे एंकर रखते हैं, जिसे देख कर नेता या पार्टी प्रवक्ता घबराने लगें कि पता नहीं कब कौन-सा खुलासा करेगा या कैसा सवाल पूछ देगा. विदेशी चैनलों में भी ऐसे एंकर होते हैं, लेकिन वे अपने पैनलिस्ट को बोलने का पूरा मौका देते हैं. हमारे यहां कुछ एंकर तो किसी को बोलने का मौका ही नहीं देते, जो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की गरिमा के लिए ठीक नहीं है.
इस स्थिति का दर्शकों को सबसे ज्यादा नुकसान
दिबांग
वरिष्ठ टीवी पत्रकार
आक्रामक होना अपने आप में बुरी बात है, चाहे वह कोई एंकर हो या फिर कोई भी आम व खास आदमी. जहां तक न्यूज चैनलों पर बहसों में आक्रामकता का सवाल है, तो इसका बहुत बुनियादी पहलू यह है कि लोगों में बहस के विषय से संबंधित पुख्ता तैयारी का अभाव देखने को मिलता है, जिसका परिणाम यह होता है कि एंकर और सभी पैनलिस्ट एक साथ बोलने लगते हैं. ऐसे में कुछ भी समझ में नहीं आता कि कौन क्या कह रहा है. इसका सबसे ज्यादा नुकसान दर्शकों को होता है.
दूसरा पहलू यह है कि पहले बहस के लिए सप्ताह का एक दिन तय होता था, जिसमें शामिल होनेवाले पैनलिस्ट बहुत पढ़े-लिखे और अपने विषय के जानकार होते थे. आज बहुत सारे न्यूज चैनल शुरू हो चुके हैं और सभी चैनलों पर तकरीबन एक ही वक्त पर बहस शुरू होती है.
रोजाना और लगातार बहसों के चलते जानकार लोग हर जगह नहीं पहुंच पाते, बंट जाते हैं, जिससे टीवी बहसों का स्तर थोड़ा गिर गया है. दूसरी ओर राजनीतिक पार्टियों में बहुत कम ऐसे हैं, जो जानकार हैं, वरना तो ज्यादातर प्रवक्ताओं की हालत यह है कि वे राजनीतिक इतिहास से अज्ञान हैं. कहीं न कहीं यह अज्ञानता ही आक्रामकता का कारण हो सकती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे जो कह रहे हैं, वही सही है.
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुत से वरिष्ठ पत्रकारों में भी कुछ खास विषयों को लेकर विशेषज्ञता नहीं है, जबकि वे हर मुद्दे पर बोलते हैं. यह स्थिति भी बहस के स्तर को कमजोर करती है और चैनलों पर तू-तू मैं-मैं को जन्म देती है. टीवी पर किसी विषय पर बहस का अर्थ है विशेषज्ञों की विशेष राय या टिप्पणी, जो लोगों का ज्ञानवर्धन करे. लेकिन, वर्तमान में हमारे खबरिया चैनलों में ऐसी चीजों की कमी आ गयी है. एक और बात अहम है कि हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अमेरिकी फॉक्स चैनल की नकल कर रहा है, एक के बाद एक सभी चैनल इसी ट्रेंड का अनुसरण कर रहे हैं, वह चाहे हिंदी न्यूज चैनल हो या अंगरेजी.
हालांकि, हमारे दर्शक बहुत समझदार हैं और जब तक सह रहे हैं, तभी तक यह संभव है. जिस दिन इसकी खुल कर आलोचना करना शुरू करेंगे, उस दिन से हमारा मीडिया शायद कुछ संभल जाये.
टीआरपी
टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट एक यंत्र होता है, जिसे कुछ हजार दर्शकों के टेलीविजन सेट से जोड़ा जाता है. यह यंत्र उस घर में देखे गये कार्यक्रमों और विज्ञापनों की जानकारी देता है. इस सैंपल के आधार पर विभिन्न भौगोलिक और जनसंख्या वर्ग के सभी टीवी मालिकों की पसंद का निर्धारण किया जाता है. इस यंत्र को पीपुल्स मीटर भी कहा जाता है. अंतिम संख्या का आकलन 30 दिनों के औसत के आधार पर किया जाता है.
2016 में टीवी पर विज्ञापन
बाजार के जानकारों का मानना है कि वर्ष 2016 में कुल विज्ञापनों में 13 फीसदी की वृद्धि होगी और इसका बड़ा अंश टेलीविजन के हिस्से में जायेगा. वर्ष 2015 में टीवी विज्ञापन में 10 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी और इस वर्ष इसके 15 फीसदी होने का अनुमान है. इस वृद्धि का बड़ा कारण ई-कॉमर्स सेक्टर से विज्ञापनों की बड़ी आमद है. माना जा रहा है कि इस वर्ष के अनुमानित 48,797 करोड़ रुपये के विज्ञापनों में से 13,946 करोड़ रुपये टीवी के, 20,660 करोड़ प्रिंट मीडिया के तथा 4,583 करोड़ रुपये डिजिटल मीडिया के हिस्से में जा सकता है.
