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असम की चुनावी मंडी में बदरूद्दीन का बढ़ता भाव

मुकेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने पूछा था कि ये बदरूद्दीन कौन है? ज़ाहिर है कि वे जानकर भी अनजान बन रहे थे. वे उस शख़्स को पहचानने से इनकार कर रहे थे, जिसकी असम के चुनाव […]

हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने पूछा था कि ये बदरूद्दीन कौन है? ज़ाहिर है कि वे जानकर भी अनजान बन रहे थे. वे उस शख़्स को पहचानने से इनकार कर रहे थे, जिसकी असम के चुनाव बाज़ार में आज सबसे ज़्यादा मांग है.

सच तो ये है कि वे और उनकी पार्टी भी बदरूद्दीन से चुनावी तालमेल करने को छटपटा रहे हैं. उन्हें पता है कि बदरूद्दीन फ़ैक्टर सबसे ज़्यादा उन्हीं की चुनावी संभावनाओं पर असर डालेगा.

दरअसल, कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर कोई और दल, सबकी नज़र मौलाना बदरूद्दीन अजमल पर टिकी हुई हैं. बदरूद्दीन तुरूप का वह पत्ता हैं जो जिसके भी हाथ में आएगा, चुनाव में उसके वारे न्यारे हो जाएंगे. इसीलिए सभी उन्हें पटाने में लगे हुए हैं.

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कहने की ज़रूरत नहीं कि अगर बदरूद्दीन की रणनीति कामयाब हुई तो भले ही मुख्यमंत्री बनने का उनका ख़्वाब पूरा न हो लेकिन वे किंगमेकर तो बन ही जाएंगे. तय लग रहा है कि राज्य की दिशा तय करने में उनकी अहम भूमिका होगी.

केवल 10 साल के अंदर असम की राजनीति में ख़ास हैसियत हासिल करने वाले 65 वर्षीय बदरूद्दीन अजमल मूल रूप से इत्र के बड़े कारोबारी हैं. इत्र बनाना और बेचना उनका ख़ानदानी पेशा है जिसे वे पिछले 60 साल से कर रहे हैं.

कहा जाता है कि कुल 500 रुपए लेकर वे मुंबई गए थे. वहाँ से उन्होंने इत्र के अपने ब्रांड अजमल परफ़्यूम को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में फैलाना शुरू किया. फिर उन्होंने दुबई में ब्रांच खोली और अब 20 देशों में उनके इत्र ख़ुशबू बिखेरकर उनकी झोली भर रहे हैं.

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हमेशा कंधे पर असमिया गमछा लटकाए रखने वाले मौलाना बदरूद्दीन का व्यापारिक साम्राज्य अब इत्र तक सीमित नहीं रह गया है. रियल इस्टेट से लेकर चमड़ा उद्योग, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा जगत तक वे अपना पैर पसार चुके हैं.

लेकिन बदरूद्दीन की छवि केवल व्यापारी भर की भी नहीं है. वे दारूल उलूम देवबंद से इस्लाम और अरबी में फ़ाज़िल-ए-देवबंद (पोस्ट ग्रेजुएट के समतुल्य) हैं. ज़ाहिर है कि इसका इस्तेमाल उन्होंने ख़ुद को मुसलमानों के धार्मिक नेता के रूप में स्थापित करने के लिए किया है. इसमें वे काफ़ी हद तक कामयाब भी हुए हैं.

अपनी तीसरी पहचान उन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में बनाई है. अजमल फ़ाउंडेशन की देखरेख में असम में कई शिक्षा संस्थान, मदरसे, अनाथालय और अस्पताल चलते हैं. बदरूद्दीन का कहना है कि वे अपने पिता की नसीहत के मुताबिक़ अपनी कमाई का 25 फ़ीसदी असम के विकास पर ख़र्च करते हैं.

वे पानी से बीमारियों का इलाज भी करते हैं. अंध विश्वास फैलाने का आरोप लगने पर उन्होंने कहा कि अगर मेरी दुआओं से किसी को फ़ायदा होता है तो उसमें हर्ज क्या है.

इस तरह मौलाना बदरूद्दीन अपनी आर्थिक हैसियत के साथ-साथ धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों की बदौलत ग़रीब और पिछ़ड़े मुसलमानों में काफ़ी लोकप्रिय हैं. अवैध नागरिक ठहराए जाने से आतंकित मुस्लिम उनको संरक्षक के तौर पर भी देखते हैं.

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पिछले एक दशक में इत्र के इस कारोबारी ने एक सियासी खिलाड़ी के रूप में अपनी मज़बूत पहचान गढी है. असम में बढता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण उनके लिए बेहद मददगार साबित हुआ है. उन्होंने ख़ुद भी कई बार सांप्रदायिक पैंतरेबाज़ी दिखाकर उसका भरपूर लाभ उठाया है.

राज्य में मुस्लिम नेतृत्व के मामले में पैदा हुए शून्य को उन्होंने बख़ूबी भुनाया है. लेकिन वो भड़काऊ भाषण नहीं देते. उनकी राजनीतिक भाषा में टकराव के तत्व बहुत कम हैं. हाँ अल्पसंख्यकों के भय को भुनाने की कला में उन्हें महारत हासिल है.

हालाँकि मौलाना पर बीजेपी का साथ देने के आरोप भी लगते रहे हैं. लोकसभा चुनाव में उन्होंने सात सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर दिए थे, जिसकी वजह से वोट बँटे और दो सीटों पर उसका लाभ बीजेपी को मिला. उन्हें “हुजूर” कहकर संबोधित करने वालों ने ही इसका जमकर विरोध किया था.

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उनके विरोध की एक बड़ी वजह मौलाना की वंशवादी सियासत भी है. उन्होंने अजमल ख़ानदान को नए राजनीतिक घराने के रूप में क़ायम किया है. वे और उनके भाई सांसद हैं जबकि उनके दो बेटे विधायक.

वास्तव में असम की आबादी की बनावट बदरूद्दीन की सबसे बड़ी मददगार साबित हो रही है. विधानसभा की 126 में से 39 सीटें ऐसी हैं जिनमें मुस्लिम आबादी 35 फ़ीसदी के आसपास है, जबकि 20 सीटों पर वे 25 से 30 प्रतिशत तक है. यानी लगभग 50 सीटों पर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करके वे अपना जलवा दिखा सकते हैं.

मौजूदा विधानसभा में सत्तारूढ़ कांग्रेस के बाद उनकी पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एआईयूडीएफ़ के सबसे अधिक 18 विधायक हैं. अगर वे इस संख्या को 30 तक पहुँचाने में कामयाब हो गए तो किंगमेकर बन जाएंगे.

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वर्ष 2005 में उन्होंने पहला चुनाव लड़ा था और पाँच सीटों पर जीत हासिल की थी. अगले चुनाव में ये आँकड़ा लगभग तीन गुना हो गया. लोकसभा चुनाव में भी वह एक से तीन सीटों तक छलाँग लगा चुके हैं. इस लिहाज़ से देखा जाए तो लक्ष्य कोई बहुत दूर नहीं है.

यही वजह है कि चुनाव मंडी में उनकी डिमांड बढ़ती जा रही है. चतुर व्यापारी और घाघ नेता बदरूद्दीन इससे वाक़िफ़ हैं और इस मौक़े को भुनाने के लिए वे हर संभव दांव खेलने के लिए तैयार भी. इसके लिए वे तमाम दलों के साथ कड़ी सौदेबाज़ी में लगे हुए हैं.

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