शराब बेचती थीं, अब सपने बेचती हैं…
शुभ्रांशु चौधरी बीबीसी हिंदी के लिए मेघालय का खासी आदिवासी समाज एक मातृवंशीय समाज है जहां पुरुष महिलाओं के उपनाम लेते हैं और संपत्ति पर भी महिलाओं के अधिकार अधिक हैं. लेकिन महिलाएं ही वहां अधिक काम करती दिखती हैं और पुरुष अक्सर शराब पीकर धुत्त और सड़क किनारे गप्पें लगाते. मेघालय विधानसभा में भी […]
मेघालय का खासी आदिवासी समाज एक मातृवंशीय समाज है जहां पुरुष महिलाओं के उपनाम लेते हैं और संपत्ति पर भी महिलाओं के अधिकार अधिक हैं. लेकिन महिलाएं ही वहां अधिक काम करती दिखती हैं और पुरुष अक्सर शराब पीकर धुत्त और सड़क किनारे गप्पें लगाते.
मेघालय विधानसभा में भी महिलाओं की संख्या 60 में सिर्फ़ पाँच है.
पर ईस्ट खासी हिल ज़िले के माव्लिंगोत गांव में एक प्रयोग से महिलाओं और उसके साथ पूरे समाज की स्थिति कुछ बदली है.
बांग्लादेश की सीमा पर बसे इस गांव का मुख्य पेशा शराब बनाना था. महिलाएं ही उसमें अधिक काम करती थीं लेकिन पति यही शराब पीकर उनको अक्सर मारते थे.
वर्ल्ड विज़न स्वयंसेवी संस्था के टोनी मुखीम कहते हैं, "यह सब देखकर हमने इस गांव की महिलाओं के सामने एक प्रस्ताव रखा कि क्या वे कोई दूसरा काम करना चाहेंगी पर उन्होंने कहा कि उन्हें राइस बीयर बनाने के सिवा और कोई काम नहीं आता. पीढ़ियों से वे यही काम करते आ रही हैं."
भारत सरकार का बार्डर एरिया डेवेलपमेंट फंड ऐसे ही ग्रामीणों की मदद के लिए बना है .
बैठकों का दौर शुरू हुआ, समूह बना, फिर सभी ने मिलकर इलाके को जैविक चाय के बगीचे के रूप में विकसित करने का तय किया.
नाम दिया उर्लोंग. खासी में जिसका अर्थ है सपने जिनको पंख लगे.
समूह की सदस्या इबाशिशा पिन्ग्रोप कहती हैं, “चाय भी एक नशा है पर शराब से कम ख़तरनाक. इस व्यापार के बाद हम महिलाओं का जीवन सुधरा है. अब हम अपने बच्चों को भी स्कूल भेज रही हैं, हम भी भविष्य के नए सपने देख पा रही हैं, अब शराब पीकर पति भी नहीं मारते, हमने इलाके से शराब को बैन भी कर दिया है."
गांव के 22 परिवारों का समूह बना है जो साल में दो लाख की ही कमाई कर पाते हैं.
सिंराप्बोर्लांग मिन्सोंग इस समूह के सचिव हैं और कहते हैं, "कुछ सालों बाद जब हम सरकार से लिया उधार चुका देंगे तब आय और बढ़ेगी और अब उर्लोंग चाय धीरे-धीरे इंटरनेट पर भी पहुँच बढ़ाने की कोशिश कर रहा है जिससे दूर दराज़ के लोग भी इस गांव से चाय मंगा सकें."
कियाद पिरसी समूह के लिए खजांची का काम करती हैं.
वो कहती हैं, "हमारे गांव की सफलता को देखकर पड़ोसी गांव भी अब हमसे सीखना चाहते हैं कि हमने अपने जीवन को कैसे बदला और हम भी उन्हें सिखाना चाहते हैं जिससे उनका जीवन भी बेहतर हो. अब पुरुष भी चाय बागान में अधिक काम करने लगे हैं. हमारा समूह सूखे पत्तों के 60 रुपए प्रति किलो का भाव देता है. उस आय से भी वे शराब नहीं खरीदते. वे भी उस धन का अब सही उपयोग कर रहे हैं."
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