(स्रोत : मिंट की रिपोर्ट)
चिंता बढ़ा रही है एेसी बहस
पुरुषोत्तम अग्रवाल
वरिष्ठ स्तंभकार
अपने देश में पिछले कुछ करीब एक दशक में टीवी का जो हाल हुआ है, उस कारण मैं अब चाहे देश में रहूं या विदेश में, टीवी कम ही देखता हूं. दुनिया के अन्य देशों के टेलीविजन पत्रकारिता के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं जानता, फिर भी मुझे लगता है कि टीवी पत्रकारिता की भारत जैसी स्थिति कम-से-कम इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस और मैक्सिको में तो नहीं है. संभवतया अमेरिका में कुछ चैनलों पर ऐसा होता हो, लेकिन भारत में टीवी पर एंकर की जो आक्रामकता है, यह न केवल पैनलिस्टों का, बल्कि दर्शकों का भी अपमान है.
इसमें ज्यादातर एंकर पैनलिस्ट को उसकी बात रखने के लिए नहीं, बल्कि अपनी बात को टांगने के लिए खूंटी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. और यह आक्रामकता एक ऐसा अंदाज बन गयी है, जिसमें एंकर को लगता है कि उनकी निर्भीकता और उनका धांसूपन रेखांकित हो रहा है. वास्तविकता यह है कि रेखांकित केवल उनका अहंकार, उनका अधैर्य और उनकी हड़बड़ी होती है.
इस तरह की स्थिति न तो दर्शकों को बहस के विभिन्न पक्षों को जानने-समझने का अवसर देती हैं, न ही इससे दर्शकों की जानकारी में इजाफा हो पाता है. न उनकी सोच को साफ होने में मदद करती है. और इसीलिए देखा जाता है कि ज्यादातर चैनलों पर (अपवादस्वरूप कुछ चैनलों और कुछ कार्यक्रमों को छोड़ कर) यही हाल है. हालत यह हो गयी है कि टीवी देखते समय आपको यह अंदाजा तक नहीं होता कि आप एक चैनल से दूसरे पर कब पहुंच गये.
कुल मिला कर टेलीविजन बहस की स्थिति बहुत ही खराब और चिंताजनक हो गयी है. मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति इन बहसों को देख-सुन कर किसी भी मुद्दे पर अपनी समझ को साफ होता हुआ या समृद्ध होता हुआ पाता होगा. इन बहसों का लक्ष्य बुनियादी तौर से यह है कि मान लीजिए कोई राजनीतिक मुद्दा है, तो उस पर देश की राजनीतिक पार्टियों की क्या राय है, विभिन्न बुद्धिजीवियों की क्या राय है, यह बात दर्शकों तक पहुंचे. लेकिन, होता सिर्फ यह है कि दर्शकों तक केवल एक चीज पहुंचती है अौर वह यह कि एंकर में कितनी आक्रामकता है, उसके गले और फेफड़ों में कितनी ताकत है.
रिमोट तो दर्शक के हाथ में ही है
स्वपन दासगुप्ता
वरिष्ठ पत्रकार
किसी न्यूज चैनल या टीवी चैनल का अपना स्टाइल होता है, जिसे दर्शकों को ध्यान में रख कर अपनाया जाता है. हालांकि, चैनल चाहे जिस तरह से अपने कार्यक्रम को पेश करें, आखिरी च्वॉइस तो दर्शकों की ही होती है कि वे क्या और कैसा देखना पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हीं के हाथ में टीवी का रिमोट होता है. व्यक्तिगत तौर पर मैं न्यूज चैनल की आक्रामक बहसों को अच्छा नहीं मानता. लेकिन, चूंकि चैनल अपने टीआरपी हित के लिए ऐसा करते हैं, उस नजरिये से मैं इस पर कुछ भी कहना नहीं चाहता. मैं मानता हूं कि इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात है दर्शकों की प्रतिक्रिया. अगर दर्शक आक्रामक बहसों को देख कर चैनल बदल देते हैं, तो यह बात सिर्फ टीवी रूम तक ही सीमित होकर रह जायेगी. ऐसे कार्यक्रमों में बदलाव तभी आयेगा, जब दर्शकों की रिमोट कंट्रोल के दायरे से बाहर कोई प्रतिक्रिया होगी. ऐसा तभी होगा, जब दर्शकों में यानी हमारे समाज में आक्रामकता न हो.
जहां तक खबरिया चैनलों की आक्रामक बहसों, एंकरों द्वारा पैनलिस्टों की बात को बीच में काटना, बहस को सही तरीके से न चला कर उन्मादी बनाना आदि जैसे पत्रकारीय नैतिकता की बात है, तो ऐसा कोई कायदा-कानून तो है नहीं कि चैनल और एंकर उसका पालन करेंगे. लेकिन हां, यह अटपटा जरूर है कि एंकर या चैनल खुद को ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे जो कह रहे हैं, वही सच है, बाकी पैनलिस्ट उनके सच पर खरे नहीं उतर रहे. मुझे लगता है कि ऐसा करना चैनलों और एंकरों के उस सच के एकाधिकार को दिखाता है, जिसके तहत वे बहस को आक्रामकता प्रदान करते हैं. दरअसल, यह हमारे समाज का ही प्रतिबिंबन है.
आप देखते होंगे कि एक चाय की दुकान पर कोई ऐसी बहस शुरू कर देता है और अपनी हर बात को मनवाने की कोशिश करता है. आप उसकी बात को नहीं मानते हैं, तो वह आक्रामक हो जाता है. चैनलों पर बहसें सिर्फ हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के बहुत से देशों में होती हैं, लेकिन एंकर या चैनल के एकाधिकारवाली बातें वहां नहीं होती हैं, क्योंकि वे बहस को शांति से भरी गंभीरता से लेते हैं.